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मुकाबला तो होगा! हम करें या न करें, हम लड़ें या न लड़ें

सम्पूर्ण क्रांति दिवस पर संघर्ष वाहिनी समन्वय समिति के साथियों का सहचिंतन

हम एक साथ क्यों नहीं आ सकते? ध्यान रहे, एक भी आजाद दिमाग का वजूद इन ताकतों के हमले से बचने वाला नहीं है। मुकाबला तो होगा। हम करें या न करें, हम लड़ें या न लड़ें। सबसे महत्वपूर्ण सवाल हमसे इतिहास पूछेगा कि जब मुकाबला हो रहा था, तब हम कहाँ थे? किस हाल में थे?

 

5 जून 2022 को संघर्ष वाहिनी समन्वय समिति ने दो घंटे की एक ऑनलाइन चर्चा आयोजित की। चर्चा का विषय था ‘लोकतंत्र पर मंड़राते खतरे और सम्पूर्ण क्रांति’, इस चर्चा में कुल 51 साथी शामिल हुए। झारखंड से 19, महाराष्ट्र से 16, बिहार से 8, उ.प्र से 2, ओड़िसा, दिल्ली और प.बंगाल से एक-एक साथी उपस्थित रहे। इनमें 9 युवा साथी थे।

इस चर्चा का संचालन साथी योगेन्द्र और ज्ञानेन्द्र कुमार ने किया। सबसे पहले जयंत दिवाण, चंदन पाल, रामशरण और रजिया पटेल ने अपना अपना वक्तव्य रखा। उसके बाद मंथन, सुशील कुमार, किशोर दास, बागेश्वर बागी, रूस्तम, विभूति, ज्ञानेन्द्र और योगेन्द्र ने अपनी बातें रखीं।


जयंत : किसी भी समाज में महिलाओं और अल्पसंख्यकों की स्थिति उस समाज के लोकतांत्रिक मूल्यों को परखने का पैमाना है। इस पैमाने पर हमारा लोकतंत्र बहुत बदहाल है। समाज विषाक्त हो गया है। अभी हिन्दू धर्म की बातें नहीं चल रहीं, मुस्लिम विरोध चल रहा है। पूरी दुनिया में किसी न किसी नाम पर अधिनायकवादी शक्तियाँ बढ़ रही हैं। आजादी की विरासत को चुन-चुनकर ढहाया जा रहा है। हमें निरंतर युवाओं से संवाद चलाना होगा। डटकर कहना होगा कि हम मुसलमानों के साथ हैं, हम अल्पसंख्यकों के साथ हैं। 2024 लोक सभा चुनाव का साल होगा, वह सम्पूर्ण क्रांति की घोषणा का पचासवां साल भी होगा। हमें यह भी सोचना है कि पचासवाँ साल हम कैसे मनायेंगे।


चंदन पाल : लोग कहते हैं कि लोकतंत्र खतरे में है। मैं सोचता हूँ, कहीं भी, कभी भी लोकतंत्र रहा है क्या? यह संसदीय लोकतंत्र है, वास्तविक लोकतंत्र नहीं। यह समस्याएं हल करने की जगह नयी समस्याएं पैदा करता है। अब तो प्रेसिडेंशियल प्रणाली की बात हो रही है, यह तो और ज्यादा खतरनाक होगा। गाँधी संसदीय लोकतंत्र के विरोधी थे। जेपी ने संसदीय लोकतंत्र के साथ कुछ हद तक समझौता किया। आज देश में उग्र देशप्रेम और उग्र जातिवाद चल रहा है, बहुत्व नष्ट किया जा रहा है। मीडिया की स्वतंत्रता खत्म हो गयी है। गुड गवर्नेंस के नाम पर अत्याचार चल रहा है। 2014 से झूठा प्रोपगंडा चल रहा है। मौजूदा मूल्यवृद्धि चिंताजनक है। राष्ट्रीय हित की जगह पार्टी हित को बढ़ावा दिया जा रहा है। 2024 को ध्यान में रखकर दो तरह से काम करना चाहिए। जनता के बीच जाना चाहिए। पंचायती व्यवस्था को मजबूत करने के लिए काम करना चाहिए। संघर्ष तो सभी साथी करते हैं। रचना का काम नहीं कर पाते, जबकि रचना के माध्यम से ही हम लोगों के पास जा सकते हैं। समानधर्मा संगठनों को जोड़ने की कोशिश चलनी चाहिए।

