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कलम या तलवार!

1880 के आसपास लाहौर के माल रोड पर एक अंग्रेज, सर जॉन लारेंस की एक आदमकद मूर्ति स्थापित की गयी थी। जॉन लारेंस पंजाब का पहला गवर्नर था और 1864 से 69 तक ब्रिटिश इंडिया का गवर्नर जनरल रहा। मूर्ति के दायें हाथ में एक कलम और बायें में एक तलवार थी। उसके नीचे लिखा हुआ था, ‘तुम कलम की हुकूमत चाहते हो या तलवार की?’ 1921-22 में जब गांधी के नेतृत्व में पूरे देश में असहयोग आंदोलन की आंधी उठी, तब लाहौर में इस मूर्ति को हटाने के लिए एक अनोखा आंदोलन प्रकट हुआ। जब गाँधी जी ने देखा कि असहयोग की जमीन पर खड़ा हो रहा आन्दोलन, उसकी वैचारिकी की बहुत महीन रेखा को लांघकर अराजकता को स्पर्श कर रहा है, तो वे अपनी सम्पूर्ण वैचारिक विभूति के साथ आन्दोलन में दाखिल हुए और उसे दिशा दी. यह उस सन्दर्भ में दिए गये गाँधी जी के भाषणों और लिखे गये लेखों के टुकड़ों से बना एक कोलाज़ है. इस कोलाज से गुजरते हुए पाठक, गांधी तत्व के पराक्रम से अभिभूत हुए बिना नहीं रह पाता.

घटना 1921 से 1931 के बीच लाहौर की है, लेकिन कथा शुरू होती है ब्रिटिश हुकूमत द्वारा 1857 में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को कुचल दिए जाने के बाद। यह गुलाम भारत के उन लोगों की सच्ची कहानी है, जो आजादी की तलाश में चले तो थे साथ, लेकिन एक मोड़ पर पहुंचकर रास्ते अलग हो गये! लाहौर में एक सर्पीली सड़क थी, आज भी है- माल रोड। 1880 के आसपास माल रोड पर एक अंग्रेज, सर जॉन लारेंस की एक आदमकद मूर्ति स्थापित की गयी थी। जॉन लारेंस पंजाब का पहला गवर्नर था और 1864 से 69 तक ब्रिटिश इंडिया का गवर्नर जनरल रहा। उसकी यह मूर्ति लाहौर हाईकोर्ट के बाहर खड़ी की गयी थी।

मूर्ति का चेहरा भड़कीला था। उसके दायें हाथ में कलम और बायें में तलवार थी। उसके नीचे लिखा हुआ था, ‘तुम कलम की हुकूमत चाहते हो या तलवार की?’ वह कला की दृष्टि से एक अच्छी चीज बताई जाती थी। वह नगरपालिका की सम्पत्ति घोषित की गयी थी. उसे देखकर शहर के लोग बहुत चिढ़ते थे, क्योंकि उन्हें जबरदस्ती वाली न कलम की हुकूमत दरकार थी और न तलवार की, लेकिन उस समय लोगों में स्वाभिमान का भाव उतना जाग्रत नहीं था। हालांकि लाहौर के सामान्य बाशिंदे– अनपढ़ और गरीब-गुरबे भी इस अपमान को बहुत तीव्रता से अनुभव करते थे। मूर्ति स्थापना के कोई 25 बरस बाद एक रात किसी आदमी ने प्रतिमा को जूतों की माला पहना दी थी।

लाहौर हाईकोर्ट के सामने जॉनलॉरेन्स की प्रतिमा

बहरहाल, 1921-22 में जब गांधी के नेतृत्व में देश में आजादी की लड़ाई का पहला चरण शुरू हुआ, पूरे देश में असहयोग आंदोलन की आंधी उठी, तब लाहौर में इस मूर्ति को हटाने के लिए अनोखा आंदोलन प्रकट हुआ। गांधी ने असहयोग आंदोलन की घोषणा करते हुए देश से कहा कि मुझे सरकार के क्रोध का डर नहीं है। डर है जन-गण के क्रोध का। क्रोध से अव्यवस्था उत्पन्न होती है। हमें हिंसा को एकदम छोड़ना होगा, हिंसा का आश्रय लेना अपने उद्देश्य से पीछे हटना होगा, उससे व्यर्थ ही बहुत से निर्दोंष लोगों की प्राण-हानि होगी। सबसे बड़ी बात व्यवस्था बनाए रखने की होगी।

उन्होंने देश भर में घूम-घूम कर संदेश दिया कि असहयोग आंदोलन कानून भंग का ऐसा आंदोलन नहीं, जिसमें सिर्फ कानून को नहीं मानना है, बल्कि उसमें कानून का उल्लंघन करना है। उल्लंघन की शक्ति प्रखर बुद्धि वाले लोगों के लिए ही संभव है, लेकिन असहयोग सारी जनता कर सकती है। असहयोग करके हिंसा का अवलंबन किए बिना सरकार से खुद को स्वतंत्र किया जा सकता है। गांधी तभी से लाखों-लाख लोगों के नेता के रूप में प्रकट हुए। वे जनता की प्रबल बाढ़ को नियंत्रित करने लगे। पूरे देश में गिरफ्तारियों की धूम मच गयी। भाषण देने के लिए गिरफ्तारी, गीत गाने के लिए गिरफ्तारी, नाटक खेलने के लिए गिरफ्तारी, पिकेटिंग के लिए गिरफ्तारी, वकील-बैरिस्टरों की गिरफ्तारी, रईस-जमींदारों की गिरफ्तारी, शिक्षक-विद्यार्थियों की गिरफ्तारी, दुकानदारों-फेरीवालों की गिरफ्तारी! असहयोग के लिए बढ़े कदम मानो खुद ब खुद अपनी मंजिल के लिए नये-नये रास्ते गढ़ने लगे।

