इस संसार के बारे में सिर्फ एक बात ही पूरे भरोसे से कही जा सकती है; और वह यह कि इस संसार में कुछ भी स्थायी नहीं है। जो है, सतत परिवर्तनशील है। हमारी जानकारी की तमाम सीमाओं के बावजूद हम यह जानते हैं कि इतिहास में अनेक सभ्यताएं उभरीं, एक विशिष्ट उत्कर्ष तक पहुँचीं और फिर एक दिन नष्ट या धूमिल हो गयीं। अनेक ऐसे व्यक्तियों ने जन्म लिया, जिन्होंने अपने जीवनकाल में बड़ी संख्या में लोगों को, समाज को प्रभावित किया, उसमें कई बार आमूलचूल परिवर्तन भी किया, मगर फिर वे भी इस दुनिया-ए-फानी से विदा हो गए और धीरे-धीरे उनकी वजह से हुए परिवर्तन भी पूरी तरह से परिवर्तित हो गए। ऐसे में यह सवाल बेमानी ही है कि महात्मा गांधी के बाद इस देश में कोई दूसरा महात्मा गांधी क्यों नहीं हुआ? यह सवाल बेमानी इसलिए भी है कि गांधी से पहले भी तो कोई गांधी नहीं हुआ। हर व्यक्ति विशिष्ट होता है। उसका कोई दूसरा अवतार नहीं होता। लेकिन अगले साल जनवरी में जब गांधी की शहादत को 75 साल पूरे हो जाएंगे, तब यह सवाल करना शायद बेमानी न हो कि पिछले 75 सालों में क्या कोई व्यक्ति ऐसा हुआ, जिसने उस खाली जगह को भरने में कम या ज्यादा सफलता पाई हो?
दुर्भाग्य से जब हम पिछले 75 सालों की समयावधि पर निगाह डालते हैं, तो पाते हैं कि अपने जीवनकाल में गांधी ने जिस तरह से इस देश और दुनिया के लोगों के जीवन को छुआ, प्रभावित और प्रेरित किया, उसकी छाया भी कोई दूसरा छू नहीं पाया। ऐसा नहीं है कि इस दौरान ऐसे लोग नहीं थे, जिन्होंने किसी न किसी क्षेत्र में बड़ी संख्या में लोगों को प्रेरित और प्रभावित नहीं किया। जिन्होंने अपनी लगन, समर्पण और निष्ठा से किसी क्षेत्र विशेष में एक बड़ा बदलाव लाने में सफलता हासिल नहीं की। ऐसे लोग हुए, मगर उनका प्रभाव क्षेत्र गांधी की तुलना में हमेशा बहुत सीमित रहा। इस दृष्टि से यदि हम भारतीय परिदृश्य का विचार करें तो गांधी के बाद हमें एक बड़ा शून्य दिखाई देता है।
यह शून्य क्यों है? यह सवाल भी पूछा जा सकता है कि आख़िर गांधी के व्यक्तित्व में ऐसा क्या था, जिसने उन्हें गांधी बनाया। अनु बंद्योपाध्याय की एक छोटी-सी पुस्तक है, जो उन्होंने किशोरों के लिए लिखी थी–बहुरूप गांधी। इस पुस्तक की भूमिका जवाहरलाल नेहरू ने लिखी थी और इसमें रेखाचित्र आरके लक्ष्मण ने बनाए थे। इसमें यह दर्शाने वाली छोटी-छोटी घटनाओं का संकलन है कि किस तरह इस देश के स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करते हुए गांधी दर्जी, धोबी, नाई, मोची, रसोइया, हकीम, दाई, बुनकर, किसान, लेखक, पत्रकार जैसी अनेक भूमिकाएं भी पूरे कौशल के साथ निभा रहे थे। गांधी के बाद कोई उस स्तर का व्यक्ति क्यों नहीं हुआ, यह समझने के लिए हमें इस बात को समझना होगा कि किन चीजों ने गांधी को गांधी बनाया था।
एक ही शरीर होने के बावजूद गांधी के भीतर कुछ समान शक्ति और क्षमता वाले कई गांधी कार्यरत थे। मोटे तौर पर हम उनमें तीन अलग-अलग गांधियों की पहचान कर सकते हैं। ये तीन गांधी थे – आध्यात्मिक गांधी, समाजसुधारक गांधी और राजनीतिक गांधी। वास्तव में कोई भी व्यक्ति अपने जीवन काल में इनमें से कोई एक भूमिका ही ठीक ढंग से निभाने में खप जाता है, मगर गांधी का कमाल यह है कि उन्होंने अपने एक जीवन में ही इन तीनों भूमिकाओं को बेहतरीन ढंग से निभाने का पराकोटि प्रयत्न किया और इसमें वे सफल भी हुए।
