आत्मनिर्भर भारत का रास्ता खादी और ग्रामोद्योग से होकर जाता है। मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में वस्त्र यद्यपि दूसरी जरूरत है, परंतु बिना वस्त्र के भोजन भी प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिए सभ्यता की दृष्टि से यह प्राथमिक जरूरत है। भारत में कृषि के बाद सर्वाधिक रोजगार देने वाला वस्त्र उद्योग ही है। भारत ने दुनिया को वस्त्र कला का ज्ञान दिया। जब वस्त्र उद्योग का यंत्रीकरण नहीं हुआ था, तब भारत के गांव गांव में वस्त्र बनाए जाते थे। गांव अपनी हस्तकला से जाने जाते थे। आधुनिक भाषा में कहें तो वस्त्र हमारे गांवों का ब्रांड था।
गुलाम भारत में वस्त्र उद्योग
अंग्रेजों के आगमन के बाद वस्त्र उद्योग का यंत्रीकरण शुरू हुआ। यहां की वस्त्र कला से अंग्रेज चमत्कृत थे। अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए अंग्रेजों ने भारत के ग्रामीण उद्योग धंधों को नष्ट करना शुरू किया। परिणाम यह हुआ कि जो गांव अपनी जरूरतों के लिए स्वावलंबी थे, वे धीरे-धीरे परावलंबी हो गये।
गांधी और खादी
आजादी के आंदोलन में जब महात्मा गांधी का पदार्पण हुआ, तब उन्होंने भारत के गांवों की दुर्दशा को नजदीक से देखा। उनके पहले दादा भाई नौरोजी यह लिख चुके थे कि अंग्रेज ऐसी गाय है, जो चारा भारत में खाती है और दूध इंग्लैंड में देती है। गांधीजी ने भारत के गांवों को आत्मनिर्भर बनाने के उद्देश्य से खादी का पुनरुद्धार किया। इस सामान्य से वस्त्र में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, असंग्रह, शरीर श्रम, अस्वाद, सर्वत्र भय वर्जन, सर्वधर्मसमानत्व, स्वदेशी, स्पर्श भावना जैसे आध्यात्मिक भाव रोपे और इन भावों को अपने आचरण से ऊंचाई प्रदान की। उन्होंने अखिल भारत चरखा संघ द्वारा 15 हजार गांवों में चार करोड़ रुपये की मजदूरी पहुंचाई।
खादी तथा ग्रामोद्योग आयोग
आजादी के बाद सन 1956 में भारत सरकार ने खादी तथा ग्रामोद्योग आयोग की स्थापना की। इसका मुख्य उद्देश्य गांवों को आर्थिक मजबूती प्रदान करने के साथ साथ ग्राम स्वराज्य को पुष्ट करना था। आजादी के पहले से खादी क्षेत्र में काम कर रही खादी संस्थाओं ने अपने आपको खादी ग्रामोद्योग आयोग से संबद्ध कर लिया। परंपरागत खादी को उन्नत चरखे और उन्नत करघे ने आधुनिक बना दिया। खादी संस्थाओं और खादी आयोग ने मिलकर लाखों लोगों को रोजगार प्रदान किया। जब देश ने 1992 में वैश्विक अर्थव्यवस्था में प्रवेश किया, उसके बाद से खादी के दुर्दिन शुरू हो गये। असीमित पूंजी के प्रवाह में ग्रामीण और कुटीर उद्योग अप्रासंगिक होते चले गये। सरकार से मिलने वाली तमाम तरह की सहायता बंद कर दी गयी। खादी को नयी चाल में ढालने के लिए खादी रिफॉर्म के अंतर्गत 1000 करोड़ का बजट रखा गया, परंतु इससे कोई लाभ नहीं हुआ। खादी की कीमतें बढती चली गयीं, उस तुलना में रोजगार नहीं बढ़ा। खादी संस्थाओं को समय पर सहायता नहीं मिलने से स्टॉक का ढेर लगता गया और संस्थाएं लगातार घाटे में चली गयीं।
खादी ग्रामोद्योग आयोग का शिकंजा
आजादी के आंदोलन में जो खादी स्वतंत्रता का प्रतीक थी, वह आज गुलामी के शिकंजे में है। जब खादी ग्रामोद्योग आयोग अस्तित्व में नहीं था, तब से खादी संस्थाएं देश में काम कर रही हैं। आजादी के बाद खादी संस्थाएं जब खादी आयोग के साथ जुड़ीं, तब नियमों के कारण उन्होंने अपनी संपत्ति खादी आयोग के पास बंधक रख दी। इसके बदले उन्हें नाम मात्र की आर्थिक सहायता दी गयी। आज इन संपत्तियों का मूल्य हजारों करोड़ में है, जबकि खादी आयोग ने मात्र 2000 करोड़ का ऋण दिया है।
खादी मार्का- 2013
जब खादी क्षेत्र में नकली खादी का चलन बढ़ गया, तब भारत सरकार ने खादी मार्का रेगुलेशन एक्ट पारित किया। देश में काम करने वाली खादी संस्थाओं को खादी मार्का लेना अनिवार्य कर दिया गया। खादी मार्का की आड़ में देश भर में मिल का कपड़ा ही चलन में आ गया है। जिन खादी संस्थाओं ने खादी मार्का नहीं लिया है और खादी का उत्पादन तथा विक्रय कर रही हैं, उन संस्थाओं पर खादी आयोग कार्रवाई कर रहा है। उन्हें खादी शब्द का उपयोग करने से रोक रहा है। महात्मा गांधी द्वारा स्थापित सेवाग्राम आश्रम के खादी भंडार को खादी आयोग ने इसी प्रकार का नोटिस पिछले दिनों जारी किया है। विकेंद्रीकरण व्यवस्था की प्रतीक खादी का केंद्रीकरण कर दिया गया है।
