यह सत्य है कि मानव जीवन के प्रार्दुभाव के समय पुराने पाषाण काल का प्रारम्भ ही रहा होगा। जंगलों में रहना होता था, हथियार भी पत्थरों व लकड़ियों व कभी-कभी हड्डियों से बनाये जाते थे। आग जलाने के लिए पत्थर को रगड़कर ही प्रक्रिया करनी पड़ती थी। शिकार तथा जंगली फलों के ही ऊपर भरण-पोषण होता था। यह अनेक शोधों व परिकल्पनाओं के आधार पर विकसित हुआ विचार व विश्वास है। मानव समाज, कालान्तर में जंगलों से कृषि की ओर अग्रसर हुआ। कृषि को व्यवसाय बनाने से, यायावरी जीवन का क्रमशः ह्रास हुआ तथा जीवन की प्रक्रिया व्यवस्थित होने लगी। छोटे-छोटे गाँवों का प्रादुर्भाव व परिवार व्यवस्था का स्वरूप सामने आने लगा। इसी के बाद से मानव-समाज की सभ्यता व संस्कृति में गुणात्मक परिवर्तन आरंभ हुए। वस्तुतः यह कृषि क्रान्ति का बीजारोपण था।
कृषि प्रधान समाज के बाद, औद्योगिक समाज का धीरे-धीरे प्रादुर्भाव हुआ। पहले तो कृषि प्रधान उद्योग, फिर लोहे-इस्पात व अन्य प्रकार के उद्योगों के आधार पर औद्योगिक क्रान्ति का आरंभ देखा गया। इस काल खण्ड में मानव सभ्यता व संस्कृति का अलग प्रकार से विकास हुआ। अलग-अलग क्षेत्रों व मानव समाजों में कुछ तत्वों के समान होते हुए भी अन्तर दिखने लगे थे। सभ्यताओं व संस्कृतियों की संकल्पना में एक मूल अन्तर है। सभ्यताओं में अहंकार हो सकता है, परन्तु संस्कृति में ऐसा होना आवश्यक नहीं हैं। यह अलग बात है कि समाज में अपनी संस्कृति को, दूसरी संस्कृतियों से श्रेष्ठ समझने की प्रवृत्ति भी होती है, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। अपनी सभ्यता को दूसरी सभ्यता से श्रेष्ठ समझने की प्रवृत्ति से एक दम्भ की उत्पत्ति होती है, जो पश्चिमी जगत के कई हिस्सों में लगातार देखी गयी है। पहले व दूसरे विश्व युद्धों के पीछे, यद्यपि उनके तत्कालीन राष्ट्राध्यक्षों के दम्भ, उनकी असीमित महत्वाकांक्षाओं तथा समग्र आर्थिक हितों का भी योगदान था, परन्तु एक महत्वपूर्ण तत्व के रूप में अपनी सभ्यता को दूसरों से श्रेष्ठ मानने की उनकी प्रवृत्ति भी अत्यन्त महत्वपूर्ण घटक थी।
चमत्कारी वैज्ञानिक अनुसंधानों ने, खासकर पश्चिमी जगत को चमत्कारी आर्थिक विकास तो दिया ही, साथ ही उनमें श्रेष्ठता का दम्भ भी बढ़ता गया। एक समय ग्रेट ब्रिटेन का सूर्य संसार में अस्त ही नहीं होता था। इस श्रेष्ठता के भाव, आर्थिक हितों एवं उपनिवेश बनाने की प्रवृत्ति ने मानव सभ्यता व समाज का भयंकर अहित किया है। बहुत बड़ी संख्या में लोग मारे गये हैं और यह परम्परा अभी चली ही आ रही है। कोई भी कालखण्ड इससे अछूता नहीं रहा है। दो विश्व युद्धों के बाद भी हुए अनगिनत युद्धों और संघर्षों की पृष्ठभूमि से चलकर आज रूस व यूक्रेन के बीच का विवाद पूरी मानव सभ्यता को एक अंधेरे कालखण्ड में ले जा रहा है। विशेषकर दूसरे विश्व युद्ध के बाद आये शीत युद्ध के बाद स्पष्टतः यह दिखता है कि मानव सभ्यता एक नये अवसान की ओर जा रही है। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान, विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय गठबन्धनों के घटक देश, अपने अपने गुट के देशों के हित संरक्षित नहीं कर पा रहे हैं। विरोधाभासी आर्थिक हितों के कारण, जो आज दिख रहा है, उसमें भूमण्डलीकरण की संकल्पना भी धूमिल होती दिख रही है। 4.4 करोड़ की जनसंख्या का देश यूक्रेन आज जिस सामरिक संकट से गुजर रहा है, वह उसकी अर्थव्यवस्था नष्ट करने को काफी है, विश्व की तमाम व्यवस्थाएं चरमरा रही हैं। वैसे तो मत्स्य न्याय हमेशा से संसार में रहा है। बड़ी मछली, छोटी मछली को खा ही जाती है। पिछले कई दशकों के संघर्षों व युद्धों में यह बार-बार प्रमाणित भी हुआ है।
