हाल ही में मध्य प्रदेश में सम्पन्न हुए नगरीय निकाय एवं पंचायतों के चुनाव में महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा ही नहीं लिया, दम-खम के साथ चुनकर भी आईं। सवाल ये है कि अगर पंचायतों एवं नगरीय निकायों में 50 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान नहीं होता, तो क्या इतनी तादात में महिलाएं चुनकर आतीं? आअज राष्ट्रीय राजनीति में महिलाओं की उपस्थिति कम इसलिए है कि सरकार लोकसभा और विधान सभा में महिला आरक्षण बिल लाने को तैयार नहीं है। वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम-2022 की रिपोर्ट में महिलाओं की राजनीति में भागीदारी के मामले में 146 देशों में भारत की 48 वें पायदान पर खड़ा है। देश की आधी आबादी को उसका प्रतिनिधित्व देने को आखिर सरकार क्यों तैयार नही है? जब सांसदों, विधायकों, मंत्रियों के वेतन बढ़ाने होते हैं, तो सभी राजनैतिक दल एकमत हो जाते हैं, पर जैसे ही महिला बिल संसद में पेश होता है, सर्वसम्मति से सारे दल उस विधेयक का विरोध करने लगते हैं।
आज समाज एवं परिवार ने महिलाओं का नेतृत्व स्वीकारा है। पंचायत एवं नगरीय निकाय के चुनाव में बहुओं के चुनाव प्रचार में सासें कंधे से कंधा मिलाकर चलती दिखाई पड़ीं, यह उत्साहजनक संकेत है. महिलाओं के कंधे पर दोहरी जिम्मेदारी आन पड़ी है. वे घर भी संभाल रही हैं और बाहर भी. और क्या विडम्बना है कि घर में भी प्रताड़ित हो रही हैं और बाहर भी. महिलाओं का व्यक्तित्व आज भी सुन्दर और कुरूप के पैमाने पर तौला जाता है, लेकिन उनके काम को महत्व नहीं दिया जाता।
राजनीति से जुड़ी महिलाओं को अभद्र भाषा से लेकर अपमान जनक टिप्पणियों तक का सामना करना पड़ता है। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता का अपमान हम विधान सभा में देख चुके हैं। एमनेस्टी इंटरनेशनल-2020 कि रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि 2019 के आम चुनाव के दौरान महिला राजनेताओं के बारे में 7 में से 1 ट्वीट अपमानजनक था. रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि ऑनलाइन दुर्व्यवहार में महिलाओं को नीचा दिखाने, अपमानित करने, डराने और अतंतः चुप कराने का पूरा प्रयास किया जाता है. इसके बावजूद इन समस्त चुनौतियों को स्वीकार करते हुए भारतीय महिला राजनीति में अपनी मौजूदगी दर्ज करा रही है।
यह विचार करना जरूरी है कि राजनीतिक जागरूकता तथा राजनीति में भागीदारी हेतु प्रशिक्षण महिलाओं के लिए आवश्यक है। साथ ही देश के नागरिकों को भी यह प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए कि देश में भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करने के लिए महिला नेतृत्व अति आवश्यक है। देश की प्राकृतिक सम्पदा को बचाने की ट्रेनिंग समाज बचपन से ही महिलाओं को देता आया है, बल्कि ये कहूँ कि माँ के गर्भ से ही उसे यह ट्रेनिंग मिलती है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। महिलएं पति या पुत्र की लम्बी आयु के लिए पेड़ों की पूजा करती है तथा रक्षा सूत्र बांधती है, नदियों और पहाड़ों की पूजा भी करते हमने महिलाओं को ही देखा है। अगर जल, जंगल, जमीन को बचाना है, तो उसे सिर्फ महिलाएं ही बचा सकती हैं।
देश के राजनीतिक परिदृश्य में पहले महिलाओं की मौजूदगी भले ही कम रही हो, पर यह सच है कि महिलाओं में राजनीतिक चेतना का विकास तेजी से हुआ है. अब महिलाएं यह जानने का प्रयास करने लगी हैं कि समाज महिलाओं के हितों के प्रति कितना चैकन्ना है, महिलाएं पहले से अधिक मुखर भी हुई हैं। राजनैतिक जागरूकता के बाद राजनीति में भागीदारी दूसरा चरण है. आज विश्व की श्रम शक्ति में बड़ी संख्या में महिलाओं की भागीदारी है। महिलाओं ने यह साबित कर दिया है कि अगर पर्याप्त सामाजिक और पारिवारिक समर्थन मिले तो वे सार्वजनिक उत्तरदायित्व भी कुशलता से निभा सकती हैं।
नगरीय एवं पंचायत चुनावों में प्रधान पति, पार्षद पति, सरपंच पति जैसे शब्द इसी समाज द्वारा गढ़े गये हैं। भारत के संविधान में ऐसे शब्दों का कोई स्थान नही है। हमने देखा जिस पद पर भी महिला उम्मीद्वार खड़ी हुई है, उनके साथ उसके पति का नाम तथा फोटो अवश्य था, यह स्वागत योग्य है पर जहाँ पुरुष उम्मीद्वार खड़े हुए, उन्होंने अपने साथ अपनी पत्नी का फोटो क्यों नही लगाया? पुरुष यह सोच कैसे लेता है कि महिला की अपनी कोई पहचान नहीं है और महिला अपने बल पर चुनाव नहीं जीत सकती, पुरुष का यह भ्रम आखिर कब टूटेगा? जब महिलाएं घर का संचालन कर रही हैं, परिवार और बच्चे भी सम्भाल रही हैं, तो सामाजिक और सार्वजनिक दायित्व भी लोकतांत्रिक तरीके से सम्भाल सकती हैं। 99 प्रतिशत पुरुष घर चलाने के लिए पैसे तो दे देते हैं, किन्तु घर संचालन में उनकी न तो भागीदारी होती है और न ही रुचि। पहले की तुलना में महिलाओं की उपस्थिति का दायरा जरूर बढ़ा है, पर उनकी राजनीति विकास यात्रा अभी बहुत लम्बी है, सभी चुनौतियों के बीच स्वयं को सिद्ध करना कठिन जरूर है, पर असंभव नही है।
-आराधना भार्गव
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