रामकृष्ण परमहंस, महर्षि अरविंद और महात्मा गांधी भारत के आगामी नेतृत्व की पूर्वपीठिका तैयार करके गये हैं। महात्मा गांधी को गये अभी मात्र 70-75 साल ही हुए हैं। युग का नेतृत्व कभी भी इतने कम समय में फलीभूत नहीं होता। सत्य को कितना ही गहराई में दफन कर दिया जाए, काल-प्रवाह में वह ऊपर आ ही जाता है। यदि सत्ता से सत्य का विस्तार होता, तो पूरा समाज अब तक नैतिक और आध्यात्मिक हो गया होता।
यह तथ्य सर्वविदित है कि सत्ता को हमेशा सत्य से भय लगता है। वह सत्ता सर्वाधिक भयभीत रहती है और दूसरों को भयभीत करती है, जिसका मनुष्यता को धारण करने वाले सार्वत्रिक, वैश्विक सिद्धांतों में विश्वास नहीं होता। दुनिया के सबसे बड़े राजनीतिक दल होने का दावा करने वालों के पास आज भारत में सर्वधर्म समभाव स्थापित करने वाले कुछ सौ कार्यकर्ता भी नहीं हैं। भारतीय संस्कृति और हिंदू संस्कृति की रक्षा का दिन-रात जाप करने वालों का ईश्वर से अधिक विश्वास छल, कपट, षड्यंत्र और हथियारों पर है।
जब उनके आराध्य ही अलग हैं, जिनका साध्य और साधन की शुचिता पर विश्वास ही नहीं है, जो कहे एक और करे दूसरा को नीति मानते हैं, उनसे भारत के सनातन मूल्यों के विचारों की अपेक्षा कैसे रखी जा सकती है? जिन्होंने लोकतंत्र के मंदिरों को महाभारत काल की द्यूत क्रीड़ा के आंगनों में बदल दिया हो, जो शकुनी कहलाने में गर्व महसूस करते हों, दुर्योधन वृत्ति जिनका गहना हो, दु:शासन बनकर जनता के चीरहरण पर देश में जिनका अट्टहास गूंजता हो, देश का राजा ही यदि देश के बलरामों को किसान-कानूनों की जंजीरों में बांधने को आतुर हो, भीष्म को सदैव हस्तिनापुर की रक्षा का स्मरण कराता हो, द्रोणाचार्य को अपनी जय-जयकार में व्यस्त रखता हो, संजय की दिव्य दृष्टि को छीन ली हो, कर्ण जैसे मुख्यमंत्रियों को राज्य देकर अपनी मित्रता का गुलाम बना लिया हो, तो ऐसे में सावरकर की भक्ति और नाथूराम गोडसे की पूजा हो रही है तो आश्चर्य क्या है!
विवेकानंद के शब्दों में कहें तो यदि बीज मिट्टी में बो दिया गया है, तो क्या वह बीज मिट्टी हो जाता है। वह तो अपने लिए हवा-पानी से तत्व लेकर आगे बढ़ता ही है। आज ऐसा प्रतीत हो सकता है कि खर-पतवारों ने बीज को ढंक लिया है। जिन्हें गांधी विचार पर आस्था, श्रद्धा और विश्वास है, वे यदि गांधीजी के भौतिक स्मारकों की रक्षा करने में अपनी शक्ति लगाएंगे तो सत्ता के आगे बौने साबित होंगे। अपने जीवन में सत्य की रक्षा करने से गांधी विचार की रक्षा हो जाएगी। मनुष्य जाति से यह कार्य कालात्मा करा लेने वाला है। विज्ञान जिस तीव्र गति से बढ़ रहा है, उसमें वामपंथी, दक्षिणपंथी और धर्मनिरपेक्षता का विचार बह जाने वाला है। जिस वामपंथ का पूरी दुनिया में कभी डंका बजता था, आज उसकी क्या स्थिति है? उसी प्रकार दक्षिणपंथ विज्ञान युग के प्रतिकूल है। विज्ञान के चलते दक्षिणपंथ की सभी मान्यताएं धराशायी हो जाने वाली हैं। यद्यपि आज लहरें उठती दिखायी दे रही हैं। इस लहरों का भी स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। दक्षिणपंथ को भी अपने वर्चस्व को टिकाए रखने के लिए अन्य पंथों की जरूरत है। भयभीत मन ही ऐसा करने पर मजबूर होता है। गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति द्वारा सावरकर पर ‘अंतिम जन’ पत्रिका का विशेषांक प्रकाशित करना, महात्मा गांधी के प्रति कुंठित मानसिकता का प्रतीक है। इस विचारधारा को लगभग सौ साल पूरे होने जा रहे हैं, परंतु आज तक इस विचारधारा को मानने वालों ने ऐसा कोई कार्य नहीं किया है, जिससे समाज परिवर्तन को दिशा मिली हो। इस विचारधारा को यदि भारतीय संस्कृति की रक्षा की कसौटी पर कसा जाए, तो शून्य निष्पत्ति होगी। इतिहास के स्वर्णिम युग की कल्पनाओं में डूबे रहने वाले महानुभावों को गुलाम रहना और गुलाम बनाना आकर्षित करता है। इन्हें इतिहास पढ़ना और उसकी अपने तरीके से व्याख्या करना अति प्रिय लगता है। इनका इतिहास बनाने वालों से सदैव विरोध रहा है। समाज की जड़ता को समाप्त करने वाले ही इतिहास बना पाते हैं। महात्मा गांधी की नित्य विकसित होने वाली विचारधारा से इनका विरोध होना स्वाभाविक है।
नाथूराम गोडसे को हत्यारा कहने में जिनकी जबान तालू से चिपक जाती हो, माफी मांगने वालों को समय का तकाजा बताकर छल कपट के साथ महिमामंडित किया जाता हो, उनसे सत्य का पक्षधर होने की आशा करना बेमानी है। अकेले धर्मनिरपेक्षता से बात नहीं बनेगी, बल्कि धर्मसापेक्ष होकर सर्वधर्म समन्वय के विचार से गांधी विचार फलीभूत होगा।
भारत एक विशाल समुद्र है। इसमें समय-समय पर अनेक लहरें उठती रही हैं। समुद्र की लहरें होती हैं, लहरों का समुद्र नहीं होता। वह समय निकट ही दिखायी देता है, जिसमें सभी प्रकार की नकारात्मक विचारधाराएं समाप्त हो जाने वाली हैं और सकारात्मकता के सर्वोदय विचार का सूर्योदय होने ही वाला है। बस थोड़ा धैर्य और।
-डॉ पुष्पेन्द्र दुबे
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