एक दिन लाहौर की नगरपालिका ने बहुमत से प्रस्ताव पास किया कि जॉन लारेंस की मूर्ति को हटा दिया जाए; अंतिम फैसला होने तक वह मूर्ति टाउनहाल की इमारत में रखवा दी जाए। अन्य प्रस्तावों की तरह यह प्रस्ताव भी नियम के अनुसार सरकार के पास भेजा गया। तीन-चार दिन बाद नगरपालिका की ओर से एक इंजीनियर यह देखने के लिए भेजा गया कि मूर्ति वहां से किस तरह हटाई जा सकती है। इस बात की जानकारी मिलने पर वहां के डिप्टी कमिश्नर ने नगरपालिका को कोई सूचना दिये बिना पुलिस का एक दल भेजा कि वह उस इंजीनियर को और उसके आदमियों को वहां से हटा दे। जब नगरपालिका ने पूछा कि यह अनुचित हस्तक्षेप क्यों और कैसे किया गया, तब कमिश्नर ने हुक्म जारी कर दिया कि नगरपालिका के प्रस्ताव को कार्यान्वित न किया जाए।
इंजीनियर वहां बाकायदा अपना कर्तव्य पालन करने के लिए गया था। उसको हटाने के लिए पुलिस भेजकर डिप्टी कमिश्नर ने साफ तौर पर जुर्म किया, यानी उसका हुक्म तलवार के मायने का नमूना था! उसके ऊपर कमिश्नर का हुक्म, जो कलम के मायने का नमूना बनकर सामने आ गया। शहर के आम लोगों को भी समझ में आ गया कि कमिश्नर की कलम में उतना ही अत्याचार भरा है, जितना डिप्टी कमिश्नर की तलवार में। कमिश्नर को अदालती अधिकार नहीं था, परंतु उसके पास कलम थी। इसलिए उसने उसका प्रयोग किया।

नगरपालिका को खुद अपनी चीजें को हटाने का अधिकार था या नहीं, इसका फैसला करना अदालत का काम था। परंतु कमिश्नर ने नगरपालिका पर दुर्भाव की तोहमत लगा दी। वह इस बात को गंवारा नहीं कर सकता था कि उस मूर्ति से जो भावना प्रदर्शित होती है, वह शहर के उस बढ़िया इलाके से लुप्त हो जाये, इसलिए उसने नगरपालिका को कानून सिखाने में आगा-पीछा नहीं सोचा।

इस तरह नगरपालिका के स्तर की एक मामूली-सी घटना, देखते-देखते बड़े सार्वजनिक महत्व की बात हो गई।

क्या आप जानते हैं, 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटेन की सरकार ने ईस्ट इंडिया कंपनी के भारतीय क्षेत्रों का प्रशासन अपने हाथ में कैसे लिया था? उसने परिषदें, अदालतें और कॉलेज कायम किये और भारत पर थ्री सी यानी कौंसिल्स, कोर्ट्स और कॉलेजेज़ की कीलें ठोंक दी थीं। इनमें से प्रत्येक कील अंग्रेजों के आधिपत्य को मजबूत बनाने का कारगर साधन थी। असहयोग आन्दोलन में गांधी ने इन्हीं तीनों के बहिष्कार का आह्वान किया।

इसी आह्वान के मद्देनजर लाहौर शहर के आंदोलनकारियों ने आमसभाएं करके नगरपालिका के उन सदस्यों की तरफदारी की, जिन्होंने जॉन लारेंस की मूर्ति को हटाने का प्रस्ताव पास किया था। तब नगरपालिका के सदस्यों ने भी मामले में तुरंत कदम बढ़ाते हुए सरकार को नोटिस दिया कि अगर सरकार अपने पक्ष के समर्थन में कोई उचित कारण न देगी, तो नगरपालिका को अपना फर्ज अदा करना होगा और उस मूर्ति को वहां से हटाना होगा। इस तरह कमिश्नर ने अनजाने में लाहौर के सत्याग्रहियों को एक बड़ा अवसर दे दिया। वे इस अवसर पर सविनय अवज्ञा की आजमाइश करने लगे। सरकार ने नगरपालिका को ललकारा और पशुबल का उपयोग कर मूर्ति को नहीं हटाने दिया, तब सत्याग्रहियों ने सरकार को नोटिस देकर, उस मूर्ति को हटाने के इरादे से उस मुकाम पर जाने का निर्णय किया, ताकि वे गिरफ्तार हों अथवा वीर-गति को प्राप्त हों।

