डॉ. लोहिया ने कहीं कहा था कि एक दिन लोग मेरी बातें सुनेंगे जरूर, पर मेरे मरने के बाद। गौर से देखने पर लगेगा कि संगठित लोहियावाद तो (अगर ऐसी कोई चीज कभी थी तो) आगे नहीं बढ़ा है, लेकिन लोहिया जिन मूल्यों के लिए लड़े, वे बातें आगे बढ़ी हैं। लोहिया ने हाशिये की जिन सामाजिक-राजनीतिक शक्तियों को जगाया था, उन्होंने राजनीति और समाज में बड़ी भूमिका ले ली है। अब आर्थिक समता वाला बुनियादी काम कहां और कैसे पीछे छूटा है, उसकी पड़ताल भी होनी चाहिए। लेकिन यह कहने में हर्ज नहीं है कि लोहिया इस मुल्क और दुनिया के उन थोड़े से दार्शनिकों और राजनेताओं में हैं, जो मौत और संगठन के बिखराव के बावजूद दिन ब दिन ज्यादा प्रासंगिक और प्रभावी होते गए हैं।
लोहिया और उनके साथी समाजवाद और लोकतंत्र की लड़ाई लड़ते रहे। समाजवाद तो उनकी परिभाषा के अनुरूप नहीं आया है, लेकिन आज भारत और भारतीय उपमहाद्वीप में जो लोकतंत्र बना और बचा हुआ है, उसे इस रूप में बनाए रखने तथा कई मामलों में पश्चिमी लोकतंत्र से ज्यादा जीवंत बनाये रखने में इस जमात की भूमिका सबसे बड़ी थी। जरा उस दौर को याद कीजिए, जब सरकार और कांग्रेस दोनों में नेहरू के नेतृत्व को चुनौती देने वाला दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता था। लोहिया और लोहियावादियों ने अपनी पार्टी में, मुल्क की सड़कों पर, जेलों में और संसद के अंदर जीवंत लोकतंत्र का तमाशा प्रस्तुत किया और मुल्क की लोकतांत्रिक व्यवस्था को न सिर्फ जीवित रखा, बल्कि समृद्ध किया।
आज हमारा लोकतंत्र दुनिया में नए तरह का आदर्श पेश कर रहा है कि अकेले यहीं गरीब से गरीब आदमी का लोकतंत्र से जुड़ाव और उसमें भरोसा बढ़ता जा रहा है। हमारा शहरी, पढ़ा-लिखा और अगड़ा वर्ग अगर कुछ हद तक लोकतंत्र से उदासीन हुआ है, तो कमजोर, गरीब, ग्रामीण और पिछड़ा-दलित-आदिवासी समाज उससे कई गुना ज्यादा सक्रिय-सचेत होकर आगे आया है।
बल्कि लोहिया के एक मंत्र- ‘पिछड़े पावें सौ में साठ’ ने मंडल आयोग की रिपोर्ट के मार्फत मुल्क की राजनीति में पूरा उथल-पुथल कर दिया। संसद का, कैबिनेट का, विधान सभाओं से लेकर ग्राम पंचायतों तक का रंग-रूप ही बदल गया है। पंचायतों में पचास फीसदी से ज्यादा औरतों का होना किसी क्रांति से कम नहीं है- उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में एक दलित की बेटी का अपने दम पर मुख्यमंत्री बनना साधारण चीज है क्या? अब मायावती, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, शरद यादव जैसे पिछड़े नेताओं का मूल्यांकन भी होना चाहिए, पर बिहार जैसे राज्य में बतीस वर्षों से निरंतर पिछड़ा मुख्यमंत्री रहना साधारण चीज नहीं है। अगर लोहिया के सहयोगी किशन पटनायक की बातों के हिसाब से मूल्यांकन करें, तो समाज में मंडल से सामने आई शक्तियों ने भूमंडलीकरण-उदारीकरण के नाम पर आए बाजार से मुकाबला भले ही नहीं किया हो, पर इतना साफ दिखता है कि उनके कमजोर पड़ते ही सांप्रदायिक ताकतें मुल्क पर काबिज हुई हैं।