रामशरण : राजनीति में असमानता बहुत बढ़ गयी है। अमीरों की बात का महत्व बहुत बढ़ गया है। देश पूँजीपतियों के अधीन हो गया है। अगर भाजपा 2024 जीत गयी तो संविधान बदल दिये जाने की पूरी संभावना है। तीन कदमों की आज सख्त जरूरत है। सत्ता से दूर रहने वालों की एकता बनायी जानी चाहिए। राजनीतिक दलों पर आपसी एकता बनाने का दबाव डाला जाना चाहिए। चुनाव सुधार, ईवीएम, इलेक्शन बांड आदि के मुद्दे पर काम किया जाना चाहिए। 2024 की चुनौती के संदर्भ में दो-तीन रूझान बेहद चिंताजनक हैं। दलित और अति पिछड़े भी मौजूदा मनुवादी धारा के साथ चले जा रहे हैं। विज्ञापन के लोभ में तटस्थ बचा गिना-चुना मीडिया भी सरकार के साथ रहने को बाध्य है। पहले महिलाएँ धार्मिक होते हुए भी सेकुलर मिजाज की होती थीं। वे अब साम्प्रदायिक भाजपा के साथ जा रही हैं। यह माँग उठनी चाहिए कि विज्ञापन वितरण स्वतंत्र एजेन्सी करे, सरकार के हाथ यह काम न रहे।

रजिया पटेल : लोकतंत्र के रास्ते में फासीवाद कैसे आ सकता है, इस अनुभव से सीखने की जरूरत है। मौजूदा मोदी सरकार लोकप्रतिनिधियों की सरकार नहीं, आरएसएस कार्यकर्ताओं की सरकार है। इनका हिन्दू राष्ट्र मनुवादी राष्ट्र है। मुसलमान तो ज्यादा से ज्यादा 1400 साल पीछे ले जा सकता है। हिन्दुत्व तो 5 हजार साल पीछे ले जा सकता है। 5 हजार साल की बात छोड़ दें। कुछ सौ साल पहले के पेशवा राज को देख लें। गले में मटका डाल कर चलने की बाध्यता याद करें। आरएसएस के बुद्धिजीवी तो गंगा जमुनी संस्कृति का भी विरोध करते हैं। अतीत को भी बदल देना चाहते हैं। अभी तो वे संविधान को बस ताक पर रख रहे हैं। कल पूरा संविधान बदल डालेंगे। मोहन भागवत ने कह दिया कि मस्जिदों में शिवलिंग न ढूँढ़ते रहें, तो हमारे कई साथी बहुत खुश हो गये। किन्तु याद रहे, संघ ने जेपी को कैसे छला था। कुछ सालों में देश की 75% आबादी 45 वर्ष के लोगों की होगी। आज साम्प्रदायिकता के वाहक युवा भी हो गये हैं। युवा जनसंख्या क्या सोचती है, इस पर ध्यान देना होगा। आज के युवा आजादी के 30 साल बाद पैदा हुए हैं। इस चालीस पचास साल में संदर्भ बहुत बदल गये हैं। देश में 60 करोड़ स्मार्ट फोन हैं। इनसे होकर साम्प्रदायिकता गुजरती है। 9/11 के बाद जो इस्लामोफोबिया बढ़ा, उसका मुकाबला कैसे हो, यह सोचना पड़ेगा। साम्प्रदायिकता और उदारीकरण की राजनीति को गहराई से समझना होगा। इन संदर्भों में सम्पूर्ण क्रांति की डिटेलिंग करनी होगी, सम्पूर्ण क्रांति की नयी परिभाषा करनी होगी। हमेशा याद रखना होगा कि लोकतंत्र संख्या पर नहीं, मूल्यों पर आधारित होता है।

मंथन : हम सब अक्सर चर्चाओं में बदहालियों के विवरण में ही सीमित रहते हैं। प्रतिवाद और आंदोलन की युक्ति व रणनीति पर फोकस नहीं करते। कमजोर मुकाबले का यह एक बड़ा कारण है। धार्मिक बहुसंख्यकवाद को लोकतंत्र और राष्ट्रवाद बताया जा रहा है। समतावादी बहुमत को संगठित करके ही इसे रोका जा सकता है। शोषित, दलित, उत्पीड़ित जनों की एकता और प्रगतिशील जनपक्षीय समूहों की एकजुटता से ऐसा बहुमत रचने की व्यावहारिक रणनीति बनानी होगी।

 

