History

लाजबाब कम्यूनिकेटर गांधी


महात्मा गांधी 15 अप्रैल 1917 को चंपारण आए थे। सात दिन बाद ही जिले के कलक्टर ने अपने उच्चाधिकारियों को चिट्ठी लिखी। उसमें यह उल्लेख सबसे पहले आता है कि आज गांधी की चर्चा जिले में हर किसी की जुबान पर है। गांधी ने चम्पारण के एक सक्रिय किसान राजकुमार शुक्ल के अलावा किसी को अपने आने की सूचना नहीं दी थी और निपट अकेले उन्हीं के संग आए थे। बल्कि शुक्ल जी उनको मुश्किल से ‘पकड़’ कर ले आए थे। पटना ही नहीं, मुजफ्फरपुर तक गांधी के साथ अकेले शुक्ल जी ही थे। गांधी ने उन्हीं से अपने पूर्व परिचित आचार्य कृपलानी को तार दिलवाया था, जो तब मुजफ्फरपुर में अध्यापन कर रहे थे। वे अपने कुछ बच्चों को लेकर गांधी को रिसीव करने स्टेशन तक आए थे। गांधी मुजफ्फरपुर में कमिश्नर से मिलना और उन्हें अपने चम्पारण जाने की सूचना देना चाहते थे। कमिश्नर ने तीन दिन मिलने का समय नहीं दिया। जब यह अनुमति नहीं मिली तो 18 अप्रैल को वे मोतीहारी चल पड़े, जो चम्पारण जिले का मुख्यालय था। उनके मोतीहारी आने की सूचना शुक्ल जी ने कई लोगों को दी थी। सौ से ज्यादा लोग स्टेशन पर उन्हें लेने आए थे। वहाँ पहुंचते ही गांधी जी सक्रिय हुए और अगले ही दिन हाथी पर सवार होकर उस गांव कि ओर चल पड़े, जहाँ निलहों पर अत्याचार होने की खबर मिली थी। रास्ते में ही उनको जिला छोड़ने का आदेश मिला, जिसे उन्होंने यह कहते हुए मानने से इंकार किया कि आप कानूनी रूप से ठीक हो सकते हैं, लेकिन मेरी अंतरात्मा मुझसे कह रही है कि मुझे अपने देश में कहीं भी आने जाने की आजादी है। इस आदेश का उल्लंघन करने के लिए मुझे जो भी सजा मिले, मैं भुगतने के लिए तैयार हूँ। जिस दिन गांधी पर मुकदमा चला, उस दिन अदालत में हजारों रैयत मौजूद थे और अंतत: शासन ने गांधी जी को छोड़ दिया।


जो गांधी निपट अकेले आए थे, उनके साथ अब हजारों लोग जेल जाने को तैयार थे। गांधी जब 22 अप्रैल को मोतीहारी से बेतिया, जो नील उत्पादन का केन्द्र था, पहुंचे तो स्टेशन पर दस हजार से ज्यादा लोग थे, इतने कि स्टेशन संभाल नहीं पा रहा था और लोग पटरी तक खड़े थे। रेलगाड़ी को स्टेशन से पहले रोकना पड़ा और पटरी खाली कराने के बाद ही गांधी जी स्टेशन तक आ पाए। लोग उनकी गाड़ी को खुद से खींच रहे थे, रास्ते भर फूलों की बरसात होती रही, नारे लगते रहे। मेरे लिए अध्ययन का यही विषय प्रमुख था कि गांधी का सन्देश चम्पारण में इतनी तेजी से कैसे फैला। अपनी किताब ‘प्रयोग चम्पारण’ (भारतीय ज्ञानपीठ) में मैंने इसी गुत्थी को सुलझाने की कोशिश की है, क्योंकि वे न चम्पारण को जानते थे, न नील के उस पौधे को देखा था, जिसकी खेती से परेशान किसानों को राहत देने के लिए वे गए थे। डेढ़ महीने बाद जब जांच आयोग बना तो गांधी जी न सिर्फ किसानों के प्रतिनिधि बनकर वहां गए, बल्कि उन्होंने अपने तर्कों से सबको निरस्त्र कर दिया और वह सब कुछ हासिल कर लिया, जो पाना चाहते थे। चंपारण की चर्चा वे जब भी करते हैं, बहुत प्रफुल्लित मन से करते हैं। यह जादू हुआ कैसे और तब कैसे हुआ, जब जानकारियाँ लेना-देना, सन्देश का आदान प्रदान, कहीं आना-जाना बहुत मुश्किल था? कम्यूनिकेशन के सारे साधनों के आदिम अवस्था में होने पर भी गांधी जबरदस्त कम्यूनिकेटर साबित हुए। उन्होने कैसे चंपारण का हर मर्ज जान लिया और कैसे अपना सन्देश दिया कि सभी लोग सारे भेदभाव भूलकर उनके पीछे हो लिये और जो एक बार उनके प्रभाव में आया, जीवन भर के लिए उनके रंग में रंग गया।


