नेहरू निन्दकों के लिए सबसे रस-भरे विषय हैं—चीन और कश्मीर। तरह-तरह के आरोप नेहरू पर लगाये गये हैं, अनर्गल प्रचार किये गये हैं। ऐसा जताने की कोशिश की गयी है कि जैसे नेहरू जो चाहते थे, कर लेते थे, उनकी कैबिनेट में किसी की मजाल नहीं थी कि उनका विरोध कर सके। ऐसा मानने और मनवाने वाले लोग समझते हैं कि नेहरू के मंत्रियों की भी उनके सामने वही हैसियत थी, जैसी आज के मंत्रियों की प्रधानमंत्री के सामने है। मजे की बात यह है कि ऐसा प्रचार करने वाले अपने अज्ञानजनित अदम्य आत्मविश्वास में उन्हीं का अपमान कर रहे होते हैं, जिनकी पूजा का दिखावा करते हैं।
यदि नेहरू की कश्मीर-नीति ऐसी ही देश-विरोधी थी, यदि नेहरू ने प्लेबिसाइट की बात कैबिनेट को विश्वास में लिए बिना ही कर दी थी, तो उनकी कैबिनेट के किसी भी सदस्य ने विरोधस्वरूप इस्तीफा क्यों नहीं दिया? यह तो संसदीय लोकतंत्र की स्थापित परंपरा है कि प्रधानमंत्री से गहरा मतभेद होने पर या स्वयं को उपेक्षित महसूस करने पर मंत्री इस्तीफा दे देते हैं। मोरारजी देसाई ने 1969 में इंदिरा गांधी की सरकार से इस्तीफा दिया था। रामविलास पासवान ने 2022 में वाजपेयी सरकार से इस्तीफा दे दिया था, क्योंकि उनके अनुसार वाजपेयी गुजरात में भयानक सांप्रदायिक हिंसा के संदर्भ में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध कोई कार्रवाई करने में विफल रहे थे।
कश्मीर पर नेहरू द्वारा ‘देश-विरोधी’ काम करने के विरोध में किस मंत्री ने इस्तीफा दिया? पटेल उप-प्रधानमंत्री और गृहमंत्री थे, आंबेडकर कानून मंत्री। क्या इन दोनों के बारे में माना जा सकता है कि ये प्रधानमंत्री की मनमानी के आगे चुप रहते? आंबेडकर ने आगे चलकर हिन्दू कोड बिल के सवाल पर नेहरू सरकार से इस्तीफा दे भी दिया था, लेकिन कश्मीर के सवाल पर नहीं। और तो और, हिन्दू सभा के नेता और आगे चलकर भारतीय जनसंघ (जो बाद में चलकर भारतीय जनता पार्टी के रूप में विकसित हुई) के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने भी कश्मीर के सवाल पर, प्लेबिसाइट के सवाल पर, मामले के संयुक्त राष्ट्र संघ में पहुंचने के सवाल पर नेहरू सरकार से इस्तीफा नहीं दिया था।
जिस फैसले में आपकी भी हिस्सेदारी हो, जिसे आप इतना आपत्तिजनक न मानते हों कि उसे लेने वाली सरकार से अलग हो जायें, उसी फैसले को लेकर बाद में ऐसा जताने लगना कि वह तो देश-विरोधी फैसला है और आप उसके घोर विरोध में हैं, राजनीतिक नैतिकता का प्रमाण नहीं देता।
डॉ. मुखर्जी ने नेहरू कैबिनेट से इस्तीफा दिया जरूर, लेकिन 1950 में नेहरू-लियाकत पैक्ट के विरोध में। उस पैक्ट के विरोध में जिस पर नेहरू ने पाकिस्तान को अप्रत्यक्ष रूप से सैनिक कार्रवाई की धमकी देकर मजबूर किया था। तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर हो रहे हमलों के संदर्भ में नेहरू ने दो टूक शब्दों में कहा था – ‘‘पाकिस्तान सरकार को गंभीरता से विचार कर लेना चाहिए कि यदि वह अपने ही नागरिकों को सुरक्षा देने में असमर्थ रहती है तो नतीजे क्या हो सकते हैं। इस असुरक्षा के नतीजे भारत पर भी पड़ने लगे हैं। हम उदासीन नहीं रह सकते। हमारे सुझाए उपायों पर पाकिस्तान सहमत नहीं हुआ तो हम दूसरी तरह के कदम भी उठा सकते हैं।’’