सुशील : हम सबके बीच बुनियादी फरक नहीं है। चुनौतियों को न समझ पाने की कमजोरी नहीं है। कमी पहलकदमी की है। छोटे-छोटे पर्चों और बुकलेटों के साथ, कला जत्थों के साथ सड़कों पर उतरना होगा। नफरती नारों और गलतफहमियों का जवाब देना होगा। इसके लिए युवाओं को जोड़ना होगा । 26 नवम्बर 1949 को जो मान्य हुआ और 26 जनवरी 1950 को जो लागू हुआ, वही हमारा आइडिया ऑफ नेशन है, इसके अलावा दूसरा कुछ आइडिया ऑफ नेशन नहीं हो सकता। 2024 में सम्पूर्ण क्रांति के 50 साल हो रहे हैं। इस अवसर को कैसे मनायेंगे?

किशोर दास : गणतंत्र कोमा में जा चुका है। सघन चिकित्सा से ही इसमें जीवन संचार हो सकता है। 1947 में आम जन में जितनी चेतना और नैतिकता थी, आज शिक्षित युवाओं में वह चेतना, वह नैतिकता नहीं है। आज का युवा पैसा केन्द्रित हो गया है। मतदान वोट की बिक्री बन गया है। लोकतंत्र बचाने की लड़ाई आजादी की लड़ाई से भी कठिन हो गयी है। हमें चुनाव सुधार पर केन्द्रित होना होगा। इस सरकार के खिलाफ रिकॉल मूवमेन्ट चलाना होगा। पार्टीलेस लोकतंत्र हो या नहीं, सिंबललेस चुनाव की बात तो जरूर होनी चाहिए।

 

बागेश्वर बागी : मुस्लिम बुद्धिजीवियों को जोड़ने का प्रयास होना चाहिए। युवाओं के मुद्दे हाईलाइट किये जाने चाहिए। समन्वय के काम में कुछ लोगों को पूर्णकालिक तौर पर लगना होगा।

 

 

रूस्तम : सत्तापक्षीय ताकतें ऑनलाइन रॉ मैटिरियल फैलाकर प्रतिगामी मानस बना रही हैं। हमें ऑनलाइन वैचारिक मुहिम चलाकर सामूहिक तौर पर सेकुलर और लोकतांत्रिक मानसिकता बनानी चाहिए। हमें अपनी ताकत का सटीक आकलन करने और अपना दायरा बढ़ाने का काम करना होगा।

 

विभूति : आम जन के साथ जुड़ाव के लिए प्रगतिशील शक्तियों को छोटे छोटे सुधारों के काम में लगने की जरूरत है।

 

 

ज्ञानेन्द्र : जो परिस्थिति की गंभीरता नहीं समझ रहे हैं, उसे हल्के में ले रहे हैं, मोर्चे पर उतरने के लिए तैयार नहीं हैं, वे इंतजार करते रहें। जो लोग मैदान में उतरने को तैयार हैं, वैसे लोग जल्द से जल्द एक साथ 2-3 दिन बैठें। संघर्ष के योद्धा कैसे बनें, सेना की तैयारी कैसे हो, यह असल बात है, जिस पर कहीं कोई चर्चा नहीं हो रही है। यह विशेष परिस्थिति है, निजी सहूलियतों को छोड़कर जुटना होगा। हमें तकनीकी एक्सपर्ट बनना होगा। अगर अभी शुरुआत करेंगे, तो 2024 तक मोमेंटम पकड़ पायेंगे ।

 

योगेन्द्र : आखिर रास्ता क्या है? चाहिए वाली भाषा बोलने से तो रास्ता नहीं बनेगा। साम्प्रदायिकता बढ़ाने के मोर्चे पर सरकार आक्रामक है। जहाँ सरकार फेल हो रही है, अगर वहाँ आक्रमण करेंगे तो सफल हो सकते हैं। एकाध फैसले लेकर अपने राज्यों में काम में जुट जाएँ। एक तरह की सक्रियता हो, एक तरह का ढाँचा हो। प्राकृतिक संकट में तो शत्रु-जीव भी एक जगह शरण ले लेते हैं। हम क्यों नहीं एक साथ आ सकते। ध्यान रहे, एक भी आजाद दिमाग का वजूद इन ताकतों के हमले से बचने वाला नहीं है। मुकाबला तो होगा। हम करें या न करें, हम लड़ें या न लड़ें। सबसे महत्वपूर्ण सवाल हमसे इतिहास पूछेगा कि जब मुकाबला हो रहा था, तब हम कहाँ थे? किस हाल में थे?

-संयोजक मंडल, संघर्ष वाहिनी समन्वय समिति

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