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कृषि बिलों की वापसी के राजनीतिक निहितार्थ

किसान आन्दोलन की सफलता को भी हमें उस लड़ाई से कम करके नहीं आंकना चाहिए, क्योंकि इस लम्बे संघर्ष में केवल किसानों के भविष्य और देश की राजनीति की दिशा ही तय नहीं होनी थी, बल्कि देश में लोकतंत्र का भाग्य भी तय होना था।

किसान आंदोलन के चौदह महीने चलने के बाद अंततः केंद्र सरकार ने तीनों कृषि कानून वापस ले लिए हैं। गुरु नानकदेव की जयंती के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को संबोधित किया और तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा की। उनके अनुसार तीनों कानूनों को संसद के शीतकालीन सत्र में वापस लिया जाएगा। 25 सितम्बर 2020 को अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के बैनर तले विरोध प्रदर्शन पूरे देश के स्तर पर शुरू हुए, इससे पहले पंजाब के किसानों ने तीन दिन तक “रेल रोको आन्दोलन” से इस संघर्ष की शुरुआत कर दी थी।


प्रधानमन्त्री की कृषि बिल वापसी की घोषणा के बाद भी किसान नेताओं ने इसे आधी सफलता बताते हुए कहा कि एमएसपी मिलने तक लड़ाई जारी रहेगी। किसानों का यह आन्दोलन आजाद भारत के इतिहास में सबसे लम्बा चलने वाला आन्दोलन सिद्ध हुआ है। यह भी नहीं भूला जा सकता है कि कईं सौ किसान इस आन्दोलन में अपनी जान गँवा चुके हैं।


राजनीतिशास्त्रियों की नजर से देखा जाए तो 14 महीने से चल रहे इस आन्दोलन और अब सरकार द्वारा तीनों कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के देश की राजनीति और आने वाले चुनावों पर साफ़ असर देखने को मिलेंगे। यह मानने में किसी को कोई संशय नहीं होना चाहिए कि देश की राजनीति में जहाँ किसान राजनीति और दबाव समूहों की धमक दिखाई देने वाली है, वहीं इस आन्दोलन से मजबूर होकर सरकार के बैकफुट पर जाने को लोकतंत्र की एक बड़ी जीत के रूप में देखा जाना चाहिए। नरेंद्र मोदी सरकार के बारे में यह धारणा बनी रही है कि यह सरकार किसी भी फैसले से बैकफुट पर कभी नहीं जाती है। हालाँकि इससे पहले भूमि अधिग्रहण के विषय पर भी किसान इसी सरकार को एक बार पहले भी पीछे हटा चुके हैं। पीछे न हटने की यह धारणा लोकतंत्र के लिए बहुत ही घातक मानी जानी चाहिए। अगर लोकतंत्र में भी लोगों के फीडबैक, शांतिपूर्ण आन्दोलन और प्रदर्शन को गंभीरता से नहीं लिया जायेगा तो लोकतंत्र और राजतन्त्र के बीच में कोई अंतर नहीं रह जायेगा।


पश्चिमी उत्तरप्रदेश के विशेष संदर्भ में इस फैसले से निश्चित तौर पर किसान राजनीति की धार तेज होगी। वहीं जब आन्दोलन एक कमजोर दौर से गुजर रहा था, बल्कि कहा जाए कि खत्म होने के कगार पर आ गया था, तब सही समय पर आन्दोलन में जान डालने के लिए चौधरी अजित सिंह ने धरना स्थल पर पहुँच कर अपने समर्थकों से आन्दोलन में जुटने का आह्वान करके आन्दोलन में एक नई जान डाली थी। यह भी स्पष्ट है कि पश्चिमी यूपी में किसानों की राजनीति चूँकि रालोद ही करता रहा है, अतः इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि रालोद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अगले यूपी चुनाव में एक मजबूत विकल्प के रूप में उभर सकता है।