सोवियत रूस के विघटन की प्रक्रिया में वर्ष 1991 में यूक्रेन एक देश बना था। उस समय के बाद से यूक्रेन को विसैन्यीकृत करने का जो लक्ष्य रूस ने रखा है, वह यूक्रेन को अमरीकी नेतृत्व वाले नाटो सन्धि संगठन के पाले में जाने से रोकने मात्र के लिए नहीं है। वस्तुतः यह विश्व के शक्ति समीकरण में सोवियत संघ के खोये हुए गौरव को फिर से प्राप्त करने का प्रयास भी है। आज पूरा विश्व, खासकर यूरोप ऐसे ही संकट से गुजर रहा है। बड़ी शक्तियों द्वारा दूसरे देशों पर युद्ध, संघर्ष आदि थोपना कोई नई बात नहीं है, क्या अमरीका द्वारा क्यूबा, वियतनाम आदि पर थोपी हुई लडाइयाँ भूली जा सकती हैं? रूस का अफगानिस्तान पर युद्ध जैसा माहौल बनाना और वर्ष 2008 में जर्जिया तथा 2014 में क्रीमिया पर कब्जा भी सर्व विदित है। अमरीका ने समय-समय पर तानाशाहों की सरकारों को खुला समर्थन किया है। पाकिस्तान, इराक, लीबिया के तानाशाहों को अमरीका ने कई बार सैनिक साजो समान की सहायता दी है। रूस और अमरीका समय-समय पर दूसरे देशों को युद्धों में न केवल फँसाते रहे हैं, वरन अनेक बार प्रत्यक्षतः युद्धों व आक्रमणों का शिकार भी बनाते रहे हैं।
आज रूस-यूक्रेन संघर्ष में, यूक्रेन एक मोहरा भर बन कर रह गया है। एक तरफ शक्ति के दंभ में आकंठ डूबा रूस, तो दूसरी ओर अमरीकी नेतृत्व वाले नाटो संगठन के बीच फंसकर यूक्रेन पिस रहा है. यूक्रेन को हथियार देकर नाटो संगठन केवल संघर्ष को और बढ़ाने का ही काम कर रहा है। इस युद्ध में दोनों तरफ से अबतक हजारों लोग मारे जा चुके हैं. रूस की अर्थव्यवस्था पर भी संकट आ रहा है, तो यूक्रेन भी तहस-नहस हो रहा है। यूक्रेन के सबसे बड़े नाभिकीय संयंत्र पर रूसी हमले से सारे संसार में चिन्ता बढ़ गई है। रूस-यूक्रेन युद्ध ने अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति-समीकरणों में एक बदलाव भी प्रदर्शित किया है। सामान्यतः अमरीकी गुट में माना जाने वाला इसरायल, रूस के विरुद्ध कड़ी टिप्पणी नहीं कर रहा है। भारत, चीन व पाकिस्तान रूस-यूक्रेन मामले में किसी भी मत-विभाजन के समय, अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की बैठकों में वोटिंग से अनुपस्थित रहे हैं। यद्यपि भारत के सम्बन्ध चीन व पाकिस्तान से अच्छे नहीं हैं। चीन और पाकिस्तान विश्वमंचों पर भारत के विरुद्ध ही दिखते हैं, परन्तु रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत, चीन, पाकिस्तान तीनों ही अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं में वोटिंग के समय अनुपस्थित रहे। वैसे ये किसी बड़े परिवर्तन के संकेत नहीं है।
युद्ध से किसी देश या सभ्यता को विनाश के सिवा कुछ नहीं मिलता। राष्ट्रों की नींव को युद्ध की कामना पहले दीमक की तरह खोखला करती है, फिर युद्ध में भयावह बरबादी आती है। युद्ध सदैव मानव समाज का अहित ही करता रहा है। युद्ध में विजयी व पराजित दोनों को न केवल जन-धन की अपार हानि होती है, बल्कि पीढ़ियों तक उसके परिणामों का दंश झेलना पड़ता है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जापान के हिरोशिमा व नागासाकी में पैदा होने वाले बच्चे, आणविक हथियारों के दुष्प्रभाव अबतक झेलते रहे हैं। वस्तुतः हिंसा, संघर्ष व युद्ध, किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकते, ये समस्यायों का जंजाल लेकर ही आते हैं। हर युद्ध की आहट पर तीसरे विश्वयुद्ध का खतरा मंडराने लगता है। युद्धों के बाद विजय चाहे जिसकी भी हो, महाविनाश का प्रहर ही दिखता है। गाँवों व शहरों के ऊपर चील कौए ही उड़ते हैं, हंस-गौरिया नहीं। सच तो यह है कि युद्धों में विजय प्राप्त करने पर महाकाव्य और ग्रन्थ लिखे गये हैं, किन्तु युद्धों के दुष्परिणामों से परिचित कराने का प्रयास कम ही हुआ है। सच यह भी है कि मनुष्य के अन्दर का राक्षस, युद्धों में आदमी के सिर पर चढ़ कर चिल्लाता है, किन्तु मानवता ऐसी सोती है कि जागती ही नहीं।
