खादी की गुणवत्ता, उत्पादकता, खादी कार्य में लगे कामगारों की आमदनी आदि बढ़ाने के लिए काम तो हुए, किन्तु खादी के उत्पादन व बिक्री के आंकड़े बढ़ने के वावजूद हाथ से खादी बनाने वालों की संख्या घटी है। आंकड़े जो भी बोलते हों, पर जमीनी हकीकत यही है।
खादी को वस्त्र नहीं, विचार कहा जाता रहा है. खादी अपने पहनने वाले को उस विचार के आवरण से ढंक लेती है. और अब तो विभिन्न रंगों व डिजाइन वाली चिकनी खादी भी बनने लगी है, लेकिन वास्तव में वह खादी है या मिल का कपड़ा, पहचानना मुश्किल है। हांलाकि 1956 में खादी ग्रामोद्योग आयोग के गठन के बाद से खादी के काम को गति देने के लिए सरकारों ने अनेक योजनाएं चलायी। संसाधनों में सुधार भी हुए, लेकिन मर्ज बढ़ता गया, ज्यों ज्यों दवा की गयी। खादी की गुणवत्ता, उत्पादकता, खादी कार्य में लगे कामगारों की आमदनी आदि बढ़ाने के लिए काम तो हुए, किन्तु खादी के उत्पादन व बिक्री के आंकड़े बढ़ने के वावजूद हाथ से खादी बनाने वालों की संख्या घटी है। आंकड़े जो भी बोलते हों, पर जमीनी हकीकत यही है। खादी के कार्यकर्ताओं का भी बुरा हाल है। शुरू में जब खादी कार्यकर्ता का वेतन 75 रूपये होता था, उस समय प्राइमरी के शिक्षक और लेखपाल का वेतन 40 रूपये होता था। बहुत से लोग यह काम छोड़कर, खादी के कार्यकर्ता बन गये। लेकिन आज की स्थिति किसी से छुपी नहीं है।
आज स्थिति यह है कि जिन घरों की महिलाएं घर में खाली बैठने के बावजूद बाहर मजदूरी करने नहीं जा सकतीं, उन घरों में भले कुछ कताई हो रही है, किन्तु बुनकरों का काफी अभाव है। देश में कुछ जगहों पर मुट्ठी भर बुनकर हैं, जो इस कार्य में लगे हैं। वे भी ज्यादातर पोली खादी ही बुनना चाहते हैं। एेसा इसलिए कि कताई का काम श्रम का काम है और सूती धागा बुनाई में ज्यादा टूटता है, दैनिक मजदूरी भी कम पड़ती है। फिर भी खादी बन रही है, सवाल है कि कैसे? कुछ लोग एेसे हैं, जिन्होंने खादी बनाने का व्यवसाय शुरू कर दिया है. वे लोग संस्थाओं से पूनी ले लेते हैं और उस पूनी से मिल में उल्टी कताई करवाकर पावरलूम पर बुनाई करवाकर संस्था को सौप देते हैं। उस कपड़े को संस्थाएं अपने यहां का उत्पादन दिखाकर हिसाब लिख लेती हैं। इस तरह बनी बिना गांठ और बिना छीर वाली खादी सुन्दर दीखती है। लोग इसे पसन्द करते हैं। अब सवाल उठता है कि इन्हें फायदा क्या होता है? फायदा यह होता है कि मशीन से कताई और बुनाई के कारण लागत थोड़ी कम लगती है, और संस्था से हाथ कताई और हाथ बुनाई की दर से मजदूरी का पैसा अधिक लेते हैं। इस तरह संस्था का उत्पादन भी बढ़ता है और सरकार के आंकड़े भी। हालांकि खादी ग्रामोद्योग आयोग ने गलत ढंग से खादी उत्पादन न हो, इसके लिए नियम बनाये हैं, किन्तु गलत करने वाले नियमों की काट खोज ही लेते हैं।
सरकार ने विनोबा जी की पहल पर खादी के कार्य को बढ़ावा देने के लिए बिक्री पर ग्राहक को छूट देने का प्रावधान किया था, किन्तु संस्थाओं द्वारा बिक्री में फर्जीवाड़ा किया जाने लगा। बाद में रिबेट का जगह एमडीए स्कीम आई, जिसे बदलकर एमएमडीए कर दिया गया। एमएमडीए योजना में मजदूरी के अनुसार कत्तिन, बुनकर और उत्पादन कार्यकर्ता को तिमाही बोनस का प्रावधान है। इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए स्फूर्ति, केआरडीपी, कामगार बीमा, कामगार वर्कशेड, छात्रवृत्ति आदि जैसी योजनाएं भी लागू हैं। सोलर चर्खे और करघे भी आये हैं, किन्तु परिणाम वही ढाक के तीन पात। इसमें संदेह नहीं कि खादी का काम आज भी लाखों लोगों को रोज़गार मुहैया करा रहा है। इसे बन्द नहीं किया जा सकता। भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश में यदि ग्रामीण युवाओं को रोजगार देना है तो खादी का काम चालू रखना ही होगा, किन्तु यह श्रम साध्य और कम मजदूरी वाला काम चलेगा कैसे? इसके लिए इन सुझावों पर गौर किया जा सकता है।
कामगारों की मजदूरी बढ़ाई जानी चाहिए। इसके लिए ऐसा किया जा सकता है कि कामगार को अतिरिक्त मजदूरी मनरेगा से दी जाय। वैसे भी गांवों में कब तक कुआं ,तालाब, रास्ता और खेत खुदेगा, अंतहीन खुदाई तो नहीं चलती रह सकती. कभी तो उसका अन्त होगा। खादी की परिभाषा बदलकर उसे उर्जा चालित मशीनों से बनाने की छूट दी जानी चाहिए। क्योंकि सच्ची खादी का उत्पादन और बिक्री करना काफी कठिन काम है। मुझे बनवासी सेवा आश्रम में इसका अनुभव है। खादी का काम थाली के बैंगन जैसा है. कभी पूंजी नहीं, तो कभी कत्तिन नहीं, कभी बुनकर नहीं, तो कभी कार्यकर्ता नहीं, और कभी बढ़ते स्टॉक की चिंता। फिलहाल बनवासी सेवा आश्रम में सच्ची खादी के तरह-तरह के कपड़े उपलब्ध हैं।
-लालबहादुर सिंह
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