आंदोलन की सफलता ने कुछ चीज़ें निश्चित कर दी हैं। जैसे, इस देश में महात्मा गांधी का विचार अभी ज़िंदा है। जनता में जान है। आंदोलन मरे नहीं हैं। आंदोलन किस तरह सफल होते हैं, उसकी राह फिर से स्पष्ट हुई है। संविधान सर्वोपरि है। जनता सरकार के लिए नहीं, सरकार जनता के लिए है। कृषि से इस देश की सभ्यता, संस्कृति और समृद्धि संरक्षित है, कार्पोरेट से नहीं। और जनता जो नहीं चाहती, उसे उस पर थोपा नहीं जा सकता।
जिस दिन संसद में कृषि के तीनों बिल पास हुए थे, लोगों को लगने लगा था कि अब देश का आर्थिक और लोकतांत्रिक ढांचा ख़तरे में है। नोटबंदी जैसे बड़े और अप्रिय फ़ैसले पर विपक्ष और जनता के नतमस्तक हो जाने का अनुभव इस आशंका को प्रबल कर रहा था। संवैधानिक संस्थाएं सरकार के चंगुल में जा चुकी थीं और सर्वत्र एक धारणा स्थापित हो गई थी कि अब आंदोलन का माहौल ही नहीं, उसकी संभावनाएं भी समाप्त हो चुकी हैं। निजीकरण के मार्फ़त आक्रामक क्रोनी पूंजीवाद की घोर समर्थक सरकार अब कृषि को महाकाय निजी गोदामों के हवाले कर चुकी तो कर चुकी। लेकिन हताश जनता के साथ हठी सरकार को भी इसका इल्म नहीं था कि किसान इतना बड़ा आंदोलन खड़ा कर देंगे। उसे छिटपुट आंदोलनों की उम्मीद थी और उससे निपटने के अनुरूप उसके पास पुलिसिया और मीडियाई तैयारियां भी पहले से थीं। शाहीन बाग़ के आंदोलन को उखाड़ चुकी सरकार को पक्का विश्वास था कि साम-दाम-दंड-भेद से वह किसी भी आंदोलन को उखाड़ देगी। उसे अंदाज़ा नहीं था कि किसान दिल्ली घेर लेंगे और सीमाओं पर डेरे डालकर धरने पर बैठ जाएंगे। सरकार यह भी सोच रही थी कि जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा, धरने पर बैठे किसान मौसम की मार से, सरकार की ललकार से और मीडिया के दुष्प्रचार से घबराकर भाग खड़े होंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। महात्मा गांधी की लाइन पर पूरे एक साल तक चले इस विराट अहिंसक आंदोलन में किसानों ने बड़ी-बड़ी मुसीबतें झेलीं, अवरोध झेले, प्रतिरोध झेले। लगभग सात सौ किसानों की जानें भी गईं, लेकिन अंतत: जीत उनकी ही हुई। अपने को मज़बूत समझने वाली सरकार को मजबूर होकर पीछे हटना पड़ा और कृषि क़ानूनों को रद्द करना पड़ा।
ऐन देव दीपावली के दिन गुरु नानक जयंती के अवसर पर प्रधानमंत्री को कहना पड़ा कि उनकी तपस्या में कोई कमी रह गई थी और वे किसानों को कृषि क़ानूनों का लाभ समझा नहीं पाये। उन्होंने इसके लिए देशवासियों से माफी भी मांगी। इस वायवीय और भावुक बयान के माध्यम से उन्होंने किसानों पर एक बार फिर आक्षेप ही किया। इस बयान पर सवाल भी खड़े हुए कि तपस्या आपने की या किसानों ने? सरकार की वह बेशर्मी भी हमने देखी है, जब अड़तालीस दिन और आठ चक्र की वार्ता के बाद उसने किसानों से कह दिया था कि अगर हमारा कोई फ़ैसला पसंद नहीं, तो सुप्रीम कोर्ट चले जाओ. यही सुप्रीम कोर्ट था, जिससे इस सरकार के पहले की हर सरकार डरा करती थी और चाहा करती थी कि उसके विरुद्ध कोई मामला सुप्रीम कोर्ट में न जाने पाये। अन्यथा सुप्रीम कोर्ट से लताड़ और मुआवजे के साथ मुक़दमा हारने का कलंक उन्हें कहीं का नहीं छोड़ेगा। और यह सरकार किस आरामतलबी से कह रही थी कि उसके विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट चले जाओ. इससे ज़ाहिर है कि सरकार को सुप्रीम कोर्ट का कोई भय नहीं है। भय से बड़ा विश्वास है कि सुप्रीम कोर्ट सरकार को सही ठहरायेगा और किसानों को ग़लत। यह विश्वास सरकार के पास कहां से आया कि इसे सार्वजनिक करने में उसे कोई हिचक नहीं हुई। सुप्रीम कोर्ट भी हतप्रभ हुआ होगा कि सरकार ने यह कैसे कह दिया. यह ऐसा बयान है, जो सरकार और सुप्रीम कोर्ट की मिलीभगत की ओर इशारा कर रहा था! यह ऐसा इशारा था, जो सुप्रीम कोर्ट को बदनाम करने का माद्दा रखता था। इस तरह सारा धर्मसंकट सुप्रीम कोर्ट पर डाल दिया गया। सुप्रीम कोर्ट क्या कृषि क़ानूनों को ख़त्म करने का आदेश सरकार को दे सकता था? सुप्रीम कोर्ट अगर कह देता कि किसानों का आंदोलन ग़लत या अनावश्यक है तो फिर किसान क्या करते? सरकार की तो बल्ले-बल्ले हो जाती। सरकार सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर कार्यवाही करते हुए लोकतंत्र की रक्षक छवि के साथ किसानों को ज़बरदस्ती उनके घर भेजना शुरू कर देती। फिर किसान क्या करते? प्रश्न परेशान कर रहे थे।
