लोकनायक जयप्रकाश नारायण पर लगा यह दाग या आरोप बहुत पुराना है और बार बार दुहराया जाता है कि उनके कारण आरएसएस प्रतिष्ठित हो गया, कि संघ को वैधता मिल गयी. इस संदर्भ में जेपी का एक कथित कथन भी बहुप्रचारित है कि ‘यदि संघ फासिस्ट है, तो मैं भी फासिस्ट हूँ.’ 1974 के आंदोलन में संघ और जनसंघ (भाजपा का पूर्व रूप) को शामिल करना जेपी की गलती थी या नहीं, इस पर बहस हो सकती है. लेकिन उसी ‘गलती’ के कारण आज संघ इतना प्रभावी हो गया है और ‘संकीर्ण हिंदुत्व’ की डरावनी ताकतें इतने विकराल रूप में नजर आ रही हैं, यह कहना गलत ही नहीं, हास्यास्पद भी है. खास कर तब, जब यह बात कुछ ‘कम्युनिस्ट’ और ‘समाजवादी’ भी कहते हैं, जो 1967 में डॉ लोहिया के गैरकांग्रेसवाद के नारे और प्रयोग के साथ थे और जनसंघ के साथ अनेक राज्यों में सत्ता में साझीदार भी. वैसे दबे स्वर में यह बात अब आंदोलन में शामिल रहे कुछ अन्य साथी भी कहने लगे हैं.
तथ्य यह है कि जेपी का निधन अक्टूबर 79 में हुआ और 80 में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हो गयी. केंद्र में और राज्यों में भी. उसके बाद जेपी या उनके आंदोलन की लीगेसी कहां बची? 1984 में नवगठित भाजपा सिर्फ दो सीट जीत पायी. तब 1974 या 1977 या जेपी की बची खुची लीगेसी भी समाप्त हो गयी, मान लेना चाहिए. उसके बाद शाहबानो मामले में राजीव गांधी सरकार द्वारा कानून बदलकर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलट देने के विवाद से दूसरी कहानी शुरू हो गयी. मुसलिमपरस्ती के आरोप को कम्पन्सेट करने के लिए राजीव गांधी ने 1949 से बाबरी मस्जिद में लगे ताले को खुलवा दिया. संघ और भाजपा को जीवनदान मिला और यहीं से उन्हें पुनर्स्थापित होने का सुअवसर मिला. संघ के प्रभाव विस्तार के इस स्पष्ट दीखते कारण और यह देखते हुए कि 84 में मिली दो सीटों से बढ़कर आज वह पूर्ण बहुमत से सत्ता में बैठी हुई है, इसके लिए जेपी को कोसना इसके मूल कारणों को देखने की जहमत उठाने और अपने निकम्मेपन को ढंकने का प्रयास ही लगता है.
80 के बाद लम्बे समय तक भाजपा हाशिये पर रही. 1996 में पहली बार, वह भी तत्कालीन राष्ट्रपति के विचित्र फैसले के कारण बिना बहुमत के ही वाजपेयी महज तेरह दिनों के लिए प्रधानमंत्री बन सके. फिर बने जोड़तोड़ से. वह भी जॉर्ज फर्नांडीस और शरद यादव आदि कुछ कथित सेक्यूलर और समाजवादियों के सहयोग से. तो क्या जॉर्ज जैसों के पीछे जेपी की प्रेरणा काम कर रही थी और वे इसीलिए संघ के साथ हो गये? एनडीए सरकार के संकटमोचक बन गये और बजरंग दल आदि को अच्छाई का प्रमाणपत्र इसलिए देने लगे कि कभी जेपी ने संघ को आंदोलन से जोड़ने की ‘गलती’ कर दी थी? नहीं, ऐसे लोगों के अंदर ‘गैरकांग्रेसवाद’ का वह कीड़ा पलता रह गया था, जो सत्ता की राजनीति में जेपी के पुनः सक्रिय होने के बहुत पहले से मौजूद था. या फिर साम्प्रदायिकता की उनकी परिभाषा भिन्न थी; या धर्मनिरपेक्षता के प्रति उनका कमिटमेंट कमजोर था. या फिर उनमें किसी बहाने सत्ता सुख भोगने की ख्वाहिश छिपी हुई थी. कभी लालू प्रसाद के विरोध के नाम पर, तो कभी किसी और बहाने, ऐसे लोग संघ और भाजपा को सहारा देते रहे. हालांकि अधिक सच शायद यह कहना होगा कि अपने ‘भोलेपन’ में या तत्काल कुछ पाने के लोभ में वे उसका मोहरा बनते रहे.
