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लोकतंत्र से खेलता बाज़ार और उसके खतरे

जो राजनीतिक दल आम जनता के पक्ष में काम करते हैं, उन्हें बाजार की शक्तियां धीरे-धीरे राजनीति की मुख्यधारा से विस्थापित करने की कोशिश करती हैं और जो बाजार के पक्ष में काम करते हैं, उन्हें बाजार की शक्तियां धीरे-धीरे राजनीति की मुख्यधारा में स्थापित करने की कोशिश करती हैं।

भारतीय लोकतंत्र एक खतरनाक मोड़ पर खड़ा है। जेपी आंदोलन के बाद भारतीय लोकतंत्र के तीनों स्तम्भ, राजनीतिक दल, अफसरशाही और बाजार की ताकतें सतर्क हो चुकी हैं। उनके मन में यह डर समा चुका है कि अगर इसी तरह भारतीय जनता जन आंदोलनों के माध्यम से सरकार के काम करने की दिशा तय करती रही तो बाजार, अफसरशाही और मीडिया के हाथ में कुछ नहीं रह जायेगा। वे भारत में भी पश्चिम की तरह का लोकतंत्र चाहते हैं, जहां चुनाव में वोट देने के अलावा नागरिकों के पास सरकार संबंधी कोई जिम्मेदारी नहीं रह जाती। वहां सरकार की नीतियां तय करने का काम बाजार करता है। अफसरशाही कानून बनाने का काम करती है। वहां के लोकतंत्र में सरकार ही अंतिम सत्य है। वहां सरकार जो कानून बनाती है, उसका अनुपालन वहां के नागरिकों को करना पड़ता है। ऐसा इसलिए संभव है क्योंकि वहां नागरिक और सरकार के अलावा तीसरा कोई स्वतंत्र और मजबूत नागरिक-संगठन नहीं है, जिसकी जनमत पर मजबूत पकड़ हो। वहां नागरिकों की इकाई राष्ट्र है।

भारतीय लोकतंत्र में परंपरा से चले आ रहे सामाजिक संगठनों के रूप में परिवार, जाति और धर्मके अलावा कई प्रकार के दूसरे सामाजिक संगठन भी हैं, जो सरकार की नीतियों पर सतर्क निगाह रखते हैं और उनकी भारतीय जनमत पर काफी पकड़ है। इसके अलावा आर्थिक क्षेत्र में पश्चिमी शैली के संगठित बाजार तंत्र के अलावा जनता के बीच असंगठित और परंपरागत स्वरूप में आर्थिक शक्तियां भी काम करती हैं। वे भी सरकारी नीतियों को काफी हद तक प्रभावित करती हैं।

भारतीय लोकतंत्र में भी नागरिकों की मूल इकाई राष्ट्र को माना गया है। यहां भी एक मजबूत अफसरशाही और उभरता हुआ बाजार तंत्र है। वह बिलकुल नहीं चाहता कि भारतीय जनता जन आंदोलनों के माध्यम से सरकार की नीतियां प्रभावित करती रहे। इसलिए अफसरशाही और संगठित बाजारतंत्र निरंतर ऐसा कानून बनाने की कोशिश में रहते हैं, जिससे भारतीय नागरिक राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना बंद कर दें।

किसी जमाने में बाजार नागरिकों की मांग की आपूर्ति का माध्यम भर था। परंतु आज बाजार उपभोक्ता वस्तुओं का एकमात्र उत्पादक भी है। उत्पादन के सभी संसाधनों पर बाजार का कब्जा है। नागरिक उपभोक्ता मात्र हैं। उत्पादन के साधन के रूप में जो कुछ खेती की जमीन अभी किसानों के पास बची है, उसे भी बाजार द्वारा छीनने की प्रक्रिया जारी है।