तभी देश भर के दौरे पर निकले गांधी लाहौर पहुंचे। उन्होंने प्रस्ताव का समर्थन करते हुए सार्वजनिक सभा में कहा कि नगरपालिका को मैं उसके निर्णय के लिए बधाई देता हूं। लॉरेंस की प्रतिमा पर ये शब्द खुदे हुए हैं कि तुम कलम के हुक्म पर चलना चाहते हो या तलवार के हुक्म पर? भारतीय न तो किसी की तलवार से डरना चाहते हैं और न कलम के हुक्म से प्रभावित होना चाहते हैं। मैं नगरपालिका को बधाई देते हुए कहना चाहता हूं कि जब नगरपालिका ने एक काम करना तय कर लिया है, तो आप सभी स्त्री-पुरुषों को एकमत होकर वैसा ही करना चाहिए। हम लॉर्ड लॉरेंस के दुश्मन नहीं हैं, लेकिन हम नहीं चाहते कि प्रतिमा पर वे शब्द खुदे रहें। भारत में अब बातें बदल गई हैं। वह दिन आ गया है, जब कोई भी भारत को भयभीत नहीं कर सकता। भारतीय लोग ईश्वर के अलावा और किसी से नहीं डरते। वे नहीं चाहते कि वह प्रतिमा वहां बनी रहे। तो आप सबको सभा करके सरकार से स्पष्ट कहना चाहिए कि तुम्हें यह प्रतिमा हटानी होगी। अगर सरकार अपने अंग्रेज, सिख, गोरखा या पठान सिपाहियों के बल पर प्रतिमा की रक्षा करना चाहे, तो जनता को कहना चाहिए कि हम मरकर भी इस प्रतिमा को हटवायेंगे।

लेकिन इसके साथ ही गांधीजी ने चेतावनी दी कि इस आखिरी काम के लिए सिर्फ वे लोग ही आगे बढ़ें, जिन्होंने इसकी अच्छी तैयारी कर ली हो। यह काम उसी वक्त किया जा सकता है, जब लाहौर के लोग एक होकर, एक आदमी की तरह काम करने को तैयार हों। वहां लोगों को भीड़ नहीं लगानी चाहिए। एक बार में पांच ही लोग जायें, उनमें से एक आदमी उनका प्रवक्ता होना चाहिए। वे न तो कोई गुल-गपाड़ा करें, न कोई दलील करें, सिर्फ वहां जाकर गिरफ्तार हो जायें, क्योंकि इस समय उनका उद्देश्य मूर्ति को हटाना नहीं, बल्कि गिरफ्तार होना है। हां, अगर काफी स्त्रियां और पुरुष वहां अपनी बलि चढ़ाने के लिए मुस्तैद हों, तो अवश्य ही यह मूर्ति वहां से हटा दी जायेगी। ऐसे कानून-भंग में सफलता तभी मिल सकती है, जब लोगों में शान्ति और अहिंसा की भावना सोलहों आना आ जाये।

गांधी ने लाहौर में एक अन्य सार्वजानिक भाषण में कहा कि यह सविनय कानून-भंग की उग्र दवा है, परंतु लाहौर के नागरिकों को यह चेताये देता हूं कि वे अच्छी तरह सोचे-समझे बिना इस दवा का इस्तेमाल हरगिज न करें। मुझे तो लाहौर के जनसमूह का यही तजुर्बा हुआ है कि वह सोचता-विचारता नहीं। वह नियम-पालन तो जानता ही नहीं। स्वयंसेवकों को लोगों के बीच एक कायदे से काम करना चाहिए, जिससे उनमें शांति और नियम पालन का वातावरण तैयार हो सके। पिछले दिनों राष्ट्रीय-शिक्षा-मंडल की ओर से जो दीक्षांत समारोह किया गया था, उसमें कितने ही लोग बिना टिकट और बिना इजाजत ही ब्रेडला हॉल में घुस आये थे। मुझे यह देखकर बड़ा दुख हुआ। यह केवल असभ्यता नहीं, बल्कि ऐसी अवस्था भी है जिसे जुर्म कहना चाहिए, क्योंकि वे ऐसी जगह घुस आये थे, जहां वे जानते थे कि उनकी इस जबर्दस्ती का विरोध कोई बल-पूर्वक नहीं करेगा। ऐसे लोग सविनय कानून भंग के लायक नहीं है। सविनय कानून-भंग में तो यह पहले से मान लिया जाता है कि लोग उन तमाम कानून-कायदों को, जो नीति के विरुद्ध नहीं हैं, स्वेच्छापूर्वक ठीक तरह से मानेंगे। उस दीक्षांत समारोह के व्यवस्थापकों के बनाये नियम की तरह के सार्वजनिक संस्थाओं के कानून-कायदों को मानना, राज्य के कानूनों को स्वेच्छापूर्वक बिना डरे मानने की पहली सीढ़ी के सिवा और कुछ नहीं है।
अविचारपूर्वक अवज्ञा करने का अर्थ है, समाज को छिन्न-भिन्न कर देना। अत: जो लोग सविनय कानून-भंग की आकांक्षा रखते हों, उनका पहला काम यह है कि वे सार्वजनिक संस्थाओं के, सम्मेलनों तथा दूसरी सभा-समितियों के, कानून-कायदों को बखुशी मानने की कला सीखें। इसी प्रकार वे राज्य के कानूनों को भी मानना सीखें, फिर चाहे वे उन्हें पसंद करते हों चाहे न करते हों। सविनय कानून-भंग की अवस्था अराजकता और मनमानी की अवस्था नहीं है, बल्कि उसमें कानून को मानने की प्रवृत्ति और आत्मसंयम का अंतर्भाव पहले ही से गृहीत माना जाता है।

सिद्धांत और स्ट्रैटजी
1921 में गांधीजी ने मूर्ति हटाने के कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए पूरे देश को असहयोग आन्दोलन का सिद्धांत और स्ट्रैटजी समझाने का प्रयास किया। नतीजतन मूर्ति हटाने के लिए सत्याग्रह सिर्फ लाहौर नहीं, बल्कि पूरे देश में असहयोग आन्दोलन को नया विस्तार और नयी ऊंचाई दे गया।

