सुबह मैं काशी उतरा। मैं किसी पण्डे के यहां उतरना चाहता था। कई ब्राह्मणों ने मुझे चारों ओर से घेर लिया। उनमें से जो मुझे साफ-सुथरा दिखाई दिया, उसके घर जाना मैंने पसन्द किया। मेरी पसन्दगी ठीक निकली। ब्राह्मण के आंगन में गाय बंधी थी। घर दुमंजिला था। ऊपर मुझे ठहराया। मैं यथाविधि गंगा स्नान करना चाहता था। और तब तक निराहार रहना चाहता था। पण्डे ने सारी तैयारी कर दी। मैंने पहले से कह रखा था कि सवा रुपये से अधिक दक्षिणा मैं नहीं दे सकूगा, इसलिए उसी योग्य तैयारी करना। पण्डे ने बिना किसी झगड़े के मेरी बात मान ली। कहा- “हम तो क्या गरीब और क्या अमीर, सबसे एक-सी ही पूजा करवाते हैं। यजमान अपनी इच्छा और श्रद्धा के अनुसार जो दक्षिणा दे दे, वही सही।” मुझे ऐसा नहीं मालूम कि पण्डे ने पूजा में कोई कोर-कसर रखी हो। बारह बजे तक पूजा-स्नान से निवृत्त होकर मैं काशी विश्वनाथ के दर्शन करने गया, पर वहाँ जो कुछ देखा, उससे मन में बड़ा दु:ख हुआ।
काशी विश्वनाथ मंदिर का दर्शन
1891 में जब मैं बम्बई में वकालत करता था, एक दिन प्रार्थना समाज मन्दिर में काशी यात्रा पर एक व्याख्यान सुना था, तभी से मेरा काशी जाने का मन था, पर प्रत्यक्ष देखने पर जो निराशा हुई, वह धारणा से अधिक थी। संकरी-फिसलती हुई गली से होकर जाना पड़ता था, शान्ति का कहीं नाम नहीं। मक्खियाँ चारों ओर भिनभिना रही थीं। यात्रियों और दुकानदारों का हो-हल्ला असाह्म मालूम हुआ।
जिस जगह मनुष्य ध्यान एवं भगवच्चिन्तन की आशा रखता हो, वहां उनका नामोनिशान नहीं, ध्यान करना हो तो वह अपने अन्तर में कर ले। हाँ, ऐसी भावुक बहनें मैंने जरूर देखीं, जो इस तरह ध्यान-मग्न थीं कि उन्हें अपने आसपास का कुछ भी हाल मालूम न होता था। पर इसका श्रेय मन्दिर के संचालकों को नहीं मिल सकता। संचालकों का कर्तव्य तो यह था कि काशी विश्वनाथ के आस-पास शान्त, निर्मल, सुगन्धित, स्वच्छ वातावरण, क्या बाह्य और क्या अन्तरिक, उत्पन्न करें और उसे बनाये रखें। इसकी जगह मैंने देखा कि वहाँ नये से नये तर्ज की मिठाइयों और खिलौनों की दुकानें लगी हुई थीं।
मन्दिर पर पहुँचते ही मैंने देखा कि दरवाज़े के सामने सड़े हुए फूल पड़े थे और उनमें से दुर्गन्ध निकल रही थी। अन्दर बढ़िया संगमरमरी फर्श था। उस पर किसी अन्ध-श्रद्धालु ने रुपए जड़ रखे थे और रुपयों में मैल-कचरा घुसा रहता था। मैं ज्ञानवापी के पास गया। यहां मैंने ईश्वर की खोज की। वह होगा; पर मुझे न मिला। इससे मैं मन ही मन घुट रहा था। ज्ञानवापी के पास भी गंदगी देखी। भेंट रखने की मेरी जरा भी इच्छा न हुई, इसलिए मैंने सचमुच ही एक पाई वहाँ चढ़ाई। इस पर पण्डा जी उखड़ पड़े। उन्होंने पाई उठाकर फेंक दी और दो-चार गालियां सुनाकर बोले- “तू इस तरह अपमान करेगा तो नरक में पड़ेगा।” मैंने कहा- “महाराज, मेरा तो जो होना होगा वह