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मेरे बचपन का गांव : क्या भूलूं! क्या याद करूं!!

विकास करते-करते पचास साल पहले की जिंदगी को छोड़कर हम बहुत आगे निकल चुके हैं. पीछे जाना संभव नहीं है. मुझे लगता है कि ‘विकास’ की जिस अंधी गुफ़ा में इंसान घुस गया है, उसमें सिर्फ जाने का रास्ता है, निकलने का नहीं. गुफ़ा में आगे घना अंधेरा है, जिससे बेख़बर होकर हम छलांगें लगाते हुए आगे बढ़ रहे हैं.

मेरा बचपन गांव में बाबा और दादी के साथ बीता. लिहाजा उनसे जुड़ी अनेक स्मृतियां मुझे अब भी याद आ रही हैं. तब गांव में बिजली नहीं थी. मिट्टी का घर था. संयुक्त परिवार था. सब लोग एक साथ रहते थे. बैल, गाय-भैंस और एक-दो कुत्ते भी रहते थे. जानवर भी परिवार का हिस्सा थे. खेत-खलिहान और बगीचे से जुड़ी अधिकांश चीजें अब भी याद आ रही हैं.

मुझे याद है कि गर्मी के मौसम में जामुन व आम खाकर ही दोपहर का समय बीत जाता था. दोपहर में हम बगीचे में ओल्हा-पाती खेलते थे. कभी-कभी गांव के तालाब में स्नान भी करते थे. भैंस की पीठ पर बैठकर उसकी पूंछ के सहारे ही धीरे-धीरे पानी में तैरना भी मैंने सीख लिया था. कुआं भी था, जिसे अब पाट दिया गया है. तब मेरे गांव में गेहूं की खेती नहीं होती थी. जौ, चना, मटर, सरसों, अरहर, ईख और धान की खूब खेती होती थी. ताल में जो खेत था, उसमें धान होता था. धान से पहले सावां, कोदो आदि की फसल तैयार हो जाती थी. भदईं की खेती होती थी. उसका भात बहुत मीठा व स्वादिष्ट होता था. अब उसकी खेती नहीं होती है. गर्मी में तालाब और बारिश के दिनों में मछलियां भी खूब मिलती थीं.


देसी चीनी, गुड़ आदि घर पर ही तैयार किया जाता. गाय-भैंस थी, इसलिए दूध भी खूब होता था. दूध, दही और घी बेचने की प्रथा नहीं थी. दूध में पानी या घी में डालडा मिलाया जाता है, इसकी लोगों को जानकारी ही नहीं थी. जब मैं गांव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ता था, तब कब मेरे लिए कोई नई किताब खरीदी गई थी, इसकी कोई याद मुझे नहीं आ रही है. अक्सर किसी रिश्तेदारी या घर में ही अगली कक्षा में पढ़ने वाले छात्र की किताब से पढ़ाई हो जाती थी. फिर मैं भी अपनी किताब अपने पीछे वाले किसी छात्र को दे देता था. इस तरह आपस में किताबों का आदान-प्रदान करके कक्षा-5 तक की पढ़ाई पूरी हो गई. कक्षा-6 में भी यही स्थिति थी.

शाम को अंधेरा होते ही खेलने का काम खत्म हो जाता था. तब रात में हम लोग लकड़ी की चटाकी पहनते थे. बाबा के पास खड़ऊं था. गांव में बिजली थी नहीं, लिहाजा अंधेरा होते ही ढिबरी या लालटेन जला दी जाती थी और उसी की रोशनी में बच्चे पढ़ते थे. अभाव था, लेकिन मन में इसका आभास ही नहीं था कि गरीबी है. बचपन मज़े में बीतता रहा. इसी तरह पढ़ाई व खेलने की प्रक्रिया चलती रही. सुबह-शाम जब भैंस दूही जाती थी तो मैं गिलास लेकर बाबा के पास चला जाता था और वे मुझे एक गिलास दूध दे देते थे, जो हल्का गर्म रहता था. दादी का कहना था कि भैंस के थान का गर्म दूध सेहत के लिए अच्छा होता है.

जब वे खेत पर जाते थे तो अक्सर मैं भी उनके साथ चला जाता था. घर पर एक कुत्ता था, वह भी हमारे साथ खेत पर जाता था. बाबा कुत्ते को बहुत मानते थे. यदि कोई उसे कभी मार देता था तो डांटते थे. उसे नियमित खाना दिया जाता था. जब मैं बाहर किसी रिश्तेदारी से वापस था तो गांव के बाहर सबसे पहले स्वागत करने के लिए वह कुत्ता ही सीवान में मिलता था. पता नहीं कैसे मेरे आने की जानकारी उसे मिल जाती थी. गर्मी की छुट्टियों में अक्सर मैं नानिहाल या बुआ के गांव चला जाता था. वहां कभी-कभी 15-20 दिन या एक महीने तक रहता था.

इसी तरह बचपन बीतता रहा और मैं कब बड़ा हो गया, कुछ पता ही नहीं चला. अब जब पीछे मुड़कर उन दिनों की याद करता हूं तो सब कु़छ एक सपने की तरह लगता है. कहां था और अब कहां आ गया हूं. तब आने-जाने के लिए अक्सर बैलगाड़ी का प्रयोग किया जाता था. बैलगाड़ी से ही बारात भी आती-जाती थी. रेलवे स्टेशन मेरे गांव से दो कोस यानी लगभग 7-8 किलोमीटर दूर था. पहली बार जब मैंने ट्रेन देखी तो मुझे बहुत आश्चर्य हुआ था. छुक-छुक करती, सीटी बजाती ट्रेन रेलवे स्टेशन पर आती थी. इंजन से खूब धुआं निकलता था. स्टेशन पर ट्रेन के रुकते ही उतरने और चढ़ने वाले लोगों की आपाधापी बढ़ जाती थी. एक दूसरे को धकियाते हुए लोग ट्रेन में चढ़ते-उतरते थे. अक्सर मुझे लगता था कि भीड़ के कारण ट्रेन छूट जाएगी, लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं.