इन शब्दों का आशय समझने में पाकिस्तान को देर नहीं लगी। पाक प्रधानमंत्री लियाकत अली 8 अप्रैल, 1950 को नई दिल्ली पहुंचे और दोनों देशों में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की गारंटी देने के लिए सरकार को प्रतिबद्ध करने वाला यह समझौता हुआ। इसी के विरोध में डॉ. मुखर्जी ने नेहरू सरकार से इस्तीफा दिया था, वे ट्रांसफर ऑफ पॉपुलेशन पर अड़े हुए थे, यानी सारे मुसलमान पाकिस्तान जायें और सारे हिन्दू भारत आयें। जाहिर है कि यह घोर सांप्रदायिक मांग भारतीय राष्ट्र की मूल धारणा के ही विपरीत थी, इसे माने जाने का कोई सवाल ही नहीं उठता था।
वास्तविकता यह है कि पटेल को कश्मीर के पाकिस्तान में जाने से कोई एतराज नहीं था, यदि बदले में पाकिस्तान हैदराबाद के निजाम को उकसाना बंद कर दे। पटेल की चिन्ता निराधार नहीं थी। पूर्व और पश्चिम में पाकिस्तान के साथ ही, दक्षिण में एक और सिरदर्द मोल लेना भारत कैसे बर्दाश्त कर सकता था? उनसे सहमति लेकर ही माउंटबेटन ने कश्मीर के राजा से कहा था कि यदि कश्मीर पाकिस्तान में शामिल हो जाये तो भारत इसे शत्रुतापूर्ण कार्रवाई नहीं मानेगा।
नेहरू कश्मीर के सवाल को केवल स्वयं कश्मीरी होने की भावुकता से नहीं देख रहे थे। इतिहास, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और भू-राजनीति की गहरी पकड़ के नाते वे कश्मीर के सामरिक महत्त्व की उपेक्षा करने को घातक मानते थे। कश्मीर राज्य की सीमाएं भारत, पाकिस्तान और चीन के अलावा सोवियत संघ और अफगानिस्तान से भी मिलती थीं। इसके अलावा कश्मीर में चल रहे राजशाही विरोधी जन-आंदोलन से नेहरू की सहानुभूति थी। नेहरू कश्मीर का सामरिक महत्त्व पटेल को समझाने में अंतत: कामयाब हुए। पटेल के रुख में बदलाव लाने में गांधी जी की कश्मीर यात्रा की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।
नेहरू और पटेल के मतभेद कोई रहस्य की बात नहीं थी। कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में शुरू से ही दोनों अलग-अलग थे। लेकिन ये मतभेद सरकार के संचालन में बाधक न हों, इसका ध्यान दोनों ने ही रखा था, खासकर गांधी जी की हत्या के बाद। कश्मीर मामले की विशिष्ट जटिलता को देखते हुए अनुच्छेद 370 संविधान में जोड़ा गया, इसमें पटेल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सारे मतभेदों के बावजूद, वे नेहरू को नि:संकोच ‘लीडर ऑफ अवर लीजियंस’ मानते थे। ‘लीजियन’ प्राचीन रोमन सेना के सर्वश्रेष्ठ योद्धाओं की टुकड़ियों को कहते थे।
दूसरी ओर, प्रधानमंत्री नेहरू जरूरत पड़ने पर उप-प्रधानमंत्री पटेल को बुलाने के बजाय स्वयं उनके घर या दफ्तर जाया करते थे। उन्होंने पटेल के जीवन-काल में ही, गोधरा में पटेल की प्रतिमा का अनावरण किया था। दोनों नेता, यदा-कदा होने वाले परस्पर मतभेद के बावजूद, पटेल के ही शब्दों में, एक-दूसरे की सोच और राय को समायोजित करना जानते थे।