होगा, पर आपके मुंह से हल्की बात शोभा नहीं देती। यह पाई लेनी हो तो लीजिये, वर्ना इसे भी गँवायेंगे।” “जा, तेरी पाई मुझे नहीं चाहिए” कहकर उन्होंने ज्यादा भला-बुरा कहा। पाई लेकर चलते हुए मैंने सोचा कि महाराज ने पाई गंवाई और मैंने बचा ली। पर महाराज पाई खोने वाले न थे। उन्होंने मुझे फिर बुलाया और कहा- “अच्छा रख दे, मै तेरे जैसा नहीं होना चाहता। मैं न लूं तो तेरा बुरा होगा।”
मैंने चुपचाप एक पाई दे दी और एक लम्बी सांस लेकर चलता बना। इसके बाद भी दो-एक बार काशी-विश्वनाथ गया हूँ, पर वह तो तब, जब महात्मा बन चुका था। इसलिए 1902 के अनुभव भला कैसे मिलते? खुद मेरे ही दर्शन करने वाले मुझे क्या दर्शन करने देते? महात्मा के दुःख तो मुझ जैसे महात्मा ही जान सकते हैं। किन्तु गन्दगी और हो-हल्ला तो जैसे के तैसे ही वहाँ देखे। परमात्मा की दया पर जिसे शंका हो, वह ऐसे तीर्थ क्षेत्रों को देखे। वह महायोगी अपने नाम पर होने वाले कितने ढोंग, अधर्म और पाखण्ड इत्यादि को सहन करते हैं। उन्होंने तो कह रखा है- ये यथा मां प्रपद्यते तांस्तथैव भजाम्यहम्। अर्थात् जैसी करनी वैसी भरनी। कर्म को कौन मिथ्या कर सकता है? फिर भगवान को बीच में पड़ने की क्या जरूरत है? वह तो अपना कानून बताकर अलग हो गया।
काशी में एनी बेसेण्ट के दर्शन
यह अनुभव लेकर मैं मिसेज बेसेण्ट के दर्शन करने गया। वह अभी बीमारी से उठी ही थीं, यह मैं जानता था। मैंने अपना नाम पहुँचाया। वह तुरन्त मिलने आयीं। मुझे तो सिर्फ दर्शन ही करने थे, इसलिए मैंने कहा कि “मुझे आपकी तबियत का हाल मालूम है, मैं तो सिर्फ आपके दर्शन करने आया हूँ। तबियत खराब होते हुए भी आपने मुझे दर्शन दिये, केवल इसी से मैं सन्तुष्ट हूँ, मैं आपको अधिक कष्ट नहीं देना चाहता। इसके बाद मैंने उनसे बिदा ली।
गोखले के पत्र में भी काशी का वर्णन
गांधी जी काशी से चलकर 26 फरवरी 1902 को राजकोट पहुंचे। वहां से 4 मार्च को उन्होंने गोपालकृष्ण गोखले को पत्र लिखा, उसमें भी काशी के सम्बन्ध में उनके मन पर पड़े बुरे प्रभाव की ध्वनि है- “गरीब मुसाफिरों के लिए बनारस शायद सबसे बुरा स्टेशन है। रिश्वत का दौरदौरा है। जबतक आप पुलिस के सिपाहियों को घूस देने के लिए तैयार न हों, तबतक अपना टिकट पाना बहुत कठिन है। वे दूसरों के साथ-साथ मेरे पास भी कई बार आये और बोले कि अगर हमें इनाम (या रिश्वत?) दें तो हम आपके टिकट खरीद देंगे। कई लोगों ने इस प्रस्ताव का फायदा उठाया। हममें से जिन्होंने यह मंजूर नहीं किया, उन्हें खिड़की खुलने के बाद भी करीब-करीब एक घण्टे तक राह देखनी पड़ी, तब जाकर टिकट मिले। इसके विपरीत मुगलसराय का टिकट मास्टर बहुत सज्जन था। उसने कहा कि मैं राजा और रंक में भेद नहीं करता।
-प्रस्तुति : पूनम यादव/शिव कुमार मौर्य
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