डॉ लोहिया और उनकी राजनीति की याद सिर्फ लोकतंत्र के मजबूत होने और सामाजिक न्याय के चलते उभरी नई सामाजिक शक्तियों के संदर्भ भर में ही नहीं आती। सचमुच ऐसे सैकड़ों मुद्दे हैं- जीवन से जुड़े कई पक्ष हैं, जिनमें लोहिया के कामों और कथनों की याद आती है- पश्चिम की आर्थिक गुलामी से ज्यादा सांस्कृतिक गुलामी, भाषा के सवाल से लेकर लैंगिक समानता और भारतीय परंपरा की नई व्याख्याओं तक असंख्य ऐसी चीजें हैं, जो लोहिया की याद दिलाती हैं- उनकी सोच और कथन के माध्यम से नए तरह से समझ आती हैं। आज उत्तर-उपनिवेशवाद के नाम से अकादमिक जगत में जो पूरी धारा चल पड़ी है, उसे लोहिया के तीन-चार भाषणों से ज्यादा अच्छी तरह समझा जा सकता है।
लोहिया के विचारों और व्यक्तित्व की बनावट पर गौर करने से कुछ बहुत ही बुनियादी चीजों में वे बाकी सबसे अलग और बेहतर लगते हैं और यही कारण है कि ‘उपलब्धियों’ में लगभग शून्य होने के बावजूद लोहिया आज अपनी मौत के चौवन साल बाद भी पहले से ज्यादा प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हो गए लगते हैं। इस बीच उनका भौतिक शरीर ही नहीं गायब हुआ है, उनकी पार्टी, उनका संगठन भी गायब हुआ है। उनके शिष्यों में नालायकी करने की होड़ सी लगी रही है, पर डॉक्टर साहब ज्यादा बड़े होकर उभरते गए हैं।
राममनोहर लोहिया अपने बारे में ज्यादा कुछ बताना पसंद नहीं करते थे। उनके बारे में ज्यादा अच्छे शोध भी नहीं हुए हैं, जिससे उनके व्यक्तित्व की बनावट का ज्यादा अच्छा परिचय मिलता। इतना कहने में हर्ज नहीं है कि चाणक्य से लेकर मैकियावेली और मार्क्स-माओ तक जिस राजनीति में ‘सब कुछ जायज’ की बुनियादी मान्यता पर ही अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, उसमें बुद्ध, महात्मा गांधी और लोहिया जैसे हमारे दार्शनिक-राजनेता मूलत: नैतिकता की स्थापना की लड़ाई ही लड़ते हैं। लोहिया खुद को संत, पैगंबर, दार्शनिक कहलवाना पसंद नहीं करते थे। वे खुद को राजनीतिक कार्यकर्त्ता मानते थे। सत्ता की लड़ाई में पूरे दमखम के साथ आजीवन जुड़े रहे- इस मामले में लाभ या पद की बात छोड़कर बाकी ‘समझौते’ भी किए। समझौतों का सिलसिला गांधी-सुभाष के टकराव से लेकर 1967 के चुनाव और कांग्रेसवाद तक आता है। इन चीजों को उन्होंने कभी छुपाया भी नहीं। बल्कि उन्हें अंबेडकर से, कई बार समाजवादी आंदोलन के दूसरे धड़ों से समझौते न हो पाने पर अफसोस भी हुआ, पर लोहिया ने जीवन में कभी भी विचारों से या सत्ता और लाभ के लिए समझौता नहीं किया। वे कुछ स्पष्ट सिद्धांतों के लिए जीवन भर लड़ते रहे और अपनी ही पार्टी की सरकार को गंवाने का भी अफसोस नहीं किया। कांग्रेस में रहते हुए भी उन्होंने तबकी संयुक्त प्रांत सरकार द्वारा गोली चलवाने की आलोचना की थी।
समता, अहिंसा और करुणा डॉक्टर लोहिया के चिंतन और कर्म के केन्द्रीय तत्व हैं। कोई चाहे तो उनके समाजवाद को भी पश्चिम के समाजवाद के एक रूप के तौर पर मान सकता है, पर बिना भारतीयता को जाने, बिना धर्म के आधार को जाने, बिना ऋषियों से लेकर महावीर, बुद्ध, शंकराचार्य और विवेकानंद को जाने आप लोहिया को (और उस अर्थ में गांधी और जेपी वगैरह को भी) नहीं समझ सकते। डॉक्टर साहब ने ‘राजनीति अल्पकालिक धर्म है और धर्म दीर्घकालिक राजनीति है’ जैसा अद्भुत सूत्र वाक्य सिर्फ स्वयं को सार्थक और अलग बताने भर के लिए ही नहीं दिया था।