कश्मीर के बारे में अशोक पांडेय ने ‘कश्मीरनामा’ (राजपाल, दिल्ली, 2018) में कश्मीरी के इतिहास के व्यापक संदर्भ में और पीयूष बबेले ने ‘नेहरू : मिथक और यथार्थ’ (संवाद प्रकाशन, मुम्बई, 2019) ने नेहरू की नीतियों के संदर्भ में वे तथ्य दिये हैं, जो इस सिलसिले में फैलाई गयी अफवाहों और भ्रांतियों का निराकरण करने के लिए पर्याप्त हैं। इच्छुक पाठक ये पुस्तकें देख सकते हैं। मैं यहां बस एक महत्त्वपूर्ण और रोचक बात की ओर संकेत करना चाहता हूं।
उस वक्त शेष भारत के साथ कश्मीर के जो भी सड़क या रेल संपर्क थे, वे उन्हीं इलाकों के जरिये थे, जो विभाजन की स्थिति में पाकिस्तान को मिलने वाले थे। सारा व्यापार और आवागमन इन्हीं से होता था। सड़क के जरिये कश्मीर पहुंचने का रास्ता वाया रावलपिंडी था और रेल के जरिये वाया स्यालकोट। जो हिस्से भारत को मिलने की संभावना थी, उनके साथ कश्मीर का संपर्क केवल गुरदासपुर होकर जाने वाली कच्ची सड़क से था। यदि सारा गुरदासपुर जिला पाकिस्तान को चला जाता तो शेष भारत से कश्मीर का संपर्क केवल हवा के जरिये संभव था, न सड़क और न रेल। यह तथ्य सभी इतिहासकारों ने नोट किया है कि यदि गुरदासपुर भारत को न मिला होता तो कश्मीर पर कबाइली हमले के समय भारतीय फौजों का कश्मीर पहुंचना असंभव था।
रोचक यह है कि 17 अगस्त 1947 तक यानी रेडक्लिफ एवार्ड के औपचारिक रूप से घोषित होने तक यही माना जाना रहा था कि गुरदासपुर पाकिस्तान को ही जायेगा। रेडक्लिफ एवार्ड में गुरदासपुर का पूर्वी हिस्सा भारत को मिलना पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान और इतिहासकारों को बहुत खटकता रहा है, वे इसे माउंटबेटन द्वारा नेहरू के प्रभाव में किये गये भारत के प्रति पक्षपात का परिणाम मानते हैं। नेहरू की कश्मीर-नीति के पाकिस्तानपरस्त होने और इस मामले में पटेल की सख्ती की जैसी धारणा फैलाई गयी है, उसके अनुसार तो कश्मीर के सवाल पर पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान और उसके समर्थक कश्मीर-अध्येताओं को नेहरू के प्रति नरम और पटेल के प्रति कठोर होना चाहिए था। किन्तु वास्तविकता इसके सर्वथा विपरीत है। कश्मीर के सवाल पर पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान शुरू से ही पटेल के ‘यथार्थवादी’ रुख की सराहना करते हुए, नेहरू से बहुत कुपित रहा है।
विभाजन में कौन-सा नगर किस देश को दिया जायेगा, यह तय करने के दो आधार माने गये थे– भौगोलिक समीपता और आबादी की संरचना। गुरदासपुर की आबादी में, 1941 की जनगणना के अनुसार, 50.4 मुस्लिम थे और 49.4 हिन्दू और सिख। संख्या में मुसलमान केवल 43 हजार अधिक थे। मुस्लिम लीग का तर्क था – भौगोलिक समीपता के आधार पर गुरदासपुर पाकिस्तान को ही मिलना चाहिए, आबादी में भी गैर-मुस्लिम प्रतिशत इतना अधिक नहीं कि इसे भारत को दे दिया जाये। उसे विश्वास था कि ऐसा ही होगा भी, हालांकि