गांधीजी ने निर्देश दिया कि नगरपालिका जिस किसी को आदेश दे, उसे प्रतिमा हटाने के लिए जाने को तैयार रहना चाहिए। अगर कुछ औरतें वहां जाकर संगीनों के सामने डट जायें और अपनी जेल जाने की तत्परता दिखायें तो और भी अच्छा हो। मैं नहीं मानता कि वर्तमान सरकार इतनी बर्बर है। वह झुक जायेगी। लेकिन अगर सरकार पागलपन से काम ले, तो आपको अपनी आन की रक्षा करने और उसके लिए कष्ट उठाने को तैयार रहना चाहिए। अगर वैसा समय आ जाये, तो आपको दिखा देना चाहिए कि आप सिपाहियों की परवाह नहीं करते। आपको जरूरत सिर्फ पक्के साहस की है। लेकिन, किसी को रात में वह प्रतिमा हटाने के लिए नहीं जाना चाहिए। आपको सब कुछ खुलेआम करना चाहिए। बल्कि आपको सरकार को पहले ही इस बात की सूचना दे देनी चाहिए। कोई बारह वर्ष पहले रात में किसी आदमी ने वहां जाकर प्रतिमा को जूतों की माला पहना दी थी। किसी को ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए।

अगर कोई हिंदू, मुसलमान या सिख मुंह से अपशब्द भी निकाले तो उसे राष्ट्र का शत्रु मानना चाहिए। आपको अहिंसा पर डटे रहना है। आपको अपने भीतर लछमनसिंह और दलीपसिंह का साहस संजोना चाहिए, जो ननकाना साहब में शहीद हुए। आप को मरना सीखना चाहिए।

उसी दौरान पंजाब में लाला लाजपतराय, मलिक लाल खान, संतानम और गोपीनाथ, असम में फूकन और बारदोलोई, बंगाल में बाबू जितेंद्रलाल बनर्जी, अजमेर में मौलाना मोहिउद्दीन तथा अन्य, लखनऊ में पंडित द्वारकरानाथ मिश्र तथा अन्य कई नेता गिरफ्तार कर लिये गए। इससे पता चल गया कि सरकार अब कुछ करने पर आमादा है। इस पकड़-धकड़ से यह स्पष्ट हो गया कि सरकार अब कृतसंकल्प है कि वह असहयोग आंदोलन को सहन नहीं करेगी। उसके लिए अब सवाल केवल हिंसा को दबाने का नहीं रह गया था, बल्कि लोगों को सहयोग करने के लिए विवश करने का हो गया था। गांधीजी मानते ही थे कि किसी-न-किसी दिन सरकार को अपना असली रूप प्रकट करना ही है।

लाहौर से गांधी का यह संदेश पूरे देश में फैला कि भारत सरकार को अपने वर्तमान गठन के अनुरूप, यह सब कुछ करने का अधिकार है। वह इस अधिकार का दावा भी करती है और उपयुक्त समय पर अपने अधिकारों का प्रयोग भी करती है, इसीलिए हम उसके साथ असहयोग कर रहे हैं।

भारत सरकार को यह हक है क्या कि वह जनता पर अपनी इच्छा थोपे, प्रजा का उसकी इच्छा के अनुसार चलने का अधिकार न स्वीकार करे और इसके लिए जेल का भय दिखलाये? मसला साफ है, और लॉरेंस साहब की मूर्ति के मामले ने उसे बिल्कुल साफ तौर पर प्रकट कर दिया है। कानूनन उस मूर्ति पर लोगों का स्वामित्व है, तो भी सरकार उसे वहां से हटाने नहीं देती। वह या तो हुक्मनामे निकालकर कलम के बल पर शासन करना चाहती है या तलवार के बल पर। एक बार फिर लोगों को कलम या तलवार, दोनों में से कोई एक चुनने के लिए कहा गया है। क्या जनता तलवार से शासित होने का अधिक सम्मानप्रद विकल्प चुनकर, कलम के अपमानजनक हुक्म का विकल्प अस्वीकार करेगी? सरकार ने लाला लाजपत राय को गिरफ्तार कर लिया। लाला लाजपत राय का नाम भारत के बच्चे-बच्चे की जबान पर है। अपने आत्मत्याग के बल पर वे अपने देशभाइयों के हृदय में उच्च स्थान प्राप्त कर चुके हैं। अहिंसा का प्रचार करने, लोकमत को संगठित करने और उसकी निर्बाध अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने जितना परिश्रम किया है, उतना बहुत थोड़े लोगों ने ही किया है…।