महत्वपूर्ण बात यह है कि इस पूरे संघर्ष से उन सभी लोगों को प्रेरणा लेने की जरूरत है, जिनका भारत के लोकतंत्र पर भरोसा डगमगाने लगा था। हमें याद रखना होगा कि इस देश के लोकतंत्र की ही ताकत थी, जिसने इंदिरा जैसी ताकतवर प्रधानमन्त्री को भी आपातकाल और देश के तमाम विपक्षी नेताओं को जेल में डालने के मामले में बैकफुट पर आने के लिए मजबूर कर दिया था। किसान आन्दोलन की सफलता को भी हमें उस लड़ाई से कम करके नहीं आंकना चाहिए, क्योंकि इस लम्बे संघर्ष में केवल किसानों का भविष्य और देश की राजनीति की दिशा ही तय नहीं होनी थी, बल्कि देश में लोकतंत्र का भाग्य भी तय होना था। प्रधानमन्त्री के माफ़ी मांगते ही यह सुनिश्चित माना जाना चाहिए कि अब कोई भी सरकार लम्बे समय तक लोगों के ऊपर मनमाने कानून थोपने से पहले उन लोगों की सहमति और असहमति पर भी निश्चित ही विचार करना जरूरी समझेगी। किसी भी लोकतान्त्रिक सरकार को यह बिलकुल भी नहीं भूलना चाहिए कि इस देश का लोकतंत्र किसी भी राजनीतिक दल और सरकार से बहुत बड़ा है जो आजादी के बाद के इन 70 सालों में देश की अनेक महान विभूतियों के द्वारा अपने खून पसीने से सींचा गया है, जिसे एक ही झटके में खत्म करना सभव नहीं है। यह भी विचारणीय है कि लोकतंत्र में सरकार नहीं, जनता मालिक होती है इसलिए किसी को भी अपने निर्णयों से वापस होने के मामलों को अपनी जिद या अहम् से कभी भी नहीं जोड़ना चाहिए। इस आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण सबक यह भी है कि जब अपने ही देश के लोग किसी निर्णय के विरुद्ध संविधान द्वारा प्रदत्त अपने अधिकार के तहत विरोध प्रदर्शन करते हैं तो इसका मतलब यह बिलकुल नहीं होता कि आन्दोलन करने वाले ये लोग देश विरोधी हैं, बल्कि माना जाना चाहिए कि यही वे लोग हैं, जो लोकतंत्र को ज़िंदा रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। इस आन्दोलन में शामिल लोगों को खालिस्तानी, आतंकवाद समर्थक आन्दोलन जीवी आदि अनेक नामों से बदनाम करने के बावजूद सरकार को यह मानना पड़ा कि ये सब लोग भारतीय हैं और इन्हें संवैधानिक तरीके से विरोध का अधिकार है।


इस निर्णय से एक सबक मीडिया के उन लोगों को भी लेना चाहिए, जो टीवी पर होने वाली बहसों में एक स्वस्थ विमर्श के बजाय सरकार के नुमाइन्दों की तरह व्यवहार करके सरकार के फैसलों को एकतरफा सही साबित करने में जुट जाते हैं।


इस आन्दोलन का एक बड़ा प्रभाव यह भी हुआ कि इस दौर में जब महात्मा गाँधी और उनके तरीकों पर लगातार सवाल खड़े किये गये हैं, तब किसान आन्दोलन की सफलता से गाँधी और गांधीवादी रास्ते से किये गये आंदोलनों की ताकत सहज ही समझ में आती है। तमाम झंझावातों से निकलकर यहाँ तक पहुँचने के इस रास्ते में यही समझ आता है कि भारत के पवित्र लोकतंत्र की प्राणवायु किसी भी हमले से निपटने में पूरी तरह सक्षम है। इस फैसले पर यही कहा जा सकता है कि “देर आये दुरुस्त आये।”

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