गांधी के जीवन का अध्ययन करते हुए एक निष्कर्ष हम बड़ी आसानी से निकाल सकते हैं कि अध्यात्म गांधी के संपूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व का मूलाधार था। मूल रूप से वह अध्यात्म पथ के निष्ठावान पथिक थे। उनके संपूर्ण क्रियाकलाप दरअसल अपने आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के प्रयास के ही सहचर थे। वे मन-प्राण से उस धनुर्धर अर्जुन की तरह थे, जिसकी दृष्टि हमेशा चिड़िया की आँख पर केंद्रित रही। उनके लिए चिड़िया की आँख उनके आध्यात्मिक लक्ष्य थे। उनकी तमाम अन्य भूमिकाएं इस आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के मार्ग में आने वाले आपद्धर्म कर्तव्यों के निर्वहन के लिए थीं।
धार्मिकता गांधी को बचपन में ही अपनी माँ पुतलीबाई से संस्कारों के रूप में मिली थी। मगर इसे आध्यात्मिकता का रूप देने में जिस व्यक्ति की बुनियादी भूमिका थी, वह थे तत्कालीन मुंबई के एक हीरा व्यापारी राजचंद्र भाई। 6 जुलाई 1891 को जिस दिन विलायत से बैरिस्टरी की पढ़ाई करके गांधी ने भारत की धरती पर कदम रखा था, उसी दिन उनकी राजचंद्र भाई से पहली मुलाकात हुई थी। गांधी से उम्र में महज दो वर्ष बड़े राजचंद्र भाई अनासक्त कर्मयोगी की भारतीय अवधारणा के जीवंत उदाहरण थे। उनके व्यापक शास्त्रज्ञान, शुद्ध निरपेक्ष चरित्र और आत्मदर्शन के प्रति उनके उत्कट उत्साह ने गांधी को बहुत प्रभावित किया। उस समय गांधी का भविष्य पूरी तरह से अस्पष्ट और अनिश्चित था। उनके भीतर धार्मिक और आध्यात्मिक प्रश्नों को लेकर भी भारी उथल-पुथल थी, मगर हीरे-मोती का व्यापार करते हुए भी उसके तमाम अवगुणों से परे रहकर निरंतर आत्मदर्शन की साधना में लगे राजचंद्र भाई में उन्होंने अपने भावी जीवन के लिए एक आदर्श पा लिया था। इसके बाद गांधी ने जीवन में जो भी किया, चाहे वह प्रारंभ में वकालत हो, बाद में राजनीति हो या फिर समाज-सुधार, इन सबको निरपेक्ष वृत्ति से करते हुए उनका ध्यान हमेशा आत्मदर्शन के सर्वोच्च साध्य पर से अविचल रहा। उन्होंने भविष्य में राजनीति और समाज परिवर्तन के क्षेत्र में भी इसी आध्यात्मिक वृत्ति का समन्वय किया और हम कह सकते हैं कि बहुत सफलतापूर्वक किया।
गांधी की खासियत यह रही कि वे अध्यात्म को व्यक्तिगत प्रयत्नों से हटाकर सामूहिक साधना के स्तर पर ले आए। इसे उन्होंने किसी विशिष्ट वर्ग तक सीमित न रखकर सर्वसामान्य के बीच ले जाने का प्रयास किया। इसके लिए उन्होंने आश्रम जीवन में एकादश व्रतों का प्रतिपादन किया। इन एकादश व्रतों का सौंदर्य यह था कि उन्होंने सनातन सिद्धांतों को समकालीन परिस्थितियों से जोड़कर पुनर्व्याख्यायित किया। यह भारत के इतिहास का एक अभिनव प्रयोग था, जिसमें सनातन को नकारने की जगह उसे आधुनिक काल और परिस्थितियों के मुताबिक नये सिरे से संशोधित और परिवर्धित किया गया था।
प्रयोगशील गांधी ने इस क्षेत्र में लक्ष्य की प्राप्ति के लिए और अपने आसपास के लोगों को भी अपनी आध्यात्मिक यात्रा का सहयात्री बनाने के लिए अनेक प्रयोग और प्रयत्न किए। इसमें विनोबा, मीरा से लेकर मनु तक अनेक लोग शामिल थे। यह एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें उनके शिष्य विनोबा ने पर्याप्त नाम कमाया। गांधी के रहते भी और गांधी के बाद भी उनकी आध्यात्मिक विरासत के सच्चे उत्तराधिकारी विनोबा ही बने। उनका मूल पिंड ही अध्यात्म का था, इसलिए कहा जा सकता है कि गांधी