करुणा ही वह केंद्रीय तत्व है, जो डॉक्टर लोहिया (और उन जैसे दार्शनिकों-नेताओं) को जीवन भर संघर्ष करने और कभी शांत न बैठने देने के लिए प्रेरित करती रही। अगर कमजोर, बेजुबान और गरीब लोगों के प्रति उनके मन में करुणा न होती तो वे भी सुख चैन का जीवन जीते, सत्ता में जाते, प्रोफेसरी पाते। यही करुणा डॉक्टर लोहिया को बुद्ध, महावीर, मोहम्मद, शंकराचार्य, गांधी की पंरपरा से तो जोड़ती ही है, उनके एशियााई समाजवादी दर्शन का आधार भी तैयार करती है। डॉक्टर लोहिया की साथी इंदुमति केलकर एशियाई समाजवादी जलसे में हुई नौटंकी (जिसको लेकर डॉक्टर लोहिया पहले बहुत उत्साहित थे) को ‘एशियाई भ्रम’ घोषित करती हैं, स्वयं लोहिया भी बाद में इससे विरक्त हो गए थे, पर लोहिया की सोच और मार्क्स की परंपरा वाली समाजवादी सोच में बहुत बड़ा अंतर है।
करुणा का ही वास्तविक और ठोस रूप अहिंसा है। डॉक्टर लोहिया पूर्ण अहिंसा में विश्वास करते थे- किसी की जान लेना उनकी नजर में सबसे बड़ा गुनाह था और इस बात को व्यावहारिक राजनीति, राजनीतिक संघर्षों से लेकर फौज तक पर उतारते हुए वे सारे संहारक अस्त्रों और फौज की समाप्ति की वकालत भी करते थे। असल में वे हिंसा को कमजोरों का हथियार मानते ही नहीं थे- उन्हें लगता था कि किसी भी स्थिति में कमजोरों की हिंसा अंतत: उसका नुकसान ही करेगी, क्योंकि ताकतवर वर्ग या संगठित शक्ति वाले शासन को इससे ज्यादा हिंसा करने का बहाना मिल जाता है। व्यावहारिक राजनीति के चलते उन्हें खुद कई बार ऐसी स्थितियों का सामना करना पड़ा, जिसमें उनकी जान जा सकती थी, पर कभी भी उन्होंने अपनी इस मान्यता पर शक नहीं किया।
लोहिया के व्यक्तित्व के बुनियादी तत्वों में एक निर्भीकता भी थी। इस निर्भीकता में उनकी स्वतंत्रता, खासकर बौद्धिक स्वतंत्रता की चाह का भी अपना योगदान है, जो उनके लिए एक केन्द्रीय मूल्य थी। इसी के चलते उन्हें हिन्दुस्तान ही नहीं, अपनी पहुंच वाली दुनिया में जहां कहीं भी, जिस भी रूप में अन्याय या गलती दिखाई दी, उसके खिलाफ आवाज उठाने में वे नहीं चूके। विद्यार्थी जीवन में ही जर्मनी में भारत की ओर से आए बीकानेर महाराज की गलतबयानी पर सीटी बजाकर विरोध करना हो या अमेरिका जाकर सत्याग्रह करना हो, गोवा की मुक्ति के लिए तनी बंदूक के आगे मुस्कुराते हुए खड़ा होना हो या नेपाल तथा पूर्वोत्तर भारत में परमिट से यात्रा करने का विरोध करते हुए जेल जाना हो, हर मामले में उनकी बौद्धिक स्वतंत्रता और निर्भीकता ही आधार दिखाई देती है।
अब यह निर्भीकता या इतनी अधिक निर्भीकता कहां से आई, यह जानना भी दिलचस्प होगा। कह सकते हैं कि लोहिया सामान्य सुखों, सत्ता की लिप्सा या भोग जैसी कमजोरियों से ऊपर थे, इसीलिए इतने निर्भीक थे। कई लोग इसे निष्काम कर्म का दर्शन कह सकते हैं- उसी निष्काम कर्म का दर्शन, जो गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को समझाया था। 1952 के बाद से हर चुनाव में अपने दल की पराजय, अपनी आलोचना, पार्टी में टूट-फूट और जेल-पिटाई जैसी सारी मुश्किलों को झेलते हुए हर बार निराशा का एक भी लक्षण दिखाए बिना लोहिया जिस तरह से अपने काम में लगे रहे, उसे कृष्ण के उपदेश भर से नहीं समझा जा सकता। उन्होंने जब अपना सबसे विलक्षण और उत्साहजनक भाषण (पचमढ़ी वाला) दिया, तो वह 1952 की उस पराजय के ठीक बाद का समय था, जिसके चलते जेपी राजनीति से संन्यास लेने की राह पर चल पड़े थे।
