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लगातार अनदेखी की गयीं चेतावनियां

दरकते हुए जोशीमठ ने एक बार फिर साबित किया है कि हम जिसे विकास कहकर खुद को छलावा देते हैं, दरअसल वह बेहद बेरहम विनाश है। ऐसा नहीं है कि ऐसी त्रासदियों के पूर्व संकेत न मिले हों, लेकिन मौजूदा लोकतंत्र के सभी स्तंभों ने उन्हें लगातार अनसुना और अनदेखा किया है। जोशीमठ पर ही 1976 में एक मिश्रा कमेटी बनी थी, पढ़ें उस कमेटी की चेतावनियों पर यह विश्लेषण।

उत्तराखण्ड का एक और ऐतिहासिक शहर जोशीमठ बर्बादी की कगार पर है। आदिगुरू शंकराचार्य की तपस्थली के लिए जाना जाने वाला यह नगर भू-धंसाव की जद में है। वास्तविक क्षति सरकारी सर्वेक्षण से अधिक होने का अनुमान है। बदरीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग का बड़ा हिस्सा भू-धंसाव की चपेट में है। लोगों के खेतों में हर दिन चौड़ी हो रही बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गयी हैं। बीते दिनों मारवाड़ी के समीप जेपी कालोनी में अचानक एक जगह जलधारा फूट पड़ी, लोग घबराये हुए हैं।

जोशीमठ की सैटेलाइट तस्वीरें बताती हैं कि 12 दिनों में 5।4 सेंटीमीटर और धंस गया शहर

जोशीमठ शहर कई बड़ी बातों से पहचाना जाता है। इनमें बदरीनाथ धाम और आदिगुरू शंकराचार्य की तपस्थली विख्यात हैं। दूसरी पहचान उत्तराखण्ड में चल रही तथाकथित विकास की धारा से जुड़ी है। इसमें विश्वविख्यात स्कीइंग केन्द्र औली, एशिया की सबसे लंबी और ऊंचाई पर स्थित रोप वे परियोजना, जयप्रकाश वेंचर्स की 420 मेगावाट की विष्णुप्रयाग जलविद्युत परियोजना तथा नेशनल थर्मल पावर कॉर्पोरेशन की 520 मेगावाट की निर्माणाधीन तपोवन विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजना शामिल हैं।

शहर की तलहटी में बदरीनाथ से निकली तीव्र प्रवाह वाली अलकनन्दा और धौलीगंगा हैं। इसी तलहटी पर विष्णुप्रयाग में धौलीगंगा अलकनन्दा नदी से मिलती है। विष्णुप्रयाग, जो उत्तराखण्ड के पांच प्रयागों में पहला प्रयाग है, जोशीमठ की ऐतिहासिकता का मूक गवाह है। धार्मिक और सांस्कृतिक शहर होने के साथ-साथ भारत-चीन सीमा के करीब सबसे बड़े नगरों में एक होने तथा अपनी विशिष्ट सामरिक स्थिति के कारण यह अत्यन्त महत्वपूर्ण नगर है। देश की सुरक्षा से जुड़े ये पहलू भी उतने ही महत्वपूर्ण माने जा रहे हैं।

20 से 30 हजार की आबादी और एक दर्जन से अधिक गांवों की खुशहाली से जुड़े इस शहर के लिए भूस्खलन और भू-धंसाव की घटनाएं कोई नई नहीं हैं। इसकी बसावट और भूगोल में यह दंश छिपा है। यदि नया कुछ है तो वह इन खतरों की जानबूझकर अनदेखी करना है, जिसके चलते जोशीमठ जैसे सदियों पुराने शहर के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा हो गया है।

जोशीमठ की स्थिति, कारण तथा निराकरण को लेकर नवभारत टाइम्स ने मार्च 1976 में चिपको आंदोलन के चण्डीप्रसाद भट्ट की और जोशीमठ शहर के भूस्खलन और भू-धंसाव को लेकर दिनमान ने जुलाई 1976 में पर्यवरणविद अनुपम मिश्र की रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इनमें आज से कुछ कम, लेकिन इन्हीं समस्याओं से दो-चार होते जोशीमठ के हालात पर लिखा गया था। जोशीमठ की बसावट को लेकर प्रख्यात भूगर्भवेत्ता हेम और गैंसर की रिपोर्ट का हवाला देते हुए तब कारण और बचाव पर चर्चा की गई थी।