लेकिन पंजाब ने तुरंत ही उनकी जगह लेने के लिए अपना दूसरा नेता चुन लिया। आगा सफदर को अपना अगुवा बनाया। गांधीजी ने तत्काल अपनी कलम के दायित्व का निर्वाह करते हुए देश की जनता को संदेश दिया कि पंजाबी भाइयों को उनसे अच्छा नेता नहीं मिल सकता। वे एक वीर हिन्दुस्तानी और एक सच्चे मुसलमान हैं। उन्होंने जितनी सेवाएं की हैं, वे सब बिना दिखावे की हैं। मुझे इस बात में जरा भी संदेह नहीं है कि लोग लालाजी की तरह ही सच्चे हृदय से उनका साथ देंगे। पंजाबी भाई लालाजी का बड़े-से-बड़ा सम्मान जो कर सकते हैं, वह यही है कि वे यही समझ कर उनका काम बराबर आगे बढ़ाते रहें कि लालाजी हमारे साथ ही हैं। वह प्रेम, जो अविनाशी आत्मा को धारण करने वाले इस कलेवर के, कुछ दिनों के लिए अथवा हमेशा के लिए जुदा हो जाने के बाद खतम हो जाता है, मूढ़ और स्वार्थी प्रेम है। सम्भव है, पंजाबी भाई हमेशा ही लालाजी की जगह पर किसी आगा सफदर को अपनी रहनुमाई के लिए न पायें। मुमकिन है कि हमारे अनुमान से पहले ही वे हम लोगों से जुदा कर दिये जायें। जिन संस्थाओं का संगठन अच्छा होता है, वहां नेताओं का चुनाव केवल कार्य की सुविधा के लिए किया जाता है, किसी असाधारण गुण के कारण नहीं। नेता क्या है? अपने बराबरी वालों में सबसे आगे का व्यक्ति। किसी-न-किसी को तो आगे रखना ही चाहिए। परंतु यह कोई जरूरी नहीं कि वह जंजीर की कमजोर-से-कमजोर कड़ी से अधिक मजबूत हो ही। लेकिन एक बार चुनाव कर लेने के बाद हमारे लिए उसका अनुसरण करना लाजिमी है, अन्यथा जंजीर टूट जायेगी और सब कुछ नष्ट हो जायेगा। हमारा रास्ता बिल्कुल साफ है। मेरा पहला और आखिरी निवेदन आपसे यही है कि आप लोग अहिंसात्मक असहयोग के आदर्श से कभी च्युत न हों। मैं जानता हूं कि इस धर्म का पालन करना कठिन है। मैं यह भी जानता हूं कि कभी-कभी उत्तेजना इतनी अधिक होती है कि विचार, वाणी और कर्म में अहिंसक बने रहना अत्यंत कठिन हो जाता है। तथापि इस आंदोलन की सफलता तो इसी सिद्धांत पर अवलम्बित है! इस महान सिद्धांत को अपने जीवन में उतारने की क्षमता अपने अंदर पैदा करने के लिए हमें उत्तेजना की सभी सम्भावनाओं से अपने को बचाना चाहिए। जिन लोगों में जागृति आ चुकी है, उनको ही इस ढंग से अनुशासित बना देना चाहिए कि वे उत्तेजना के समय भी स्थिरचित्त, शांत रह सकें। हिंदू-मुस्लिम एकता हमारा अटल सिद्धांत है। उसके स्थापित करने या प्रदर्शित करने का एक ही मार्ग है और वह है, राष्ट्रीय उत्थान के लिए सबलोग एक साथ मिलजुल कर काम करें अर्थात सभी लोग अपना सारा समय राष्ट्रीय रचनात्मक कार्यों के संगठन में लगायें, जिससे राष्ट्र के लाखों बेकार लोगों को रोजी मिले और देश के स्वल्प साधनों में वृद्धि हो।…गिरफ्तारियों और सजाओं की बदौलत यदि हमारा दिल बैठ गया या हम भटक गये, तो यह हमारी कमजोरी और स्वराज पाने की हमारी अयोग्यता का स्पष्ट चिन्ह होगा। जो सिपाही मरने से डरता है या पूरी कीमत चुकाने से जी चुराता है, वह सच्चा सिपाही नहीं। सच्चे सिपाही को तो जितना ही अधिक जूझने का अवसर मिलता है, उतनी ही अधिक खुशी से वह सबसे आगे बढ़ता है। सरकार अपनी जेलों में हमसे जो-जो काम कराये, वह सब हमें करना चाहिए। हमारे लिए इस बात को समझ लेना और इस पर कायम रहना आवश्यक है। मुझे इस पर पूर्ण विश्वास हो चला है कि दलीलों के द्वारा नहीं, बल्कि बेगुनाह लोगों के कष्टसहन के द्वारा ही सजा देने वाले और और सजा पाने वाले, दोनों के दिल पर गहरा असर होता है। ऐसे कष्टसहन को देखकर एक ओर देश अपने आलस्य और उदासीनता को त्यागकर उठ खड़ा होगा और दूसरी ओर सरकार को भी अपनी निर्दयता त्यागनी पड़ेगी। परंतु यह कष्टसहन उन लोगों द्वारा होना चाहिए, जो बहादुरी के साथ खुशी-खुशी उसे उठायें, उन अनिच्छुक लोगों द्वारा नहीं जो कमजोर और लाचार हों। जो जेल जा चुके हैं या जाने की तैयारी में हैं, वे कह सकते हैं कि बस, हमारा काम खतम हुआ। लेकिन हमलोगों को, जो अभी जेलों के बाहर हैं, उनके खतम किये हुए काम के लायक अपने आपको सिद्ध करना है। यह हम किस तरह सिद्ध करें? जब तक हम उन्हें आजाद न करा लें या उनके साथ जेलों में शामिल न हो जायें, तब तक बराबर उनका काम जारी रखकर हम वैसा करें। जो अधिक-से-अधिक कष्टसहन करता है, वही अधिक-से-अधिक सेवा करता है।