फिर भी कहा जा सकता है कि जेपी इस तरह के आजमाये समाजवादियों की असलियत भांपने में विफल रहे. वैसे ही यह नहीं कह या मान सकते कि आंदोलन के प्रभाव से संघ भी बदल सकता है, उनका यह आकलन भी गलत साबित हो गया? इसे चूक कह सकते हैं, सायास गलती नहीं.
नब्बे के दशक में अयोध्या कांड और मंडल-कमंडल हुआ, फिर 2002 में ‘गुजरात’ हुआ और संघ का कारवां मजबूत होता गया. बावजूद इसके कि 2004 से 2013 तक केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार थी. उसके बाद का किस्सा सामने है. यह सब जेपी की उस ‘गलती’ के कारण हुआ, ऐसा मानना अति सरलीकरण या सच से मुंह चुराना है. सच यह है कि संघ और भाजपा को सांप्रदायिक मानने वालों ने उसके प्रभाव का विस्तार बढ़ने से रोकने की दिशा में कलम और जुबान चलने के अलावा कुछ खास नहीं किया या वे (इन पंक्तियों का लेखक खुद को भी उनमें शामिल मानता है) अक्षम साबित हुए.
यह भी कहा जाता है कि मोरारजी सरकार के करीब ढाई वर्ष के शासन के दौरान जनसंघ के मंत्रियों–आडवाणी, वाजपेयी, जोशी आदि ने अपने लोगों को तंत्र में महत्वपूर्ण जगहों पर बिठा दिया और इस जमात को अब तक उसका लाभ मिल रहा है. यदि यह सच भी हो, तो उस सरकार में शामिल अन्य गैर भाजपा मंत्रियों को ऐसा करने से किसने रोका था? क्या वे इतने नौतिकतावादी थे कि ऐसा करना सही नहीं लगा; या उनको यह सब करने के लिए समय ही नहीं था; या वे निकम्मे थे? जो भी थे, लेकिन इसके लिए भी जेपी को दोषी मान लिया जाये? सच यह है कि संघ/भाजपा की जैसी भी और जितनी भी गलत ‘विचारधारा’ है, वे उसे जमीन पर उतारने के लिए सतत लगे रहते हैं. सत्ता में रहें या न रहें. सही मायनों में इसके लिए वे साम-दाम दंड-भेद सब अपनाते हैं. दूसरी ओर कथित सेक्यूलर हैं, जिनको एक दूसरे की टांग खींचने या मौज करने से ही फुरसत नहीं मिलती. सभा-सेमीनारों में जोरदार भाषण और विद्वतापूर्ण लेखन लगभग निरर्थक तथा बेअसर होते हैं, यदि आप अपने विचार को जन-जन जक पहुंचाने का अभियान नहीं चलाते, जनता तक नहीं पहुंचते. क्या यह उनका दायित्व नहीं था और है?
एक और बात जान और समझ लेने की जरूरत है कि 1974 का आंदोलन जेपी ने शुरू नहीं किया, भले ही उसे ‘जेपी आंदोलन’ कहा जाता है. वे उससे बाद में जुड़े. बेशक उनके जुड़ने से आंदोलन की विश्ववसनीयता बढ़ी, उसमें गंभीरता आयी, लेकिन उसकी शुरुआत संयुक्त बिहार के छात्र-युवा नेताओं और संगठनों ने की थी. उनमें संघ की विद्यार्थी शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद पहले से शामिल थी. इस तरह संघ परोक्ष रूप से शामिल था ही. बाद में भी संघ के लोग परोक्ष-समर्थक की भूमिका में ही रहे.