गांधी ने तब वहाँ न तो राष्ट्रवाद का नारा बुलन्द किया, न जमींदारी के खिलाफ झंडा उठाया, न अंग्रेजी शासन से लड़ाई घोषित की, न जुल्मी निलहों के खिलाफ कोई तीखी बात की, न अगड़ों के खिलाफ बोला, न पिछड़ों का मजाक उड़ाया, न दलितों का अपमान किया, न छुआछूत की लड़ाई लड़ी, न औरतों के सवाल को ही उठाया, न हिन्दू-मुसलमान की खेमेबन्दी कराई, न जिले का विकास करने का दावा किया, न पर्यावरण बचाने का, न जमींदारो-महाजनों के रिकार्ड/बही खाते फुंकवाए, जो प्राय: हर किसान आन्दोलन का सबसे परिचित तरीका था, और न कहीं हिंसा होने दी। और तो और उन्होंने अखबारों को भी दूर रखा, कांग्रेस को भी दूर रखा, दूसरे नेताओं तक को दूर रखा और जिले में एक पैसा चंदा लेने की मनाही कर दी। उनको हर वर्ग, हर इलाके, हर समाज का समर्थन मिला और उन्होंने वह सब कुछ हासिल कर लिया, जिसकी चर्चा पहले की गई है। उन्होंने नील की खेती को सदा के लिए विदा करने के साथ विश्वव्यापी अंग्रेजी शासन को उखाड़ने की शुरुआत की और पश्चिमी शैतानी सभ्यता के बदले अपना विकल्प देने की शुरुआत की, हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन को जमीन पर उतारा और एक इलाके की बार-बार हिंसक हो रही लडाई को शांतिपूर्ण ढंग से राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ दिया। उन्होने दलितों और औरतों की स्थिति सुधारने की क्रांतिकारी शुरुआत की, उन्होंने हिन्दू-मुसलमान की ऐसी एकता बनाई कि उसके बाद फिर कभी चम्पारण में दंगे की खबर नहीं मिलती। उन्होंने औरतों को राष्ट्रीय आन्दोलन में जोड़ने और परदे से बाहर लाने का भी काम किया।