वैवेल ने 1946 में ही सिफारिश कर दी थी कि गुरदासपुर के रावी नदी के पूर्व में पड़ने वाले हिस्से भारत को मिलने चाहिए। लेकिन मुस्लिम लीग वाले लंदन तक लॉबिंग कर रहे थे और उन्हें पक्की उम्मीद थी कि अंत में पूरा का पुरा गुरदासपुर पाकिस्तान को ही मिलेगा। इसके लिए वे सिखों को मनाने की भी भरपूर कोशिश कर रहे थे। उस समय के दस्तावेजों के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि गुरदासपुर हासिल करने पर इतना जोर देने के पीछे कश्मीर पर पाकिस्तानी निगाह ही थी।
क्या भारतीय पक्ष में भी कोई इतनी दूर की सोच रहा था? इतिहासकारद्वय एसएस बर्क और सलीम अल-दिन कुरैशी की पुस्तक – ‘दि ब्रिटिश राज इन इंडिया : एन हिस्टॉरिकल रिव्यू’ (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1995, कराची) भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना को लेकर विभाजन तक के इतिहास के बारे में पाकिस्तानी दृष्टिकोण का परिष्कृत पाठ पेश करती है। ये विद्वान बिना किसी तीखेपन के, तथ्यों की अपने ढंग से व्याख्या करते हुए भारत विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण का वृत्तांत प्रस्तुत करते हैं। उनके लिए गुरदासपुर का महत्त्व इससे जाहिर है कि इस बारे में, उन्होंने पुस्तक के अंत में नहीं, बीच में ही, तेइसवें अध्याय के साथ एक परिशिष्ट दिया है, जिसमें ‘कुछ ही समय पहले’ हासिल हुए दस्तावेज रखे गये हैं। इनके आधार पर बर्क और कुरैशी का कहना है कि रेडक्लिफ ने तो पहले पूरा ही गुरदासपुर पाकिस्तान को दिया था, लेकिन माउंटबेटन के दबाव में वे ऐन आखिरी पल पलटी खा गये और गुरदासपुर की पूर्वी तहसीलें भारत को दे दीं। इन दस्तावेजों में सेक्रेटरी ऑफ स्टेट नोएल-बेकर का प्रधानमंत्री ऐटली को 25 फरवरी, 1948 के दिन लिखा नोट भी है। वे ऐटली को बताते हैं – ‘‘ऐसा सोचने के आधार तो निश्चय ही हैं कि सर सिरिल रेडक्लिफ ने गुरदासपुर को पश्चिमी पंजाब के बजाय पूर्वी पंजाब को दे देने वाला बदलाव ऐन आखिरी पल में किया, लेकिन ऐसा उन्होंने क्या माउंटबेटन की सलाह पर किया? हम नहीं जानते।’’ (पृष्ठ-554)
बर्क-कुरैशी इस सिलसिले में चौधरी मुहम्मद अली का क्रोध और दुख उद्धृत करते हैं – ‘‘यदि रेडक्लिफ ने केवल गैर-मुस्लिम बहुल तहसील पठानकोट ही भारत को दी होती तो भी भारत के लिए जम्मू-कश्मीर तक पहुंच पाना संभव नहीं होता, क्योंकि दो मुस्लिम बहुल तहसीलें – गुरदासपुर और फाजिल्का – बीच में पड़तीं। इन दो मुस्लिम बहुत तहसीलों को भी भारत को देकर रेडक्लिफ ने भारत को जम्मू-कश्मीर पहुंचने के लिए रास्ता दे दिया और इस तरह भारत-पाकिस्तान के बीच कटुतम विवाद का बीज बो दिया।’’ (पृ. 552)
जाहिर है, चौधरी साहब के हिसाब से कटुतम विवाद की जड़ यही थी कि कबायलियों को खदेड़ने के लिए भारतीय सेना कश्मीर पहुंच गयी, वरना तो सारा ही कश्मीर पाकिस्तान के हाथ होता और विवाद खड़ा ही न हो पाता।