फिर वह जनांदोलन का रूप लेता गया और जेपी ने उसे व्यवस्था परिवर्तन का आंदोलन- सम्पूर्ण क्रांति कहा. प्रारंभ में उस समय के विपक्षी दल आंदोलन में सीधे शामिल नहीं थे. वैसे उनसे जुड़े छात्र संगठन पहले से शामिल थे. उन दलों ने बिना शर्त समर्थन दिया था. आंदोलन का अपना अनुशासन था, किसी दल का झंडा, बैनर तक नहीं लगता था. हालांकि जेपी को एहसास था कि दलों का अपना एजेंडा और स्वार्थ होता है.
गौरतलब है कि जेपी ने तब एक बयान में (संभवत: मई 1974 में) कहा था कि ‘यह आंदोलन विद्यार्थियों का है, राजनीतिक दल इससे दूर रहें.’ इसके जवाब में कर्पूरी ठाकुर ने कहा था कि आंदोलन पर किसी की मिल्कियत नहीं होती. हमें इसमें शामिल होने से कोई नहीं रोक सकता. इसके बाद संचालन समिति में विमर्श के बाद विपक्षी दलों को मिलाकर अलग से ‘जनांदोलन समन्वय समिति’ का गठन किया गया. फिर सभी दलों से समर्थन लेने का निर्णय हुआ और वे आंदोलन में शामिल हुए. तो किस तर्क और आधार पर जनसंघ को आंदोलन में शामिल होने से रोक दिया जाता, जबकि विद्यार्थी परिषद उसमें पहले से शामिल था?
अब जेपी के उस कथन की बात कि ‘यदि संघ फासिस्ट है…’ एक तो यही गलत है कि जेपी ने संघ के किसी समारोह में ऐसा कुछ कहा था. वे 1974 में जनसंघ के आमंत्रण पर उसके सम्मेलन में दिल्ली गये थे. वहां मौजूद जेपी के निकट सहयोगी (अभी गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष) कुमार प्रशांत के अनुसार जेपी ने कहा था कि ‘इंदिरा जी जनसंघ को फासिस्ट कहती हैं. क्या वह इसलिए फासिस्ट है कि उनकी सरकार का विरोध करता है; या आंदोलन में शामिल है? और यदि जनसंघ फासिस्ट है, तो क्या मैं भी फासिस्ट हूँ?’ (यहां शब्दों में हेरफेर हो सकता है, लेकिन जेपी ने जो कहा, उसका अर्थ यही था) संघ ने इसी बात को अपने लिए प्रमाणपत्र के रूप में प्रचारित और प्रसारित किया और जाने-अनजाने कुछ अन्य लोगों ने भी उसे सच मान लिया. जेपी ने जो भी कहा था, लेकिन उनके इतना कहने भर से संघ को वैधता मिल गयी और वह देश में इतना प्रभावशाली हो गया, यदि किसी को यह लगता है, तो उनकी समझ को क्या कहा जाये!
अंत में इतना कि जब पड़ोस में या मोहल्ले में आग लगी हो, तो बाल्टी लेकर आग बुझाने आ रहे लोगों से कोई उनकी पहचान नहीं पूछता. और 74 में लगभग वही स्थिति थी- लोकतंत्र खतरे में था. 25 जून 1976 के बाद तो बस एक ही मुद्दा था- लोकतंत्र की रक्षा. जेपी को उस समय जो उचित लगा, उन्होंने किया. वे संघ को प्रतिष्ठित नहीं कर रहे थे, अपने देश और लोकतंत्र को पुनः प्रतिष्ठित करने का प्रयास कर रहे थे; और वे इसमें सफल भी हुए. आज कोई भी सरकार देश पर इमरजेंसी थोपने का साहस नहीं कर सकती, यह उस आंदोलन की उपलब्धि है. यह और बात है कि आज बिना बाकायदा घोषणा के ही, सरकार उस समय से कहीं ज्यादा निरंकुश नजर आ रही है. यही आज की बड़ी चुनौती है. ऐसे में संघ/भाजपा के विस्तार में जेपी की कथित गलती खोजने के बजाय इस चुनौती का मुकाबला कैसे करें, विचार का यह मुद्दा है और यही होना चाहिए.
-श्रीनिवास
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