ये सारे काम उन्होंने मुख्यत: कम्यूनिकेशन के अपने तौर तरीकों से किया और इसके दूरगामी प्रभाव हुए। सिर्फ चम्पारण की तात्कालिक बीमारियाँ दूर करना ही उनका मकसद भी नहीं था। चम्पारण का सन्देश पूरे मुल्क और दुनिया में गया और सैकड़ों कार्यकर्ताओं की जीवन भर प्रेरणा बना रहा, यह संदेश गांधी और उनके काम के जरिये आगे और प्रचारित-प्रसारित हुआ। गोरी चमड़ी तथा ब्रिटिश हुकूमत का खौफ एक बार चम्पारण से उतरा तो उतरता ही गया। हम पाते हैं कि गांधी जी ने चम्पारण में कसरत करने, डंडा भांजने, परेड करने की जगह बड़ी सावधानी से यही खौफ भगाने का काम किया। उन्होंने पूरी शांति से काम करने की रणनीति अपनाई और इस क्रम में उन्होंने खुद को जान से मारने के प्रयास की खबर को एकदम गायब करने से लेकर अपने हर सहयोगी के आने-जाने की सूचना तक स्वामिभक्त नागरिक की तरह ब्रिटिश हुक्मरानों को देने जैसे न जाने कितने प्रयोग किये। उनको पुरानी कम्यूनिकेशन प्रणालियों की मदद मिली पर सामने अति विकसित और ताकतवर ब्रिटिश इम्पीरियल कम्यूनिकेशन प्रणाली थी, जिसे गांधी ने मात दी। अंग्रेजी और निलहा नेटवर्क ऐसा था कि किसके घर में क्या खाना पक रहा है, किसके कटहल में फल आए हैं, किसकी भैंस कितना दूध देती है, कब कोल्हू से गन्ना पेरना और कब बड़े चूल्हे से हल्दी पकाना शुरू हो रहा है, जैसी सभी सूचना उनके पास होती थीं, क्योंकि लगान के अलावा पचास से ज्यादा तरह के कर इन्हीं चीजों पर वसूले जाते थे।


दूसरी ओर सारी ताकत, सारे संसाधन, सारे चुस्त व चौकस लोग और जबरदस्त खुफिया व्यवस्था लिये ब्रिटिश हुक्मरान हर कदम पर गलती करते गए। गांधी के आने की पहली गलत सूचना से लेकर तिनकठिया प्रथा की समाप्ति पर भ्रामक सूचना देने वाला पोस्टर छपवाने तक। फिर अंग्रेजी हुकूमत और निलहे भी गांधी को लेकर अफवाह फैलाने लगे, जो कम्यूनिकेशन में कमजोर पड़ने की निशानी है। और तो और सारी फौजी और खुफिया तैयारी तथा पुराने प्रशासनिक उदाहरणों के आधार पर कमिश्नर ने गांधी को चम्पारण से बाहर करने का जो आदेश दिलवाया, उसकी नीचे से लेकर ऊपर तक खुद साम्राज्य के लोगों ने ही आलोचना की, पर गांधी ने चालाकी या किसी प्रबंधकीय योजना की जगह अपनी निष्ठा, सच के प्रति जबरदस्त आग्रह और भरोसा, सबसे पहले अपना उदाहरण पेश करने के नैतिक बल, अपनी कुर्बानी देने के जज्बे और निश्चय को ही सबसे ज्यादा मददगार बनाया। चम्पारण प्रयोग का गांधी का जादू सिर्फ चम्पारण तक नहीं रहा। जो सरदार पटेल गांधी से मिलने पर उनके तौर-तरीकों की खिल्ली उड़ा रहे थे, चम्पारण की सफलता की खबर सुनकर कुर्सी से उछल पड़े और अपने खेड़ा किसान आन्दोलन की अगुवाई के लिए गांधी को बुलाने लगे। चम्पारण के पड़ोस के जिलों, जहाँ भी नील की खेती होती थी, से तो उनको रोज बुलावा आता था। अहमदाबाद के मिल मजदूरों का बुलावा आया। गांधी चम्पारण से निकले तो अपने ‘अधूरे प्रयोग’ को लेकर संशय में थे, लेकिन चम्पारण सत्याग्रह किसानों की मुश्किलों का निवारण करने के साथ- साथ राष्ट्रीय आन्दोलन को भी नई पटरी पर लाने वाला बना, गांधी के अपने जीवन में निर्णायक बदलाव लाने वाला बना। जिस किसी को भी अन्याय से लड़ने के नए तरीके के बारे में पता करना था, वह चम्पारण से सीखने आया।

-अरविन्द मोहन

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