यह सत्य है कि लम्बे काल खण्ड में बदलाव होता रहता है। जनसंख्या के स्थानांतरण से तकनीकों, पर्यावरण, सभ्यता, संस्कृति, जीवन मूल्यों व आदर्शों में भी परिवर्तन होता रहता हैं। हमने बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ से ही राष्ट्रों का तथा बाद में राष्ट्र-राज्य अवधारणा का उदय होते देखा है। राष्ट्र व देश की संकल्पना व उनके विकास के बाद अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर दो गंभीर चुनौतियाँ सामने आयी हैं- 1) अन्तर्राष्ट्रीय कट्टरवाद, 2) विश्वव्यापी आतंकवाद। इन दोनों चुनौतियों के साथ ही, नशीले पदार्थ विश्व व्यवस्था व मानव सभ्यता के लिए बड़ा खतरा बन चुके हैं। अन्तर्राष्ट्रीय तस्करी भी विश्व व्यवस्था व मानव सभ्यता के लिए बड़ा खतरा हो चुकी है। यहाँ तक कि अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवादी संगठनों के पास अकूत धन सम्पदा, बड़े-बड़े संगठित अपराधी-आतंकवादी गिरोह हैं, दुःख की बात यह है कि ये आतंकवादी पूर्णतः प्रशिक्षित हैं। ये आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने के लिए आधुनिक प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल में दक्ष होते हैं। इस प्रकार के कट्टरवादी आतंकवादी संगठन, मानवता, मानव सभ्यता तथा समस्त विश्व-व्यवस्था के लिए बहुत गंभीर खतरा बन चुके है। बड़े-बड़े विकसित देश भी इन आतंकवादी संगठनों को पूरी तरह समाप्त करने में सफल नहीं हो सके हैं। दुर्भाग्य की बात है कि अन्तर्राष्ट्रीय संगठन जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ व सुरक्षा परिषद भी इनके समापन के लिए प्रभावी कदम नहीं उठा सके हैं। यह बेहद चिन्ता का विषय है।
आज मानव सभ्यता के समक्ष विभिन्न प्रकार के परंपरागत हथियार, आणविक अस्त्र, रासायनिक हथियार, जैविक हथियार, मानव बम, प्रक्षेपास्त्र आदि मानव समाज को पूर्णतः नष्ट करने में समर्थ हैं। नित नई वैज्ञानिक खोजों के बाद भी इनसे सुरक्षा की कोई सुनिश्चित प्रणाली अभी भी मानव के पास नहीं है। सभ्यताओं के बीच रक्तरंजित संघर्ष हर दौर में चलता रहा है और परस्पर श्रेष्ठता के दम्भ व कभी-कभी सत्ताधीशों की शक्ति प्रदर्शन की प्रवृत्ति ने मानव समाज का जितना नुकसान किया है, उतना कोई महामारी भी नहीं कर पायी है। कई बार निजी स्वार्थों के लिए भी युद्ध होते रहे हैं। युद्ध देश व समाज को कई वर्ष पीछे ले जाता है। आर्थिक प्रगति अवरुद्ध हो जाती है। एक युद्ध में विजय या पराजय, दूसरे युद्ध का बीजारोपण करती है. यह रक्तबीज मानव समाज व मानव सभ्यता के लिए एक शाश्वत खतरा बना रहता है। विवादों, संघर्षों व युद्धों का समाधान सार्थक संवाद से ही संभव है। इस बात को सभी को समझने की जरूरत है। युद्ध के बाद भी तो संवाद ही करना पड़ता है। संवाद से शान्ति की संभावना व आशा बनती है। मानव समाज को वैश्विक भाईचारे की भावना के लिए सहयोग व रचनात्मक दृष्टि की आवश्यकता है। मानव सभ्यता के ऊपर लगे प्रश्न चिन्ह को समाप्त करने का यही एक मार्ग है।
-ओम प्रकाश मिश्र
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