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मानवाधिकार : समानता के गौरव से जुड़ा पक्ष

मानवाधिकारों से जुड़ी समस्त अवधारणाएं, घोषणाएं और व्यवस्थाएं, जिनमें साइरस से लेकर महात्मा गाँधी या गत बीसवीं शताब्दी में ही अमरीकी अश्वेतों के नागरिक अधिकारों के लिए संघर्षकर्ता मार्टिन लूथर किंग जूनियर तक के व्यक्तिगत विचार, संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर अन्य अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की घोषणाएं और विश्व के राष्ट्रों द्वारा किए गये प्रावधान, विशेष रूप से स्वयं भारत की संवैधानिक व्यवस्था भी सम्मिलित है, मानव समानता को प्रकट करती है।

मानवाधिकार, वे अधिकार हैं, जो वर्ग, जाति, लिंग, रंग, भाषा, धर्म, सम्प्रदाय अथवा राष्ट्रीयता के भेद के बिना समान रूप से प्रत्येक को स्वाभाविक रूप से प्राप्त हैं। मानवाधिकार, सार्वभौमिक हैंI ये समान रूप से, कहना न होगा, प्रत्येक नारी और नर के लिए हैं। ये ही मूल अथवा मौलिक अधिकार हैं; जीवन के अधिकार से प्रारम्भ कर, जीविकोपार्जन अथवा रोटी, कपड़ा, निवास, शिक्षा, चिकित्सा या स्वास्थ्य और बढ़ते क्रम में वांछित स्वतंत्रता आदि सब इसमें सम्मिलित हैं। मानवाधिकारों से जुड़ी समस्त अवधारणाएं, घोषणाएं और व्यवस्थाएं, जिनमें साइरस से लेकर महात्मा गाँधी या गत बीसवीं शताब्दी में ही अमरीकी अश्वेतों के नागरिक अधिकारों के लिए संघर्षकर्ता मार्टिन लूथर किंग जूनियर तक के व्यक्तिगत विचार, संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर अन्य अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की घोषणाएं और विश्व के राष्ट्रों द्वारा किए गये प्रावधान, विशेष रूप से स्वयं भारत की संवैधानिक व्यवस्था भी सम्मिलित है, इसी स्थिति को प्रकट करती है। यह स्थिति जिस सर्वप्रमुख और मूल बात को प्रकट करती है, वह मानव-समानता है। इसलिए, मानव-समानता के परिप्रेक्ष्य में ही मानवाधिकारों की स्थिति को समझा जा सकता है; इसी को केन्द्र में रखकर मानवाधिकारों के लिए कार्य किया जा सकता है।


मानवाधिकार, मेरा दृढ़तापूर्वक यह मानना है, मानव-जीवन से सम्बद्ध एक मुद्दा या विषय मात्र नहीं है। यह, वास्तव में, स्वतंत्रता और न्याय के साथ ही मानव की वास्तविक पहचान कराने वाले उस मानवीय गौरव से जुड़ा है, जिसे हम समानता कहते हैं। समानता, सृष्टिकर्ता अथवा शाश्वत सार्वभौमिक नियमों द्वारा प्रत्येक को प्राप्त है। इसे, ऐसे भी कह सकते हैं कि समानता मानव-जीवन का वास्तविक गौरव है; सजातीय समानता मानवता की कसौटी है। मैं समानता को इसी भावना से स्वीकार करता हूँ। मैं कहा करता हूँ कि समानता ही मानव-जीवन का सबसे मूल्यवान आभूषण है। मेरी इस बात पर स्वयं महात्मा गाँधी, जो जीवन भर, जैसा कि संसार भर के सभी आम और खास जानते हैं, स्वतंत्रता, न्याय और अधिकारों के लिए संघर्षरत रहे, के उस लघु वक्तव्य से मुहर लगती है, जिसमें उन्होंने कहा, ‘(मेरा केंद्रीय उद्देश्य) सम्पूर्ण मानवता के लिए समान आचरण –व्यवहार है और उस सामान आचरण –व्यवहार का अर्थ सेवा-समानता हैI’ महात्मा गाँधी का यह वक्तव्य, उन सभी को जान लेना चाहिए, जो इसके परिप्रेक्ष्य से अनभिज्ञ हैं, उनके जीवन के ध्येय से जुड़ा था। उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करते हुए यह बात कही थी। समानता-सम्बन्धी मेरी स्वीकारोक्ति मार्टिन लूथर किंग जूनियर के वर्ष 1963 ईसवी के विश्वविख्यात जनोद्बोधन “मेरा एक स्वप्न है” से भी प्रमाणित हैं। नागरिक अधिकारों के लाखों समर्थकों के समक्ष मार्टिन लूथर किंग जूनियर के सम्बोधन के केन्द्र में भी मानव-समानता ही थी।
सिद्धान्ततः मानव-समानता को प्रायः सभी के द्वारा स्वीकार किया जाता है। प्राचीन काल से ही सजातीय-समानता की मानव से अपेक्षा भी की गई है। लेकिन, व्यवहार में मानवीय समानता का कार्य आज भी अति कठिन है। मानव-स्वभाव में ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा जैसी अस्थाई प्रवृत्तियां विद्यमान हैं, जिनके कारण दूसरों पर वर्चस्व स्थापित करना; अन्यों पर बढ़त बनाना मनुष्य-स्वभाव में स्थापित हो जाता है। ये दो प्रवृत्तियां, ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा, ही मुख्य रूप से व्यक्ति को दूसरों की कीमत पर अन्यों से अधिक प्राप्त करने, दूसरों से अधिक सुख पाने के लिए प्रेरित करती हैं। इस हेतु, सजातीयों का उत्पीड़न, शोषण और उन पर व्यक्तिगत व संगठित रूप में प्रभुत्व स्थापित करना उनका फैशन बन जाता है। दूसरों पर अन्याय, उनकी स्वतंत्रता का हनन, एवं अन्ततः मानव के रूप में उनके अधिकारों का अतिक्रमण इसी प्रक्रिया का भाग है। इस वास्तविकता की बार-बार पुष्टि करने के लिए सम्पूर्ण मानव-इतिहास हमारे सामने है। इसलिए, मानवाधिकारों के लिए चिन्तित और कार्य करने वाले सभी व्यक्तियों और संगठनों एवं संस्थाओं से मेरी यह आशा व अपेक्षा है कि वे मानव-समानता को केन्द्र में रखकर ही इस सम्बन्ध में अपने स्पष्ट विचार बनाएं, न कि छुपे हुए, जैसा कि अभी की स्थिति है, और तदनुसार, आगे बढ़ें।


