मैं साइमन न्याय के कटघरे में खड़ा हूं
प्रकृति और मनुष्य मेरी गवाही दें
में वहां से बोल रहा हूं, जहां
मोहनजोदड़ो के तालाब की आखिरी सीढ़ी है
जिस पर एक औरत की जली हुई लाश पड़ी है
और तालाब में इंसानों की हड्डियां बिखरी पड़ी हैं
इसी तरह से
एक औरत की जली हुई लाश
बेबीलोनिया में भी मिल जायेगी
और इंसानों की बिखरी हुई हड्डियां
मेसोपोटामिया में भी
मैं सोचता हूं और बार बार सोचता हूं
ताकि याद आ सके –
प्राचीन सभ्यताओं के मुहाने पर
एक औरत की जली हुई लाश मिलती है और
इंसानों की बिखरी हुई हड्डियां
इसका सिलसिला सीरिया की चट्टानों से लेकर
बंगाल के मैदानों तक चला जाता है
और जो कान्हा के जंगलों से लेकर
सवाना के वनों तक फला हुआ है।
एक औरत
जो मां हो सकती है, बहन हो सकती है,
बेटी हो सकती है, बीवी हो सकती है,
मैं कहता हूं हट जाओ
मेरे सामने से
मेरा खून जल रहा है,
मेरा कलेजा कलकला रहा है,
मेरी देह सुलग रही है,
मेरी मां को, मेरी बीवी को,
मेरी बहन को, मेरी बेटी को,
मारा गया है, जलाया गया है
उनकी आत्माएं आर्तनाद कर रही हैं
आसमान में।
मैं इस औरत की जली हुई लाश
पर सिर पटककर
जान दे देता
अगर मेरी एक बेटी न होती तो!
और बेटी है कि कहती है –
पापा तुम बेवजह ही हम लड़कियों के बारे में
इतने भावुक होते हो
‘‘हम लड़कियां तो लकड़ियां होती हैं,
जो बड़ी होने पर
चूल्हे में लगा दी जाती हैं’’
और ये इंसान की बिखरी हुई हड्डियां
रोमन के गुलामों की भी हो सकती हैं और
बंगाल के जुलाहों की भी या फिर
वियतनामी, फिलिस्तीनी, बच्चों की
साम्राज्य आखिर साम्राज्य होता है
चाहे रोमन साम्राज्य हो, ब्रिटिश साम्राज्य हो
या अत्याधुनिक अमरीकी साम्राज्य
जिसका यही काम होता है कि
पहाड़ों पर पठारों पर नदी किनारे
सागर तीरे इंसानों की हड्डियां बिखेरना
जो इतिहास को सिर्फ तीन वाक्यों में
पूरा करने का दावा पेश करती है कि
हमने धरमती में शरारे भर दिये,
हमने धरती में शोले भड़का दिये,
हमने धरती पर इंसानों की हड्डियां बिखेर दीं!!
लेकिन, मैं इन इंसानों का वंशज इस बात की
प्रतिज्ञाओं के साथ जीता हूं कि
जाओ और कह दो सीरिया के गुलामों से
हम सारे गुलामों को इकट्ठा करेंगे
और एक दिन रोम आयेंगे जरूर
लेकिन, अब हम कहीं नहीं जायेंगे क्यूंकि
ठीक इसी तरह जब मैं कविता
आपको सुना रहा हूं,
रात दिन अमरीकी मजदूर
महान साम्राज्य के लिए कब्र खोद रहा है
और भारतीय मजदूर उसके पालतू चूहों के
बिलों में पानी भर रहा है।
एशिया से अफ्रीका तक जो घृणा की
आग लगी है,
वो आग बुझ नहीं सकती दोस्त!
क्योंकि वो आग;
वो आग एक औरत की
जली हुई लाश की आग है
वो आग इंसानों की
बिखरी हुई हड्डियों की आग है
ये लाश जली नहीं है, जलायी गयी है,
ये हड्डियां बिखरी नहीं हैं, बिखेरी गयी हैं,
ये आग लगी नहीं है, लगायी गयी है,
ये लड़ाई छिड़ी नहीं है, छेड़ी गयी है,
लेकिन कविता भी लिखी नहीं है,
लिखाई गयी है,
और जब कविता लिखी जाती है,
तो आग भड़क जाती है।
मैं कहता हूं तुम मुझे इस आग से बचाओ
मेरे लोगों!
तुम मेरे पूरब के लोगों,
मुझे इस आग से बचाओ!
जिनके सुंदर खेतों को
तलवार की नोकों से जोता गया,
जिनकी फसलों को
रथों के चक्कों तले रौंदा गया।
तुम पश्चिम के लोगों, मुझे इस आग से बचाओ!
जिनकी स्त्रियों को बाजारों में बेचा गया,
जिनके बच्चों को चिमनियों में झोंका गया।
तुम उत्तर के लोगों!
मुझे इस आग से बचाओ!
जिनके पुरखों की पीठ पर
पहाड़ लाद कर तोड़ा गया
तुम सुदूर दक्षिण के लोगों!
मुझे इस आग से बचाओ
जिनकी बस्तियों को दावाग्नि में झोंका गया,
जिनकी नावों को
अतल जलराशियों में डुबोया गया।
तुम वे सारे लोग मिलकर मुझे बचाओ!
जिसके खून के गारे से
पिरामिड बने, मीनारें बनीं, दीवारें बनीं,
क्योंकि मुझको बचाना उस औरत को बचाना है,
जिसकी लाश मोहनजोदड़ो के तालाब की
आखिरी सीढ़ी पर पड़ी है।
मुझको बचाना उन इंसानों को बचाना है,
जिनकी हड्डियां तालाब में बिखरी पड़ी हैं।
मुझको बचाना अपने पुरखों को बचाना है,
मुझको बचाना अपने बच्चों को बचाना है,
तुम मुझे बचाओ!
मैं तुम्हारा कवि हूं।
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