की समन्वयवादी दृष्टि को लेकर वे इस क्षेत्र में गांधी से भी आगे निकल गए। वेद, उपनिषद और गीता की व्याख्या से लेकर विभिन्न धर्मों के ग्रंथों के सारतत्त्व का चिंतन और प्रस्तुतीकरण उनका ऐतिहासिक काम है। उनके चिंतन और अध्ययन का क्षेत्र इतना व्यापक था कि उनके द्वारा प्रस्तुत धम्मपद का चयनित रूप बौद्ध विद्वानों के लिए भी सर्वमान्य रहा। उनकी प्रेरणा से विभिन्न जैन ग्रंथों के महत्वपूर्ण सूत्रों का संकलन समणसुत्तं नाम से संग्रहित और प्रकाशित हुआ। विनोबा की अध्यात्म के क्षेत्र में विद्वत्ता और क्षमता में तो कोई संदेह है ही नहीं, लेकिन अध्यात्म को लोगों के दैनिक और सामान्य जीवन का हिस्सा बनाने और नैतिक मूल्यों को व्यावहारिक जीवन से जोड़ने का गांधी का मिशन अपने वारिस की तलाश आज भी कर रहा है।
आध्यात्मिक गांधी के बाद गांधी का जो दूसरा रूप था, जो बहुत मुखर और प्रभावी रहा, वह समाज सुधारक गांधी का था। यह एक ऐसा क्षेत्र था, जिसमें गांधी की प्रतिभा बहुमुखी आयामों में पुष्पित और पल्लवित होती दिखाई देती है। सार्वजनिक जीवन के मामले में लियो तालस्ताय और जॉन रस्किन के सिद्धांतों से प्रभावित गांधी ने समाज सुधार के लिए एक अभिनव मार्ग की खोज की, जिसे उन्होंने रचनात्मक कार्यक्रम का नाम दिया। गांधी को इस बात में कोई संदेह नहीं था कि सिर्फ राजनैतिक स्वतंत्रता भारत को उसके गत वैभव की प्राप्ति नहीं करा सकती। इसके लिए सदियों की गुलामी से उत्पन्न बुराइयों और रूढ़ परम्पराओं की बेड़ियों से जकड़े हुए भारतीय समाज के पुनर्गठन की जरूरत है। इसके बिना स्वतंत्रता कभी स्वराज में नहीं बदल सकती। इसलिए गांधी ने राजनैतिक आंदोलनों के साथ-साथ रचनात्मक कार्यक्रमों के जरिए सामाजिक सुधार की जरूरत पर हमेशा बल दिया।
गांधी के लिए रचनात्मक कार्यक्रमों का मूल उद्देश्य एक अहिंसक और आदर्श समाज की रचना करना था। इसी वजह से वह इन रचनात्मक कार्यक्रमों में शासन का न्यूनतम हस्तक्षेप और लोगों की अधिकतम भागीदारी को सबसे ज्यादा महत्व देते थे। गांधी की बहुआयामी सोच ने समाज के उत्थान और विकास के लिए आवश्यक लगभग हर क्षेत्र में सुधार का एक ब्ल्यू प्रिंट तैयार किया था और उसके लिए अनेक जीवनदानी कार्यकर्ता तैयार किए थे।
गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों का क्षेत्र कितना व्यापक था, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसमें कौमी एकता, अस्पृश्यता–निवारण, शराबबंदी, खादी, अन्य ग्रामोद्योग, गांवों की सफाई, नयी या बुनियादी तालीम, बड़ों की तालीम, स्त्रियाँ, आरोग्य के नियमों की शिक्षा, प्रांतीय भाषाएँ, राष्ट्रभाषा, आर्थिक समानता, किसान, मजदूर, आदिवासी, कुष्ठरोगी आदि सारे विषय शामिल थे। इसके लिए उन्होंने अनेक संस्थाओं का गठन भी किया।
गांधीजी द्वारा बोये रचनात्मक कार्यक्रमों के बीज ने विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले अनेक वटवृक्ष तैयार किए। आर्थिक समानता के क्षेत्र में विनोबा द्वारा लाखों एकड़ भूमि दान में हासिल कर उसे भूमिहीनों को वितरण एक ऐसा क्रांतिकारी कार्य था, जिसकी मिसाल दुनिया के इतिहास में दूसरी नहीं मिलती। शिक्षा के क्षेत्र में ईडब्ल्यू आर्यनायकम और आशादेवी आर्यनायकम, आर्थिक विचार के क्षेत्र में जेसी कुमारप्पा, ग्रामीण विकास व सफाई के क्षेत्र में अप्पासाहेब पटवर्धन, चर्म उद्योग के क्षेत्र में काका