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लहरें निमंत्रण दे रही हैं!

जेपी आंदोलन का आफ्टर इफेक्ट

जो काम अंग्रेज 190 साल के शासन के दौरान नहीं कर पाये, वह जेपी से वीपी सिंह तक के दस-पंद्रह सालों के दौरान हो गया।

सन 1974 के जेपी आंदोलन का प्रभाव राजनैतिक था, यह सच का एक पहलू है। उस समय के राजनैतिक दलों और मीडिया ने भी इसी सच को उभारने की हर संभव कोशश की और आम जनता ने भी इसी को सच माना, इसमें कोई संदेह नहीं है।
प्रश्न है कि जेपी आंदोलन की शुरूआत कब से मानी जाय? क्या इसका प्रारंभ उस समय के चारों विश्वविद्यालयों के छात्रसंघों से गठित नवनिर्माण समिति और सर्वोदय आंदोलन के छात्र नेताओं–कुमार प्रशांत, शुभमूर्ति, संतोष भारतीय आदि की गिरफ्तारी से माना जाय अथवा जेपी के मुसहरी प्रखंड में कूदने से माना जाय?

1967 में नक्सलवाड़ी में कम्युनिस्टों का नया अध्याय प्रारंभ हुआ। इसने भारतीय राजनीति के सोचने की दिशा ही बदल दी थी, जिसके परिणामस्वरूप उस समय की भारतीय सरकार को लगातार वामपंथी कदम उठाने पड़ रहे थे। भूमि हदबंदी कानून, गरीबों को बासगीत का पर्चा देना, बैंकों का राष्ट्रीयकरण और उद्योगों का नेशनलाइजेशन जैसे कदम केन्द्रीय सरकारों तथा प्रांतीय सरकारों द्वारा लगातार उठाये जा रहे थे। इसके बावजूद भारत का बुद्धिजीवी वर्ग बहुत ही शिद्दत से भारतीय राजनीति में लोकतांत्रिक आंदोलन की जरूरत महसूस कर रहा था। जेपी अपने नेतृत्व की राजनीतिक संरचना के कारण इससे अपने को अछूता नहीं रख पा रहे थे। वे लगातार उस दिशा में बढ़ते चले जा रहे थे। मुद्दे वही थे, जो कम्युनिस्टों के थे, यानी आम जनता के ज्वलंत मुद्दे, लेकिन जेपी ने उस आंदोलन को कम्युनिस्ट विरोधी नहीं होने दिया। उन्होंने अपने आंदोलन का लोकतांत्रिक स्वरूप कायम रखा। आंदोलन का लक्ष्य था–भारतीय समाज की संरचना में आमूलचूल परिवर्तन।

जेपी ने मुसहरी आंदोलन के दरम्यान यह कहना शुरू कर दिया था कि सत्याग्रह के तरकश में हजारों तीर हैं। मुसहरी आंदोलन के प्रारंभ में जेपी ने कहा था कि अभी तक कम्युनिस्ट गांधी जी की मूर्ति तोड़ते थे, अब वे गांधी के अनुयायियों को जान से मारने की धमकी देते हैं। कई कम्युनिस्टों ने मुझसे कहा था कि जब-जब हम देश को क्रांति के कगार पर लाते हैं, तब तब सर्वोदय के लोग आकर हमारा फ्यूज उड़ा देते हैं। उदाहरणस्वरूप वे हमारे सामने तेलंगाना और नक्सलवाड़ी का उदाहरण देते थे। मुसहरी में घूमने के कारण जेपी की समझ में आ गया कि भारतीय समाज की मूलभूत समस्या क्या है?

मोरारजी की सरकार ने वीपी मंडल आयोग का गठन किया। यह एक क्षीण-सी धारा थी, जिसे उस समय की राजनीति में बहुत महत्त्व नहीं दिया गया, बल्कि उसके द्वारा की गयी अनुशंसा को भारत सरकार की आलमारी में बंद कर दिया गया। सौभाग्य कहां जाय या दुर्भाग्य, वह भारत सरकार की आलमारी में बंद नहीं रह सका। वीपी सिंह ने जाते-जाते भारतीय राजनीति की म्यान से उस तलवार को निकाल कर मैदाने जंग में रख दिया। आगे चलकर जो कुछ हुआ, उसमें रामविलास पासवान, शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। ये सब जेपी आंदोलन की उपज थे। इन लोगों के नेतृत्व की सक्षम उपस्थिति ने मंडल आयोग की अनुशंसाओं का अभिमन्यु-वध होने से बचा लिया। जो काम अंग्रेज 190 साल के शासन के दौरान नहीं कर पाये, वह जेपी से वीपी सिंह तक के दस-पंद्रह सालों के दौरान हो गया। आगे चलकर मायावती भी इस प्रवाह में शामिल हुईं।

अब तक भारत की राजनीति और समाज को उत्तर भारत ही निर्देशित करता रहा है। अब तक भारत की राजनीति और समाज में सवर्णों का ही दबदबा रहा है। इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि पिछड़े और हरिजन, भारतीय राजनीति के मुख्य वाहक बने। इसका असर भारतीय समाज की संरचना पर भी पड़ा। सवर्णों का भारतीय राजनीति पर वर्चस्व खतम हुआ। इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि पहले सवर्ण, पिछड़ों और हरिजनों को नेता बनाकर संसद और विधानसभाओं में भेजते थे। अभी हरिजन और पिछड़े, सवर्णों को नेता बनाकर विधायिका में भेजते हैं।

आज उत्तर भारत में हर जाति की अपनी पार्टी है और हर जाति का अपना नेता है। हर जाति की अपनी जीवंत आर्थिक और राजनीतिक चेतना है। आज हर वोटर कहता है कि खाऊंगा सब से, लेकिन वोट दूंगा अपने मन से। हरिजनों और पिछड़ों की आर्थिक स्थिति में काफी सुधार हुआ है।

आज संसद और विधानसभाओं में पिछड़ों और हरिजनों की बहुसंख्या दिखायी देती है। सवर्ण सदस्य इने गिने दिखाये देते हैं। सरकारों की निर्णय प्रक्रिया में पिछड़ों और हरिजनों की ही अगुवाई रहती है। कानून बनाने की प्रक्रिया में उनके योगदान को स्वीकार करना पड़ता है। उत्तर भारत की राजनीति में यह सब जो कुछ हो रहा है, उसकी शुरूआत जेपी आंदोलन से हुई है। जेपी आंदोलन ने चेतना के जो बीज बोये थे, वही अब पुष्पित-पल्लवित हो रहे हैं। खुशी की बात है कि जो कुछ हुआ, वह सब लोकतांत्रिक तरीके से हुआ।

कोई भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया तभी सफल मानी जाती है, जब वह प्रतिशोध मुक्त हो और उसमें मॉरल फाइबर हो, लेकिन वैसा होता दीख नहीं रहा है। खतरा अभी टला नहीं है। उसका सामना हमारी पीढ़ी को ही करना है, अब जेपी नहीं हैं। उनकी प्रेरणा कायम है। उस प्रेरणा के बल पर सर्वोदय वालों को उसका सामना करना है। मुंह मोड़ने से काम नहीं चलेगा। लहरें निमंत्रण दे रही हैं।

-सतीश नारायण

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