क्लाइमेक्स : किसकी दासता से मुक्ति चाहिए?
उपलब्ध दस्तावेजों में से जिन तक मेरी पहुंच बन सकी है, उनके मुताबिक़ असहयोग आंदोलन के सिद्धांत के अनुरूप स्ट्रैटजी बनाने के गांधी के निर्देश ने लाहौर में लारेंस की मूर्ति के प्रति आमजन में व्याप्त चिढ़न-कुढ़न को सामूहिक विरोध-प्रतिरोध की ऊर्जा में तब्दील होने में मदद की। दूसरी तरफ मूर्ति हटाने से संबंधित सामूहिक विरोध जब ‘जन-सत्याग्रह’ के रूप में प्रकट होने लगा, तो वह राष्ट्रव्यापी असहयोग आंदोलन का एक प्रतीक मात्र नहीं रहा, प्रतिमान बन गया! वह ‘जन-सत्याग्रह’ इस प्रतीकात्मकता के धुंधलके से मुक्त हो गया कि वह सिर्फ लाहौर उसके बाशिदों का मामला है और उस धूप में तपने लगा, जो किसी छोटी और क्षेत्र विशेष के लोगों के चिन्तन में बंधी घटना को राष्ट्रीय स्तर पर देश के लोकमानस की दृष्टि-दिशा को प्रकट करने वाला प्रतिमान बना देती है।

1921 के नवंबर में सर्दी के मौसम में भी पूरा देश ‘एक साल में स्वराज’ की घोषणा में तपने लगा। असहयोग आंदोलन के सत्याग्रहियों की लिस्ट में नाम लिखाने वालों की कतारें दिन दूनी रात चौगुनी रफ़्तार से लंबी होने लगीं। लाहौर में जॉन लारेंस की मूर्ति को हटाने के लिए आम लोगों में अपनी रणनीति बनाने की बहस तेज हुई। उधर लाहौर के आम जन की समझ को यह सवाल कुरेदने लगा कि मूर्ति को हटाने की किस तरह की लड़ाई, मूर्ति के नीचे दर्ज सवाल का सही समाधान बनेगी?

गांधीजी ने देश भर का दौरा करते हुए लाहौर में जॉन लारेंस की मूर्ति को हटाने के तरीके पर विमर्श के बहाने असहयोग आंदोलन में आमजन की साझेदारी और समझदारी के बीच कायम चुनौतियों को उजागर किया। उन्होंने अपने नेतृत्व में निहत्थे संघर्ष की रणनीति को अनिवार्य कर जनता को यह संदेश दिया कि तलवार से तलवार की हुकूमत खत्म की जा सकती है, लेकिन तलवार की दासता नहीं मिटाई जा सकती, वह ब्रिटेन के हाथ से निकल कर भारत के हाथ में आ जाएगी। स्वराज के संघर्ष में देश के आम और अंतिम जन के सहयोग व साझेदारी को मूल शक्ति के रूप में रेखांकित करने के लिए उन्होंने अपनी कलम का लगातार इस्तेमाल किया। उन्होंने असहयोग आंदोलन की रणनीति के अनुरूप देशव्यापी कार्यक्रमों के निर्धारण में आम जन को शामिल होने का आह्वान करते हुए कलम की या तलवार की हुकूमत संबंधी सवाल को सिर्फ अंग्रेज शासकों के लिए नहीं, बल्कि असहयोग आंदोलन की सफलता के बाद स्वराज की बागडोर संभालने वाले संभावित नेताओं के तईं भी विचारणीय बना दिया। उन्होंने पूरे देश के आम जन को इस सवाल के जरिये प्रेरित और जागरूक किया कि क्या हम अंग्रेज सरकार की दासता को हटाकर असहयोगियों की दासता स्वीकार करेंगे? जो लोग आज असहयोग आंदोलन में नेतृत्व की भूमिका में हैं, उनमें से कुछ लोग कल उस सत्ता को संभालेंगे, जो आज अंग्रेजों के हाथ में है। वे जनता की सेवा के लिए सत्ता हाथ में लेंगे, तब भी यह सवाल रहेगा कि हम सेवकों की कैसी सत्ता चाहेंगे? कलम की या तलवार की? कलम की हुकूमत हो या तलवार की, उससे भारतीयों की ‘सेवा की सत्ता’ की प्रभुता और अंग्रेजों की ‘सत्ता की सेवा’ की प्रभुता में क्या फर्क होगा?