असल में लोहिया न तो कर्म फलवाद में भरोसा करते थे, न निष्काम कर्म में। उनका स्पष्ट मानना था कि कामनारहित कर्म मुश्किल है- वे कामना वाले कर्म को दूषित मानते थे। सो उन्होंने निराश रहने और कर्तव्य करने का सिद्धांत दिया- निराशा के कर्तव्य। राष्ट्रीय निराशा (बुद्ध-महावीर-शंकराचार्य के बाद अंदरूनी अन्याय के खिलाफ 1500 वर्षों में कभी विद्रोह न करना), अंतरराष्ट्रीय निराशा (मशीनों में पश्चिम की बढ़त, अंतरराष्ट्रीय जमींदारी, पैदावार में और बराबरी, दिमागी साम्राज्यवाद और दामों में साम्राज्यशाही के खिलाफ बगावत न करना) और मानवीय निराशा (अन्याय से लड़ाई और न्याय के निर्माण में संतुलन न रहना) की विशद व्याख्या के साथ उन्होंने अपने लिए और अपने साथियों के लिए स्पष्ट लक्ष्य बनाए। अब उनके साथियों और शिष्यों में से किसने इन पर कितना अमल किया, यह अलग मूल्यांकन की चीज है, लेकिन लोहिया ने अपने जीवन भर जो कुछ किया, जो सहा और जिस तरह से हंस- हंसकर जीवन जिया, उसके मूल में यही दर्शन है और यही उनकी निर्भीकता का असली स्रोत है।
वे मानते थे कि हिन्दुस्तान का दिमाग 1000-1500 साल से जड़ है। शंकराचार्य के बाद वे गांधी को पहला मौलिक चिंतक मानते थे। तुलसी-कबीर में वे सिर्फ अनुभूतियों की तीव्रता पाते थे- मौलिक चिंतन नहीं। उनका मानना था कि भारत की आंतरिक जड़ता और पराधीनता के खिलाफ एक वास्तविक सुगबुगाहट स्वामी विवेकानंद में दिखाई देती है, जो तिलक से होते हुए गांधी तक प्रबल हुई। लोहिया ने गांधी के मूल्यांकन और उनके नजरिये से असहमति व्यक्त करने में भी कोई कंजूसी नहीं की है। गांधी के जीवन के आखिरी आठ-दस वर्षों में लोहिया उनके काफी करीब भी आ गए थे, लेकिन गांधी से इस दूरी-नजदीकी को दर्शन, कर्म और सोच के मामले में दोनों के बीच के रिश्ते से नहीं समझा जा सकता। लोहिया अपने दर्शन को मार्क्स और गांधी की आलोचना के बीच लाने की कोशिश करते हैं, पर असल में हम गांधी के बिना लोहिया को समझ ही नहीं सकते, क्योंकि अक्सर डॉक्टर साहब ने अपनी बातों को गांधी के विस्तार के तौर पर ही रखा है।
लोहिया की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण किताब है ‘इतिहास चक्र’। यह उनके समस्त दर्शन और चिंतन की विराटता की झलक देती है। इसी में से वे सात सूत्र निकलते हैं, जो डॉक्टर साहब ने एथेंस के अपने भाषण में रखे और जिसे हम सप्तक्रांति कहते हैं। जेपी ने भी अपनी संपूर्ण क्रांति को इसी सप्तक्रांति पर आधारित माना था। इतिहास की गति, वर्ण-वर्ग, सभ्यता, संस्कृति, जड़-चेतन, प्रकृति-पुरुष जैसे बुनियादी सवालों पर विचार करते हुए वे अपने समय और साथियों के लिए कुछ सूत्र निकालते हैं। इस किताब की तुलना गांधी की किताब ‘हिन्द स्वराज’ से की जा सकती है, पर हिन्द स्वराज को पढ़े बगैर लोहिया की मार्क्स या पश्चिमी दर्शन की आलोचना को समझने में थोड़ी दिक्कत होगी।