किसान बिल संसद में ध्वनिमत से रद्द किए जा चुके हैं, संसदीय प्रावधानों के तहत विपक्ष इस पर चर्चा चाहता था। उस चर्चा में किसानों की अन्य समस्याओं और मांगों तथा उत्पीड़न की भी चर्चा होती, लेकिन सरकार ने उसका मौक़ा नहीं दिया। अल्पमत में रहते हुए भी राज्य सभा में ये बिल ध्वनिमत से जबरन पारित कराए गए थे। वस्तुत: संसदीय नियमों के अनुसार जिस तरह से पास होने चाहिए थे, उस तरह से पास भी नहीं हुए थे और उन पर राष्ट्रपति की मोहर लग गई। संसद में चर्चा होती तो सारी बातें फिर से उठतीं। लखीमपुर काण्ड भी उछलता और गृह राज्यमंत्री के इस्तीफ़े की मांग भी उठती। सात सौ से ऊपर किसानों की जो शहादत हुई, उसका मुआवज़ा, उन पर लगाए गए अभियोगों की वापसी, किसानों की एक और बड़ी मांग न्यूनतम समर्थन मूल्य की वैधानिक गारंटी और शहीद किसानों को श्रद्धांजलि! सरकार सबसे बच गई। लेकिन सरकार नहीं जानती कि जो बचेगा, वह क्या रचेगा। एक रचनात्मक सरकार को जनता की समस्याओं से जूझना चाहिए। सरकार इसीलिए होती है। विकास का ढोल पीटती सरकार को समझना चाहिए कि वह विकास किसका कर रही है और उस विकास की बलि कौन चढ़ रहा है। जुमलों में जो अन्नदाता है, उसे कार्पोरेट का कृषि दास बनाना विकास क़तई नहीं है। कार्पोरेट केवल अपनी कमाई के लिए है, देश और जनता की भलाई के लिए नहीं। यह भारत की कृषि ही है, जिसने मंदी के वक़्त में अर्थव्यवस्था को संभाले रखा। ऐसी कोई उम्मीद हम कार्पोरेट से नहीं कर सकते, जिसका कोई ठिकाना नहीं कि कब वह दिवालिया हो जाए और देश का पैसा विदेशी बैंकों के हवाले कर दे। विकास किसान का होना चाहिए। विकास कृषि का होना चाहिए। सरकार को कृषि बज़ट बढ़ाना चाहिए। उसे किसानों की आत्महत्याओं पर भी नज़र दौड़ानी चाहिए। सरकार को कृषि मज़दूरों पर भी ध्यान देना चाहिए। कृषि के साथ कृषि से जुड़े कुटीर उद्योगों को भी संरक्षित करना चाहिए। पशुपालन को बढ़ावा देना चाहिए। जंगल बचाकर रखे जाने चाहिए। इतने से ही देश की पचहत्तर प्रतिशत आबादी की सेवा हो जाती है। संसद में बिल रद्द होने के एक दिन पहले सेवा को ही प्रधानमंत्री अपना लक्ष्य बता रहे थे। वे कह रहे थे कि सत्ता उनका लक्ष्य नहीं है। किसानों की बाक़ी मांगें भी सहर्ष मानकर प्रधानमंत्री इसका प्रमाण दें। नहीं तो यह भी प्रधानमंत्री के जुमले खाते में चला जाएगा।
प्रधानमंत्री क्या करेंगे, क्या नहीं करेंगे इसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, लेकिन किसान आंदोलन की सफलता ने कुछ चीज़ें निश्चित कर दी हैं। जैसे, इस देश में महात्मा गांधी का विचार अभी ज़िंदा है। जनता में जान है। आंदोलन मरे नहीं हैं। आंदोलन किस तरह सफल होते हैं, उसकी राह फिर से स्पष्ट हुई है। संविधान सर्वोपरि है। जनता सरकार के लिए नहीं, सरकार जनता के लिए है। कृषि से इस देश की सभ्यता, संस्कृति और समृद्धि संरक्षित है, कार्पोरेट से नहीं। और जनता जो नहीं चाहती, उसे उस पर थोपा नहीं जा सकता। इसी क्रम में श्रमिकों पर थोपे हुए क़ानून भी हटने चाहिए।
फ़िलहाल, हम किसानों को इस सफल आंदोलन की बधाई और इसकी शांतिपूर्ण सफलता में अपने प्राण निछावर करने वाले किसानों को श्रद्धांजलि देते हैं.
-केशव शरण
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