आत्म-हत्या : आत्म-निरीक्षण
लाहौर में ब्रिटिश शासन के मूर्तिमान प्रतीक के रूप में स्थापित लार्ड जॉन लारेंस की मूर्ति को हटाने के लिए लामबंद बाशिंदों के समक्ष गांधीजी का संदेश यक्षप्रश्न बनकर टपका! असहयोग आंदोलन का नेतृत्व करते गांधीजी ने यह प्रश्नाकुल संदेश, राष्ट्रव्यापी लड़ाई में देश की पूरी जनता की बराबर की साझेदारी और सहयोग के लिए रखा। लेकिन लाहौर के बाशिंदों और उनके रहनुमाओं के लिए यह यक्ष-प्रश्न बन गया! सवाल बहुत सीधा और स्पष्ट था कि देश की जनता संगठित और संकल्पित हो, तो चुटकी बजाकर अंग्रेजी शासन को उखाड़ सकती है, ठीक उसी तरह जिस तरह लाहौर के बाशिंदे जॉन लारेंस की मूर्ति को हटा सकते हैं। लेकिन तब यह सवाल उपस्थित होगा ही होगा कि हमें किसकी और कैसी हुकूमत चाहिए? यदि हम खुद अपने देश के शासक बनेंगे, तो हमारी हुकूमत कैसी होगी? अगर एक वाक्य में कहें तो सीधा सवाल यह होगा कि हमें ‘अंग्रेज दबंगों की सेवकई’ के बदले ‘भारतीय सेवकों की दबंगई’ क़ुबूल होगी? अगर नहीं, तो हमें अपनी नीति-रणनीति और प्रक्रिया के जरिये अपने वर्तमान संघर्ष का मकसद सिद्ध करना होगा। मकसद का सिद्ध रूप ही इस अदृश्य सवाल का प्रकट जवाब होगा कि हमारी हुकूमत कैसी होगी? इस सिलसिले में गांधीजी ने लड़ाई के पहले कदम पर ही नवंबर, 1921 में खुद अपने नेतृत्व की कमियों और खामियों के प्रति अपनी और आम जन की समझ को रेखांकित करने वाला एक लेख लिखा-आत्मनिरीक्षण। उन्होंने लिखा कि अनेक लोगों ने बड़ी करुणा भाषा में पत्र लिखकर मुझसे यह कहा है कि यदि जनवरी तक स्वराज्य न मिले और यदि उस समय तक मैं जेल से बाहर ही रहूं, तो भी मैं आत्म-हत्या न करूं।

मैंने देखा है कि भाषा मनुष्य के विचारों को पर्याप्त रूप से व्यक्त करने में समर्थ नहीं हो पाती, विशेष रूप से तब, जब स्वयं के विचार ही अपने आप में उलझे हुए या अपूर्ण हों। मैंने जो कुछ लिखा, उसके बारे में मेरा तो यही खयाल था कि वह बिल्कुल स्पष्ट था। लेकिन मैं देखता हूं कि उसके अनुवाद को बहुत से लोगों ने गलत समझा है। जो हाल अनुवाद का हुआ है, वही हाल मूल लेख का भी हुआ है। मेरी बात को गलत समझने का एक बड़ा कारण तो यह है कि लोग मुझे लगभग पूर्ण-पुरुष मानते हैं। जिन मित्रों को भगवद्गीता के प्रति मेरी आस्था की जानकारी है, उन्होंने संबंधित श्लोकों के दृष्टांत दे-देकर यह दिखाने की कोशिश की है कि आम-हत्या करने की मेरी ‘धमकी’ किस प्रकार उन उपदेशों के प्रतिकूल है, जिनका पालन करने का मैं प्रयास कर रहा हूं। मुझे सदुपदेश देने वाले ये सभी लोग शायद भूल जाते हैं कि मैं तो केवल एक सत्यान्वेषी हूं। मेरा दावा है कि मैंने सत्य तक पहुंचने का एक रास्ता ढूंढ़ लिया है। मेरा यह दावा भी है कि मैं सत्य तक पहुंचने का अनवरत प्रयत्न कर रहा हूं। लेकिन साथ ही मैं स्वीकार करता हूं कि अब तक मुझे वह मिला नहीं है। पूर्ण सत्य को खोज निकालना तो स्वयं अपने आपको पहचान लेना, अपने भवितव्य को समझ लेना है अर्थात् सर्वथा त्रुटिरहित बन जाना है। मैं अपनी त्रुटियों को जानता हूं और इनका मुझे दुख भी है। अपनी कमियों की इस जानकारी में ही मेरी पूरी शक्ति निहित है, क्योंकि चंद मनुष्य ही ऐसे होते हैं, जो अपनी मर्यादाओं से परिचित हों।

यदि मैं पूर्णपुरुष होता, तो मुझे अपने पड़ोसियों के कष्ट देखकर पीड़ा का अनुभव नहीं होता। पूर्णपुरुष होने के नाते तो मेरा कर्तव्य यह होता कि मैं उनकी कठिनाइयां देखकर उनको दूर करने का उपाय बताता और अपने भीतर निहित अजेय सत्य की शक्ति से उस उपाय को अपनाने के लिए लोगों को विवश कर देता। लेकिन मुझे तो अब तक ऐसा लगता है कि मैं सत्य को धुंधले कांच के पीछे से ही देख पा रहा हूं और इसीलिए मुझे लोगों को किसी बात की प्रतीति कराने में बहुत धीमे और श्रमसाध्य तरीकों को काम में लाना पड़ता है, तब भी ऐसा नहीं कि मैं सदा सफल ही हो जाता हूं। ऐसी स्थिति में आज जबकि मैं देख रहा हूं कि सारा भारत कष्टों के भार से दबा हुआ है। जगन्नाथ स्वामी के चरणों के नीचे ही इंसान केवल हड्डियों का ढांचा-मात्र रह गया है। यदि मैं करोड़ों पीड़ित और मूक भारतीयों के कष्ट में कष्ट का अनुभव न करूं तो अपने आपको इंसान नहीं मानूंगा। एक यही आशा मुझे सम्बल देती है कि जनता का यह कष्ट निरंतर कम होता जाएगा। परंतु मान लीजिए कि कष्ट, सुख-दुख, सर्दी-गर्मी के प्रति अपनी इस समस्त संवेदनशीलता के बावजूद, चरखे का शांतिप्रदायक संदेश लोगों के हृदय तक पहुंचाने की अपनी सारी कोशिशों के बावजूद, मैं लोगों को केवल अपनी बात सुना ही सकूं, उनके हृदय तक न पहुंचा सकूं और यह भी मान लीजिए कि साल के अंत में मैं यह देखूं कि लोग चरखे की शांतिपूर्ण क्रांति द्वारा स्वराज प्राप्ति की वर्तमान सम्भावना के संबंध में उतने ही संदेहशील बने हुए हैं जितने आज हैं; मान लीजिए मैं देखूं कि पिछले बारह महीने, बल्कि इससे भी अधिक अवधि तक लोगों में जो उत्साह दिखाई देता रहा है, वह महज ऊपरी हलचल और अस्थायी आवेश-मात्र था, हमारे कार्यक्रम के प्रति सुदृढ़ आस्था का प्रतीक नहीं और अंत में मान लीजिए कि मैं देखूं कि शांति का संदेश अंग्रेजों के हृदय में घर नहीं कर पाया है, तो उस हालत में क्या मुझे अपनी समस्या पर संदेह नहीं करना चाहिए और मुझे यह महसूस नहीं करना चाहिए कि मैं इस संघर्ष का नेतृत्व करने योग्य नहीं हूं? एक सच्चे इंसान के रूप में मुझे क्या करना चाहिए? क्या मुझे पूर्ण विनय के साथ अपने सिरजनहार के सामने घुटने टेककर उससे यह प्रार्थना नहीं करनी चाहिए कि वह इस व्यर्थ शरीर को उठा ले और मुझे सेवा का कोई अधिक उपर्युक्त साधन बना दे?