असल में लोहिया की राजनीति को सामान्य नेता, दार्शनिक या विद्वान वाली कसौटियों के आधार पर जाना ही नहीं जा सकता। अगर इन पैमानों को अपनाया जाएगा, तो सत्ता की राजनीति में जमकर हिस्सा लेने वाले, जीवन भर बेचैनी भरी राजनीति करने वाले लोहिया का कोई भी तत्व समझ में नहीं आएगा। ऊपर जिन तत्वों की चर्चा की गयी है, उनको भी मात्र दर्शन, अकादमिक विद्वता या राजनीति के अखाड़े की चीज नहीं माना जा सकता। सत्य-अहिंसा का गांधीवादी प्रयोग सत्याग्रह और सत्य में ईश्वर के दर्शन तक गया- इसे किस पैमाने से जांचा जा सकता था? लोहिया ईश्वर को नहीं मानते थे- सत्य को ईश्वर का रूप नहीं मानते थे- भूख हड़ताल को नौटंकी बताते थे, लेकिन सत्याग्रह के नए रूप सिविल नाफरमानी का भरपूर उपयोग उन्होंने किया।
लोहिया मात्र इसी मामले में अपने को गांधी का अनुयायी मानते थे, नैतिकता और आध्यात्मिकता को जोड़ऩे के चलते। असल में यही चीज हमारे इन दो महापुरुषों के पूरे काम काज और समझ का केन्द्रीय तत्व है। लोहिया निरंतर आध्यात्मिकता और नैतिकता के बीच, श्रेय और प्रेय के बीच पुल बनाने के प्रयास में लगे रहे। वे मानते थे कि आध्यात्मिकता शाश्वत है लेकिन हर युवा को, हर समाज को, हर व्यक्ति को अपनी नैतिकता स्वयं खोजनी पड़ती है। वे भारतीय समाज को बार-बार जड़ (खासकर जाति व्यवस्था के चलते) इसलिए कहते थे कि हजार वर्षों से इसने अपने लिए नैतिकता नहीं ढूंढ़ी है। उनके लिए नैतिकता का अर्थ मनुष्य और मनुष्य के बीच संबंधों का नियमन है- वे जाति व्यवस्था को भी ऐसे नियमन का प्रतिफल मानते थे, जिसने बदलाव का बुनियादी काम बंद कर दिया। इसी के चलते जाति व्यवस्था आध्यात्मिकता की विरोधी बन गई- सो बुद्ध से लेकर शंकर तक जिस भी मनीषी ने इस चीज को समझा, उसे जाति व्यवस्था से मुश्किलें आईं। इसमें बुद्ध एक स्तर पर जाति से हारे, लेकिन शंकर ने द्वंद्व को स्थायी बनाकर परिहार किया- अद्वैत की प्रतिष्ठा उसी का फल थी, लेकिन इसमें कर्मफलवाद और यथास्थिति का समर्थन भी आया। गांधी ने इसे तोड़ा- जाहिर तौर पर लोहिया अपने लिए इसी काम को आगे बढ़ाना मुख्य मानते थे- ऐसी नैतिकता की खोज जो आध्यात्मिकता के अनुरूप हो।
व्यवहार में हम पाते हैं कि गांधी के लंबे सामाजिक-राजनैतिक जीवन में इस द्वंद्व को तोड़ऩे के प्रयासों में कोई व्यतिक्रम नहीं आया है- 1942 की हिंसा को एक हद तक समर्थन देने और चौरी-चौरा की हिंसा के बाद असहयोग आंदोलन रोकने जैसे एकाध अपवाद को छोड़कर। लोहिया को लगता था कि इसी द्वंद्व का निपटारा न होने से भारत बार-बार हारा है (अब इस चीज को हम लोहिया के प्रबल राष्ट्रवाद या भारत प्रेम से भी जोड़ सकते हैं)। नैतिक मूल्यों और नियमों के अभाव में भारतीय आध्यात्मिकता स्वयं अपनी रक्षा करने में असमर्थ रही है। भारतीय चरित्र मारना ही नहीं, स्वेच्छा से मरना भी भूल गया है। वह मजबूरी की मौत को बिना विरोध स्वीकार करना सीख गया है, जो असल में हीनता है। एक ओर जीव दया के नाम पर काफी नाटक होते हैं, तो धोखा देना भी कुछ लोग सीख गए हैं। अपने बराबर या अपने से मजबूत से लड़ऩा और मरना-मारना हम भूल गए हैं। भारत के लोग जब तक अन्याय और ताकतवर से लड़ऩा और स्वेच्छा से मरना नहीं सीखेंगे, कुछ नहीं हो सकता।
डॉक्टर लोहिया ने किसी अन्य चीज की तुलना में स्वेच्छा से मरना और अन्याय से लड़ऩा सीखा। यही करते हुए वे छोटी उम्र में ही मरे, लेकिन उनकी लड़ाई, उनके द्वारा बनाए नियम और की गई बीमारी की पहचान इतनी सही है कि अभी आने वाले लंबे समय तक वे न सिर्फ प्रासंगिक रहेंगे, बल्कि जिंदा भी रहेंगे।
-अरविन्द मोहन
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