नवभारत टाइम्स में छपी रिपोर्ट के बाद तत्कालीन उत्तरप्रदेश सरकार ने समस्या के निराकरण के लिए गढ़वाल के तत्कालीन आयुक्त महेशचन्द्र मिश्र की अध्यक्षता में विज्ञानियों, तकनीकविदों, प्रशासकों, चमोली जिला पंचायत के अध्यक्ष और जोशीमठ के प्रमुख समेत 18 सदस्यीय समिति का गठन किया था। इसमें चण्डीप्रसाद भट्ट को भी सदस्य बनाया गया था। समिति के विज्ञानियों और तकनीकविदों ने जोशीमठ के भूगर्भीय हालात और भौगोलिक स्थिति का भ्रमणकर भू-धंसाव और भूस्खलन के कारणों का अध्ययन किया था।

मिश्रा-समिति द्वारा नगर के निचले हिस्से में दोनों नदियों की टो-कटिंग आदि पर ध्यान दिया गया था, जिससे जोशीमठ की तलहटी से शुरू होने वाली पहाड़ी के टो-सपोर्ट प्रभावित होने से भूस्खलन और भू-धंसाव सक्रिय हो जाते हैं। हिलवासिंग और जलरिसन, जो शीतकाल में बर्फ के साथ शुरू होता है, को उन कारणों में एक बताया गया था, जिनसे जोशीमठ में भू-धंसाव हो रहा था। इस प्रक्रिया में बर्फ का पानी धरती के अंदर रिसता है, जिससे मिट्टी और बौल्डर्स की आपसी पकड़ कमजोर हो जाती है। इस सबके साथ जोशीमठ नगर में अनियोजित विकास को बड़ा कारक माना गया था।

वर्ष 62 के भारत-चीन युद्ध के बाद निर्माण गतिविधियों में तेजी आयी, जिसके लिए विस्फोटक आदि का उपयोग हुआ था। इन संरचनाओं के निर्माण में विस्फोटक के उपयोग के साथ-साथ अवशिष्ट जल की निकासी की उचित व्यवस्था पर ध्यान न दिया जाना भी एक कारण था। जोशीमठ के प्राकृतिक वन इन निर्माण और विकास गतिविधियों की भेंट चढ़े थे। जिस पहाड़ी पर जोशीमठ नगर बसा है, वह मूल रूप में जिनेसिस श्रेणी की चट्टान है, जो परत दर परत बनी होती है। इन सारे कारकों के असर से ये परतें दूसरी परत से अलग हुईं और इससे भू-धंसाव और भूस्खलन की प्रक्रिया तेज हुई।

मिश्रा समिति ने जोशीमठ नगर का जीवन बचाने के लिए 47 साल पहले जो सुरक्षात्मक उपाय बताये थे, वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। भारी निर्माण कार्यो पर पूर्ण रोक लगाने, आवश्यक निर्माण कार्यों के लिए भूमि की भारवहन क्षमता के आधार पर निर्माण की अनुमति देने, सड़क और अन्य संरचनाओं के निर्माण के दौरान बोल्डर्स को खोदने और विस्फोट से हटाने जैसी प्रक्रिया पर पूरी तरह रोक लगाने, नदी तट से पहाड़ी की ओर पत्थरों की निकासी न करने, जोशीमठ के निचले हिस्से में वनीकरण तथा संरक्षित क्षेत्र में हरियाली का दायरा बढ़ाने के तब के सुझाव आज भी प्रासंगिक हैं।

मिश्रा समिति ने, जहां-जहां दरारें थीं, उन्हें भरने, नैनीताल की तर्ज पर नालियों की व्यवस्था करने, जिससे भू-कटाव की संभावना कम हो जाय, गड्ढों में पानी जमा होकर रिसे नहीं, इसके लिए गड्ढेनुमा संरचनाओं को भरने की व्यवस्था करने, नगर के भीतर और बाहर से लाये गये साफ तथा गंदे पानी और मल की निकासी की उचित व्यवस्था के साथ ही नदी तट पर टो-कटिंग वाले इलाकों में इंजीनियरिंग वर्क की संस्तुति की थी।