स्वराज्य का मतलब सरकार को बदलना और उस पर जनता के वास्तविक नियंत्रण की स्थापना है। परंतु वह तो केवल उसके स्वरूप की बात हुई। मैं जिस असली चीज के लिए लालायित हूं, वह तो यह है कि सरकार को बदलने के साधन को निश्चित रूप से स्वीकार किया जाये अर्थात वास्तव में जनता का हृदय-परिवर्तन हो। मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि छुआछूत की गलत प्रथा को त्यागने के लिए हिंदुओं को, और वैर-भाव छोड़कर हार्दिक मैत्रीभाव को राष्ट्रीय-जीवन का चिरस्थायी अंग मानने के लिए हिंदुओं व मुसलमानों को तथा हिंदुस्तान को आर्थिक दासता से मुक्ति दिलाने वाले एकमात्र साधन के रूप में चरखे को अपनाने के लिए समस्त जनता को युगों का समय नहीं चाहिए। अंत में सभी के हृदय में यह विश्वास उत्पन्न होने में भी बहुत लम्बी अवधि नहीं लगनी चाहिए कि हिंदुस्तान को अहिंसा के रास्ते से ही स्वराज मिलेगा, अन्य किसी साधन से नहीं। मेरा विश्वास है कि जनता द्वारा स्वेच्छा से समझ-बूझकर, निश्चित तौर पर इस कार्यक्रम को स्वीकार करना ही उस वास्तविक स्वराज को प्राप्त करना है। इसके बाद, स्वराज्य का प्रतीक अर्थात सत्ता-हस्तांतरण उसी प्रकार अवश्यम्भावी है, जिस प्रकार सही ढंग से बोया गया बीज बढ़कर वृक्ष का रूप धारण कर लेता है।

मुझे पहले कभी भी इस बात की इतनी अधिक आशा नहीं थी, जितनी यह लिखते समय है कि हम इस वर्ष के भीतर स्वराज का सार प्राप्त कर लेंगे। साथ ही एक व्यावहारिक आदर्शवादी के रूप में मैंने यह भी कहा है कि मुझे अपने आपको ऐसे महान कार्य का नेतृत्व करने योग्य नहीं समझना चाहिए, जिसे संभाल सकने का भरोसा स्वयं मुझे ही न हो। निष्काम कर्म का अर्थ जितना यह है कि अडिग भाव से सत्य की खोज में लगे रहो, उतना ही यह भी है कि अपनी गलती मालूम होने पर गलत रास्ते से पीछे हट जाओ और जब अपने को नेतृत्व के अयोग्य समझने लगो, उस समय नेतृत्व का मोह त्यागने में कष्ट का अनुभव भी न करो। मैंने तो केवल अपनी इसी हार्दिक कामना को अभिव्यक्ति दी है कि मैं अनंत में विलीन होकर सिरजनहार के हाथों में गीली मिट्टी का लोंदा बन जाऊं, ताकि मेरी सेवा अधिक प्रभावकारी हो, क्योंकि तब उसमें मेरे व्यक्तित्व का निकृष्ट अंश बाधक नहीं बनेगा।

जॉन लारेंस की मूर्ति कब हटी? आज कहां है?
पाकिस्तान के लेखक और पत्रकार माजिद शेख के अनुसार सर जॉन लॉरेंस की मूर्ति, जो लाहौर उच्च न्यायालय की इमारत के बाहर खड़ी थी, भगत सिंह की फांसी के बाद आने वाली परेशानियों के दौरान उसे हटा दिया गया और लाहौर संग्रहालय में रख दिया गया। माजिद शेख लिखते हैं कि बाद में मूर्ति को शिमला स्थानांतरित कर दिया गया। फिर 1946 में ब्रिटेन ले जाया गया और एल्डरशॉट में एक सैन्य स्कूल के बाहर रख दिया गया। इसका अंतिम और वर्तमान विश्राम स्थल आयरिश शहर डेरी में है, जहां से जॉन लॉरेंस आये थे।

-हेमंत

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