विश्व में आज अस्सी करोड़ से भी अधिक लोग दो वक्त अपना पेट भरने में असमर्थ हैं। कुल जनसंख्या का लगभग दस प्रतिशत कुपोषण का शिकार है। पच्चीस करोड़ से अधिक बच्चे प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा से भी वंचित हैं। लगभग तिहत्तर करोड़ से अधिक महिलाएँ विभिन्न प्रकार के उत्पीड़न की जद में हैं। प्रतिवर्ष चार करोड़ से अधिक लोग मानव तस्करी की भेंट चढ़ जाते हैं। यह सारी स्थिति मानवाधिकारों – मनुष्य के रूप में प्राप्त व्यक्ति के अधिकारों का हनन है। यह सभ्य और सक्षम समाज की सजातीयों के प्रति स्वाभाविक उत्तरदायित्व के निर्वहन से विमुखता है। एक ही मूल से सबके निर्गत होने, इसलिए समान होने की सत्यता से, जाने-अनजाने, मुख मोड़ना है। समष्टि कल्याण में ही अपने कल्याण की वास्तविकता को समझने व स्वीकारने को नकारना है। इसलिए, जब तक सबकी समानता की भावना का विकास, तदनुसार व्यवहार नहीं होता, मानवाधिकारों के हनन की स्थिति से मानवता पूर्णतः मुक्त नहीं हो सकती। जिस सीमा तक मानव-समानता की भावना विकसित होगी, तदनुसार सजातीयों के साथ व्यवहार होंगे, उसी सीमा तक मानवाधिकार सुनिश्चित होंगे। यही नहीं, न्याय व्यवस्था सुदृढ़ होगी और स्वतंत्रता सुनिश्चित रहेगी।


गत शताब्दी के चौथे दशक में सूरत जनपद (गुजरात) के लगभग दो दर्जन ग्रामों के हलपतियों (बन्धुआ श्रमिकों) की मुक्ति का संघर्ष चलाते समय सरदार पटेल (जीवनकाल : 1875-1950 ईसवी) ने कहा था, “अपने ही सजातीयों को दास बनाकर रखना सबसे बड़ा पाप है। उन्हें मुक्त करना, मानव के रूप में उनके अधिकारों को सुनिश्चित करना उनका परम कर्त्तव्य है, जो उनके कथित स्वामी बने बैठे हैं।उनके अधिकारों को सुनिश्चित करने का सही मार्ग उन्हें समान मानना है; अपनी उन्नति के लिए उन्हें समान अवसर प्रदान करना है।”
यही आज भी सत्य है, जिसे मानवाधिकारों की चिन्ता करने वालों व इस दिशा में कार्य करने वालों को हृदयंगम भी करना होगा। प्रत्येक व्यक्ति का समान रूप से सम्मान किया जाना चाहिए और उसे सम्मानजनक जीवन जीने की अनुमति दी जानी चाहिए। जो स्थापित व्यवस्थाएं, संस्थाएं और संगठन हैं, वे अपने-अपने स्तरों से, अपने-अपने नियमों के अनुसार कार्य करते हैं और वे सब ठीक हैं। लेकिन, मानव-समानता की भावना का अधिकतम विकास, तदनुसार कार्य-व्यवहार इस चुनौती भरी वैश्विक समस्या का अधिक कारगर व ठोस उपाय है और इसे सभी सम्बद्धजन, संस्थाओं व संगठनों को केन्द्र में रखकर योजनाबद्ध रूप में आगे बढ़ना होगा। इस बात का कोई महत्त्व नहीं कि हमारी सामाजिक स्थिति क्या है, अथवा हम अपनेआप को कितना शक्तिशाली अनुभव करते हैं। वास्तव में हम सभी समान हैं।

-डॉ. रवीन्द्र कुमार

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