मिश्रा कमेटी के कुछ सुझावों पर राज्य सरकार ने तभी कार्य शुरू कर दिया था, खासतौर पर इंजीनियरिंग से जुड़े कार्य, लेकिन निरोधात्मक कार्यो पर कभी ईमानदारी से कार्य नहीं हुआ। भारी निर्माण कार्य बदस्तूर चलते रहे। विस्फोटकों का उपयोग निर्माण कार्यो के लिए अभी भी उसी गति से हो रहा है। निर्माण कार्य के लिए भूमि की भार-वहन क्षमता का भी कभी आकलन नहीं हुआ। आबादी बढ़ने के साथ-साथ बाहर से पाइपों से पानी पहुंचाया गया, लेकिन निकासी की व्यवस्था में उस गति से कोई नई संरचना नहीं बनी। आज 1976 के मुकाबले आबादी कई गुना बढ़ गई है, लेकिन सीवर से लेकर पानी की निकासी की व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आया है।

वैज्ञानिक और पर्यावरणविद जोशीमठ में एकाएक भूस्खलन और भू-धंसाव के कई कारण गिना रहे हैं। उनमें से अधिकतर कारणों पर 1976 की मिश्रा कमेटी चर्चा कर चुकी है। प्रख्यात पर्यावरणविद और जोशीमठ को बचाने के लिए 1976 में डेढ़ माह तक जोशीमठ के मारवाड़ी में एक सौ पचास छात्रों के साथ पौधरोपण शिविर का अायोजन करने वाले चण्डीप्रसाद भट्ट कहते हैं कि 7 फरवरी 2021 को तपोवन हादसे के दौरान धौलीगंगा में जो उफान आया था, उसने जोशीमठ की तलहटी में पहले धौली तट को, फिर अलकनन्दा के तट पर विष्णुप्रयाग से मारवाड़ी पुल तक को टो-कटिंग से अस्थिर कर दिया था। उस इलाके में उस दिन कुछ मिनट के लिए नदी का पानी दस से बीस मीटर तक ऊपर उठ गया था और तटवर्ती पहाड़ी की मिट्टी भी काटकर अपने साथ ले गया था। इससे मिट्टी खिसकने की प्रक्रिया शुरू हुई, जिसका असर जोशीमठ पर दिखायी दे रहा है।

औली में चल रहे निर्माण में भी इलाके की संवेदनशीलता को ध्यान में नहीं रखा जा रहा है। औली में कृत्रिम बर्फ बनाने के लिए बाहर से पानी लाया गया है, झील बनायी गई है। मिश्रा समिति ने बोल्डर्स हटाने पर रोक की सिफारिश की थी, जो लागू नहीं हुई। इसी के नीचे से बड़ी परियोजनाओं की सुरंग बन रही है। धरती के बाहर और भीतर दोनों जगहों पर खतरों की जानकारी होने के बाद भी दुस्साहस किया जा रहा है। मिश्रा समिति के सुझाव लागू किये जाने चाहिए, इससे कुछ हद तक स्थिति फिर से ठीक हो सकती है।

पीड़ित जोशीमठ आज सड़कों पर है और पुनर्वास व दीर्घकालिक उपायों को लागू करने की बात कर रहा है। बालू और पत्थरों के ढेर पर बसे इस शहर को सरकार से ज्यादा वहां के लोग बचा सकते हैं। मिश्रा समिति के सुझावों का कड़ाई से पालन हो, इसके लिए दबाव बना सकते हैं। अन्यथा उत्तराखण्ड के सैकड़ों गांव उत्तरकाशी के बागी जैसे गांव की स्थिति में आ जायेंगे, जिसके सारे घर भू-धंसाव के कारण धरती के गर्भ में समा चुके हैं। -सप्रेस

-ओम प्रकाश भट्ट

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