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मनुष्य की स्वतंत्र-चेतना के औपनिवेशीकरण का समय

डॉ बनवारी लाल शर्मा के बारे में सुनकर यह यकीन नहीं होता है कि बीते दशक में कोई ऐसा मनुष्य भी था। उपनिवेशवाद से संघर्ष के पश्चात भारत को स्वतंत्रता मिली। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश आत्मनिर्भरता की राह पर चला। पर 80 के दशक में वैश्विक पूंजीवाद के दबाव में स्वतंत्र देशों की आर्थिक आत्मनिर्भरता को समाप्त करने के प्रयास शुरू हुए और बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा एक नये तरह का औपनिवेशीकरण लागू करने की शुरुआत हुई, जिसमें यह जरूरी नहीं था कि कोई एक देश किसी अन्य देश को प्रत्यक्षत: गुलाम बनाये। इस नये तरह की गुलामी को सबसे पहले पहचानने वालों में डॉ. बनवारी लाल शर्मा थे। इसे पहचानने के साथ ही उन्होंने ‘आजादी बचाओ आंदोलन’ के नाम से इसके खिलाफ संघर्ष की शुरुआत की।

उनके जन्मदिवस के अवसर पर 20 मई को स्वराज परिसर में आजादी बचाओ आंदोलन और स्वराज विद्यापीठ की ओर से ‘वर्तमान समय में जन आंदोलनों की भूमिका’ विषय एक विचार गोष्ठी का आयोजन हुआ। प्रो बिमल कुमार ने कहा कि बनवारी लाल शर्मा प्रयोगधर्मी क्रांतिशोधक थे। उन्होंने इलाहाबाद में नगर स्वराज की शुरूआत की थी। उन्होंने नगर स्वराज और ग्राम स्वराज को मिलाकर संपूर्ण लोक स्वराज की बात कही। प्रो विमल कुमार ने कहा कि स्वतंत्रचेता लोग क्रांति के झण्डाबरदार होते हैं। अतीत में जहां भी क्रांतियां हुईं, वहां सामने एक स्थापित राजसत्ता थी लेकिन वित्तीय पूंजी के इस दौर में यह बात इतनी स्पष्ट नहीं है। क्रांतियों के पीछे स्वतंत्रचेता मध्य वर्ग की बड़ी भूमिका होती थी, लेकिन पिछले 10 वर्ष में दुनिया में एक बदलाव आया है। पूरी दुनिया में स्वतंत्र चेतना को खत्म करने का एक अभियान चल रहा है। किसी की इच्छाएं क्या होंगी, उन्हें अपने जीवन में क्या पाना है, यह सब नियंत्रित किया जा रहा है। दिमागों का औपनिवेशीकरण हो चुका है। कोरोना के बाद से भारत ऐसे प्रयोग की प्रयोगशाला बनता जा रहा है और इसमें तीन क्षेत्रों का बड़ा योगदान है। शिक्षा, मनोरंजन उद्योग और मीडिया। मैं सोचता हूं कि डॉ. बनवारी लाल आज यदि वे जीवित होते तो ‘चेतना के औपनिवेशीकरण’ के विरुद्ध किस प्रकार का संघर्ष चलाते?

-अंकेश मद्धेशिया

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