वालुंजकर, स्थापत्य के क्षेत्र में लॉरी बेकर, पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में सुंदरलाल बहुगुणा, कुष्ठरोगियों की सेवा के मामले में शिवाजीराव पटवर्धन और बाबा आमटे, ग्राम विकास के क्षेत्र में ठाकुरदास बंग जैसे नाम प्रतिनिधि स्वरूप लिए जा सकते हैं। रचनात्मक कार्यक्रमों के किसी एक क्षेत्र में अपना पूरा जीवन लगा देने वाले सैकड़ों कार्यकर्ता गांधी के जीवनकाल में ही सक्रिय थे। उनके बाद भी उनके विचारों से प्रेरित होकर बड़ी संख्या में लोग अलग-अलग क्षेत्रों में सक्रिय होकर समाज सुधार की दिशा में अपना बहुमूल्य योगदान दे रहे हैं।
गांधी का राजनीतिक रूप सबसे ज्यादा परिचित और प्रचारित है। इसका सबसे बड़ा कारण उनके द्वारा एक महत्वपूर्ण कालखंड में स्वतंत्रता आंदोलन को नेतृत्व प्रदान करना है। इस क्षेत्र में गांधीजी का सबसे बड़ा योगदान राजनीति को आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों से जोड़ने का प्रयास करना है। सत्य और अहिंसा जैसे आध्यात्मिक मूल्यों की मदद से विश्व की तत्कालीन सबसे प्रबल सत्ता को झुकाने का करिश्मा गांधी ने कर दिखाया था, जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। राजनैतिक गांधी का दूसरा सबसे बड़ा योगदान इस देश की सर्वसामान्य जनता को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ना था। चूल्हे और बच्चों तक सीमित स्त्रियों को राजनैतिक भूमिका निभाने के लिए सड़क पर उतारने का करिश्मा भी गांधी ने कर दिखाया था।
राजनैतिक गांधी से प्रभावित होकर एक पूरी पीढ़ी स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी और इस देश को राजनैतिक नेतृत्व भी प्रदान किया। प्रकट रूप से जवाहरलाल नेहरू चाहे महात्मा गांधी के राजनैतिक उत्तराधिकारी माने गए, मगर सच यह है कि गांधी की राजनीति में नैतिकता की प्रतिष्ठा और सर्वसमावेशी दूरदृष्टि सीमित अर्थों में जयप्रकाश नारायण जैसे अपवादों को छोड़कर उनके बाद इस देश का नेतृत्व करने वाले किसी राजनेता में नहीं आ पाई। गाँव और ग्रामसभा को सत्ता का मूल केंद्र बनाने और राजनेताओं की जगह जनसेवक तैयार करने की उनकी मंशा उनकी असामयिक मृत्यु और उनके राजनैतिक उत्तराधिकारियों की कमजोरियों के कारण कभी पूरी नहीं हो सकी।
भारत ही नहीं, विश्व के इतिहास में भी ऐसा दूसरा व्यक्ति खोजना असंभव है, जिसने अपने जीवनकाल में जीवन के इतने विविध विषयों पर न सिर्फ मूलभूत चिंतन किया, वरन सक्रिय रहकर अनेक क्षेत्रों में मूलगामी परिवर्तन की नींव रखी और एक नयी और अनोखी दिशा दी। यह बेवजह नहीं है कि आज भी दुनिया की तमाम तरह की समस्याओं के हल के लिए आपको बार-बार गांधी विचार की ओर लौटना पड़ता है। देश और दुनिया की समस्याओं के समाधान के लिए आज भी गांधी विचार के सिवा कोई और विकल्प नहीं दिखता तो उन विचारों की सर्वकालिकता और गहराई का अंदाजा लगता है। गांधी की उत्तुंग छाया को छूने के लिए जीवन को उसकी बहुआयामी समग्रता में देख पाने और विभिन्न क्षेत्रों में प्रमाणकारी भूमिका अदा करने की क्षमता होना जरूरी है। दुर्भाग्य से ऐसा कोई दूसरा व्यक्ति आज तक पैदा नहीं हुआ। अभी तो गांधी को गए महज 75 साल पूरे होने वाले हैं। यह कहना मुश्किल है कि गांधी की लकीर के जितनी या उससे बड़ी लकीर खींचने वाला कोई और कब पैदा होगा।
-पराग मांडले
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