जब तक बाबा जीवित रहे, मुझे कोई चिंता नहीं थी. मुझे लगता था कि सभी समस्याओं का समाधान वे कर देंगे और वे करते भी थे. मेरे बाबा हुक्का पीते थे. शाम को दरवाजे पर चारपाई बिछाकर हुक्का लेकर बैठ जाते थे. उनकी चिलम मैं ही चढ़ाकर यानी उसमें तम्बाकू और आग रखकर ले आता था. घर में हमेशा बोरसी में आग रहती थी, क्योंकि बाहर से जब भी बाबा आते थे तो उन्हें हुक्का पीने की आदत थी. हुक्का पीने से उन्हें राहत मिलती थी. उस समय कोई भी बात करने पर वे आराम से सुनते थे.

अब मैंने भी बनारस में पक्का घर बनवा लिया है, लेकिन तब गांव में जो मिट्टी का घर था, उसमें अधिक सुकून था. बाबा के निधन के बाद संयुक्त परिवार बिखर गया. सबसे पहले मेरे चाचा अलग हो गए. वे नौकरी करते थे तो उन्हें लगा कि अलग हो जाने से उनके परिवार का विकास होगा. हुआ भी, उनकी सोच शायद सही थी. मिट्टी के पुराने घर का एक हिस्सा उन्होंने खुद अपनी पहल पर मजदूरों से गिरवा दिया. खुद ही घर का बंटवारा भी कर दिया था. मेरे पिता की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, इसलिए हम लोग मिट्टी के टूटे हुए घर के दो कमरों में रहते थे. बहुत दिनों तक उसी में रहे, क्योंकि मेरी भी आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं थी.


तब जो मेरा गांव था, अब उसमें से कुछ बचा नहीं है. मिट्टी का घर, झोपड़ी, खलिहान, पेड़-पौधे, कुआं आदि सब कुछ खुद ही लोगों ने खत्म कर दिया. अब मेरे गांव में बिजली आ गई है. सबके पास पक्का घर है. आने-जाने के लिए बाइक व चारपहियां गाड़ियां हैं. नई पीढ़ी नौकरी कर रही है. खूब रुपया है. जिनके बच्चे नौकरी नहीं करते, वे गांव में ही रहते हैं. वे भी बाइक से आते-जाते हैं. सबका काफी ‘विकास’ हो गया है. लेकिन सुकून कहीं खो गया है. शायद बैलगाड़ी के साथ ही कहीं चला गया. अब उसकी जगह चारपहिया गाड़ियों ने ले ली है. गांव अब तेजी से बदल रहा है.
बैलों ने अपनी उपयोगिता खो दी है. ट्रैक्टर से खेतों की जुताई होती है. गोबर की कम्पोस्ट खाद भी सपना हो गयी है. अब बीज और रासायनिक खाद लोग बाजार से खरीद कर लाते हैं. पहले खाद-बीज में किसान आत्मनिर्भर थे, अब बहुराष्ट्रीय कंपनियों का सहारा है. पीने का पानी भी गांव में बिक रहा है. कहते हैं कि धरती के पेट का पानी जहरीला हो गया है. बीमारियां भी बढ़ गई हैं. गांव में कोई ऐसा परिवार नहीं होगा, जिसमें एक-दो लोग बीमार न हों. अपनापन खत्म हो गया है. शादी-विवाह में जो सामूहिकता नज़र आती थी, उसका अभाव है. लगता है लोग एक नकली जिंदगी जी रहे हैं. जो दिख रहा है, वह सच नहीं है और जो सच है, उस पर एक पर्दा डालकर हम विकास का झंडा लहरा रहे हैं.

मुझे याद है कि जब हम प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे, तब स्वतंत्रता व गणतंत्र दिवस पर खुद ही बांस की कइन काटकर उस पर कागज से बनाए गए तिरंगे झंडे को आसमान में लहराते हुए शान से स्कूल जाते थे. फिर अपने गांव और पड़ोस के दूसरे गांव में प्रभातफेरी निकालते थे. लोगों के दरवाजे पर खड़ा होकर स्वतंत्रता दिवस जिंदाबाद व भारत माता की जय के नारे लगाते थे. अब वह सब कुछ एक सपने की तरह लग रहा है. अब बच्चे टीवी चैनलों पर प्रभातफेरी राजपथ की परेड देख लेते हैं.

तब बच्चे स्वतंत्रता व गणतंत्र दिवस की परेड का खुद हिस्सा बनते थे. इससे बहुत कुछ सीखने को मिलता था. विकास करते-करते पचास साल पहले की जिंदगी को छोड़कर हम बहुत आगे निकल चुके हैं. पीछे जाना संभव नहीं है. मुझे लगता है कि ‘विकास’ की जिस अंधी गुफ़ा में इंसान घुस गया है, उसमें सिर्फ जाने का रास्ता है, निकलने का नहीं. गुफ़ा में आगे घना अंधेरा है, जिससे बेख़बर होकर हम छलांग लगाते हुए आगे बढ़ रहे हैं. अग्निपथ पर “वीर” तुम बढ़े चलो..!

-सुरेश प्रताप

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