खादी रक्षा अभियान
खादी ग्रामोद्योग आयोग से मुक्ति के लिए विनोबाजी द्वारा स्थापित खादी मिशन सन 2010 से खादी रक्षा अभियान चला रहा है। इस अभियान की मांग है कि खादी संस्थाओं को दिया गया सभी प्रकार का ऋण माफ किया जाए। खादी संस्थाओं को ऋण से अधिक संपत्ति के दस्तावेज वापस लौटाए जाएं। खादी संस्थाओं को मार्केटिंग डेवलपमेंट असिसटेंस (एमडीए) की बकाया राशि का अविलंब भुगतान किया जाए। खादी ग्रामोद्योग आयोग इन मांगों को पूरा करने के लिए गंभीर नहीं है। उल्टे वह खादी संस्थाओं को अनेक प्रकार से परेशान कर रहा है। ऐसी स्थिति में खादी संस्थाओं को अगला कदम उठाने के लिए तैयार रहना होगा।
खादी का विकल्प : लोकवस्त्र
खादी ग्रामोद्योग आयोग और खादी मार्का से मुक्ति के लिए खादी संस्थाओं को ‘लोकवस्त्र’ नाम अपना लेना चाहिए। इस नाम परिवर्तन से खादी संस्थाएं अनेक प्रकार के बंधनों से छूट जाएंगी। विनोबाजी ने खादी कमीशन से मुक्त खादी को ‘लोकवस्त्र’ नाम दिया था। यह लोकवस्त्र स्वावलंबी आधार पर कार्य करने वाली संस्थाओं के लिए संजीवनी का काम करेगा। इस लोकवस्त्र की संपूर्ण क्रिया विधि हाथ कताई और हाथ बुनाई पर आधारित होगी। ग्राम स्वावलंबन के हित में लोकवस्त्र बनाने के लिए उपयुक्त तकनीक का उपयोग किया जा सकेगा।
खादी ग्रामोद्योग आयोग ने महात्मा गांधी द्वारा बनाए गये लागत पत्रक को समाप्त कर दिया है। खादी मिशन द्वारा लोकवस्त्र का लागत पत्रक तैयार कर लोकवस्त्र बनाने वाली संस्थाओं को दिया जाए। खादी मिशन की ओर से गठित समिति लोकवस्त्र बनाने वाली संस्थाओं को प्रमाण पत्र जारी करे। आज प्रमाण पत्र के लिए जितनी राशि का भुगतान खादी आयोग को करते हैं, खादी संस्थाएं उतनी या उससे कम राशि खादी मिशन को भुगतान करें। वर्तमान में देश में लगभग 3500 प्रमाणित खादी संस्थाएं हैं। यदि इनमें से 10 प्रतिशत खादी संस्थाएं लोकवस्त्र के विचार को अपना लेती हैं, तो ग्राम स्वावलंबन की दिशा में यह क्रांतिकारी कदम होगा।
खादी संस्थाएं
स्वयं को लोकवस्त्र संस्था में परिवर्तित कर लेने पर खादी कमीशन के शिकंजे से छूट सकती हैं। अभी खादी नाम को लेकर खादी कमीशन जो कार्रवाई कर रहा है, पत्र भेज रहा है, संपत्ति बंधक रखे हुए है, ऋण माफ नहीं कर रहा है, उन सभी से मुक्ति की राह निकल सकती है। ये संस्थाएं पारदर्शिता के साथ अपनी जानकारियां और समस्याएं खादी मिशन के साथ साझा करेंगी। यह अखिल भारत चरखा संघ का नवसंस्करण होगा। खादी कमीशन को स्पष्ट रूप से लिख दिया जाए कि चूंकि हम खादी शब्द का उपयोग नहीं करते, इसलिए हमें खादी मार्का वगैरह लेने की जरूरत नहीं है। विनोबा जी की व्याख्या के अनुसार लोकवस्त्र को परिभाषित किया जाए। संस्था स्वावलंबन से ग्रामस्वावलंबन यह लोकवस्त्र की टैग लाइन होगी। खादी के विशेषज्ञ गंभीरतापूर्वक विचार कर आजादी के अमृत महोत्सव से इसकी शुरुआत करें।
लोकवस्त्र महोत्सव भी अतिशीघ्र आयोजित किया जाए। लोकवस्त्र शब्द को रजिस्टर भी कराना चाहिए। इसके बाद अपनी बात जीएसटी काउंसिल के सामने रखनी चाहिए। लोकवस्त्र का एक लोगो भी होगा, जिससे इसकी खादी से भिन्न पहचान बनेगी। इसमें निजी क्षेत्र को जोड़ते हुए कार्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के अंतर्गत मिलने वाली सहायता को लेने से परहेज नहीं करना चाहिए। लोकवस्त्र का कार्य करने वाली संस्थाएं खादी मिशन के प्रति जिम्मेदार हों, न कि खादी आयोग के प्रति।
संस्थाएं अपने विधान में लोकवस्त्र को जोड़ने का प्रयास करें, खादी भवन और भण्डारों का नामकरण लोकवस्त्र भण्डार अथवा भवन किया जा सकता है। इससे जो लोक की सच्ची सेवा कर रहे हैं, उन्हें प्रतिष्ठा के साथ आत्मिक संतोष भी होगा। लोकवस्त्र से खादी की पुन: प्राण प्रतिष्ठा होगी।
-डॉ पुष्पेन्द्र दुबे
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