लोकतंत्र में चुनाव लाजिमी है। राजनीतिक दलों को चुनाव के समय जनता के पास जाना पड़ता है और जनता के असंतोष और आक्रोश का सामना करना पड़ता है। जबकि बाजार तंत्र और अफसरशाही को ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता। चुनाव के वक्त राजनैतिक दलों को पैसे की जरूरत पड़ती है। वह बाजार की ताकतों से प्राप्त होता है। आम जनता के वोट और बाजार तंत्र के पैसे के बल पर राजनीतिक दल सत्ता में जाते हैं। राजनैतिक दलों को आम जनता और बाजार तंत्र के बीच संतुलन साधना पड़ता है. जनता और बाज़ार के हितों के बीच विरोध है। अगर राजनीतिक दल जनता के हित में निर्णय लेता है तो वह बाजार तंत्र के हित के विरोध में जाता है और अगर वह बाजार तंत्र के हित में निर्णय लेता है तो वह आम जनता के विरोध में जाता है। इस सिलसिले में राजनैतिक दलों को संतुलन के कठिन दौर से गुजरना पड़ता है।

जो राजनीतिक दल आम जनता के पक्ष में काम करते हैं, उन्हें बाजार की शक्तियां धीरे-धीरे राजनीति की मुख्यधारा से विस्थापित करने की कोशिश करती हैं और जो राजनीतिक दल बाजार के पक्ष में काम करते हैं, उन्हें बाजार की शक्तियां धीरे-धीरे राजनीति की मुख्यधारा में स्थापित करने की कोशिश करती हैं। मीडिया किसी जमाने में जनता के हितों के संरक्षक के रूप में काम करती थी, परंतु आज मीडिया बाजार के पक्ष में खड़ी है। वह अपनी साख बचाने के लिए जितना जरूरी है, उतना ही जनता के पक्ष में बोलती है।

अगर भारतीय लोकतंत्र को बचाना है तो जाग्रत जनमत का होना बहुत जरूरी है। उसके लिए हर गांव में लोकतांत्रिक ढांचा खड़ा करना होगा। नागरिकों के संगठन के रूप में गांव को विकसित करना होगा। गांव की निर्णय प्रक्रिया में सर्वसम्मति को स्थान देना होगा। अन्यथा, गांव निरंतर फूट का शिकार होता रहेगा। गांव के नागरिकों की भूख की समस्या के हल के लिए उन्हें बाजार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। गांव के नागरिकों को अपने गांव में स्वावलंबी अर्थव्यवस्था विकसित करनी होगी। गांव के हर नागरिक को उपभोक्ता के साथ-साथ उत्पादक भी बनाना पड़ेगा और गांव में प्राप्त संसाधनों से अपनी जरूरत की वस्तुओं को पैदा करना पड़ेगा। इस सारी व्यवस्था को चलाने के लिए ग्राम संसद स्थापित करनी पड़ेगी। गांव के हर बालिग इस सभा के सदस्य होंगे। गांव के हर झगड़े और झंझट का फैसला गांव में ही करना पड़ेगा। गांव की शांति व्यवस्था की जिम्मेदारी ग्राम संसद लेगी। स्वावलंबी अर्थनीति विकसित होने पर ही गांव बाजार की तानाशाही से मुक्त होगा। जब ग्रामसभा गांव में शांति व्यवस्था की जिम्मेवारी अपने ऊपर लेगी, तो अफसरशाही को कानून बनाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। गांव, बाजार और अफसरशाही के हस्तक्षेप से मुक्त होगा। तब गांव एक ठोस, स्वतंत्र एवं स्वावलंबी नागरिकों का संगठन बनेगा और नागरिकों के जाग्रत जनमत को शक्ति मिलेगी।

अगर देश के हर गांव में ऐसा लोकतांत्रिक ढांचा खड़ा हो सके, तब बनेगा संगठित गांवों का संगठित राष्ट्र। तब उसकी आवाज दिल्ली की सरकार भी अनसुनी नहीं कर पायेगी और सरकार की नीतियों पर संगठित, मजबूत व जाग्रत जनमत का नियंत्रण रहेगा।

अगर भरतीय जनमत को ग्राम स्तर पर संगठित नहीं किया गया तो भारतीय लोकतंत्र का बिखरा और कमजोर जनमत, पश्चिमी लोकतंत्र की तरह बाजार की शक्तियों का निवाला बनता रहेगा और राजनैतिक दल भी बाजार की शक्तियों के हितों का संरक्षण करने लगेंगे। तब भारत में भी लोकतंत्र अपना मूल अर्थ खो देगा।

-सतीश नारायण

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