बर्क-कुरैशी दस्तावेजों और ‘परिस्थितिजन्य साक्ष्य’ के आधार पर आरोप लगाते हैं कि रेडक्लिफ ने माउंटबेटन के दबाव में ऐसा किया। ऐसे दबाव लिखित रूप में तो डाले नहीं जाते। यह तो दस्तावेजों से ही जाहिर है कि रेडक्लिफ ने गुरदासपुर के बारे में अपना फैसला आखिरी पल में बदला। इस बदलाव के पीछे माउंटबेटन का हाथ होने का बर्क-कुरैशी का अनुमान भी काफी तर्कसंगत लगता है। वे इस बात का भी संकेत कर देते हैं कि माउंटबेटन की इस दिलचस्पी के पीछे किसका हाथ था। वे बताते हैं कि 4 अगस्त, 1947 को माउंटबेटन ने भोपाल के नवाब और इंदौर के महाराजा से कहा, ‘‘कश्मीर की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि वह भारत या पाकिस्तान दोनों में से किसी में भी शामिल हो सकता है, बशर्ते सीमा-आयोग (रेडक्लिफ) गुरदासपुर को पूर्वी पंजाब में रख दे।’’ यह सूचित करने के बाद बर्क-कुरैशी सवाल उठाते हैं – ‘‘क्या यह संभव नहीं कि ठीक यही बात जवाहरलाल नेहरू के मन में भी रही हो?’’ (पृ. 555)
प्रसंगवश, लेखकद्वय अंदमान-निकोबार द्वीप समूह के भारत को मिलने का ‘श्रेय’ भी माउंटबेटन की इस शरारत को ही देते हैं कि उन्होंने इंडिपेंडेंस बिल से यह उल्लेख हटवा दिया कि यह द्वीपसमूह 15 अगस्त, 1947 के बाद भारत का अंग नहीं रहेंगा। इस तरह आयी अस्पष्टता के चलते अंदमान-निकोबार स्वत: ही भारत को प्राप्त हो गया।
बर्क-कुरैशी कश्मीर को भारत में शामिल करने के नेहरू के भावुक, अयथार्थवादी रुख के विपरीत पटेल के ‘यथार्थवादी’ रुख की सराहना भी करते हैं, ‘‘पटेल पाकिस्तान के दोस्त नहीं थे, लेकिन जानते थे कि मुस्लिम बहुल कश्मीर भारत में अस्थिरता ही पैदा करेगा।’’ (पृ. 588)
कैसी रोचक बात है कि एडविना माउंटबेटन के साथ नेहरू की जिस मित्रता में नेहरू-निन्दक न केवल अश्लील रस लेते हैं, बल्कि उसके कारण देशहित की उपेक्षा करने का आरोप नेहरू पर लगाते हैं, पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान कश्मीर से भारत को सड़क-संपर्क प्राप्त होने और अंदमान-निकोबार को भारत के हिस्से आने के लिए उसी घनिष्ठता को कोसता है।
कश्मीर की विशेष भौगोलिक स्थिति, भारतीय सुरक्षा की दृष्टि से कश्मीर का महत्त्व, वहां की जनसंख्या की संरचना और राजा हरिसिंह की अदूरदर्शिता, अपरिपक्वता, इन सब चीजों से वाकिफ नेहरू के दिमाग में गुरदासपुर का सामरिक महत्त्व पहले से ही स्पष्ट था।
गुरदासपुर के जरिये भारत को कश्मीर से सड़क-संपर्क प्राप्त हो गया और वह भी इस तरह कि रेडक्लिफ एवार्ड के बदले जाने की संभावना में औपचारिक रूप से नेहरू तो क्या माउंटबेटन का भी सीधे-सीधे नाम लेना मुश्किल है। नोएल-बेकर हों, या पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान – माउंटबेटन पर पक्षपात या अनफेयर प्ले का सीधा, दो टूक आरोप नहीं लगा सकते। अधिक से अधिक यही कर सकते हैं कि परिस्थितिजन्य साक्ष्यों का हवाला देते हुए, ‘अनुमान’ लगायें कि माउंटबेटन ने नेहरू की इच्छा के अनुरूप, भारत के हित में रेडक्लिफ को प्रभावित किया। चाणक्य नीति इसे कहते हैं।
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