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पहाड़ विध्वंस और गंगाविलास

अपूज्यां यत्र पूज्यंते

आज उत्तराखण्ड और केन्द्र, दोनों जगह भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। भाजपा आज भी खुद को हिंदू संस्कृति का पोषक बताते नहीं थकती है। आज कोई हिंदू संगठन नहीं कह रहा है कि जोशीमठ का धारी देवी मन्दिर हो या गंगा; आस्थावानों के लिए दोनों तीर्थ हैं। गंगा स्नान, संयम, शुद्धि और मुक्ति का पथ है। गंगा विलास काम, भोग और धनलिप्सा का यात्री बनाने आया है। गंगा हमारी पूज्या हैं। हम पहाड़ों के विध्वंस और गंगा पर भोग-विलास की इजाज़त नहीं दे सकते। यह हमारी आस्था के साथ कुठाराघात है।

16 जून, 2013 को केदारनाथ जल प्रलय आई। उससे पहले शिलारूपिणी परमपूज्या धारी देवी को विस्थापित किया गया। ऐसा श्रीनगर, गढ़वाल की एक विद्युत परियोजना को चलाते रहने की जिद्द के कारण किया गया था। भाजपा नेता सुषमा स्वराज ने इसे धारी देवी का तिरस्कार माना था। इस तिरस्कार को केदारनाथ प्रलय का कारण बताते हुए उन्होंने संसद में स्कन्द्पुरण के एक श्लोक का उल्लेख किया था:

अपूज्या यत्र पूज्यंते पूज्यानां तु विमानना।
त्रीणि तत्र भविष्यन्ति दुर्भिक्षं मरणं भयम्।।

मतलब यह कि जहां न पूजने योग्य की पूजा होती है और जिसकी पूजा की जानी चाहिए, उसका तिरस्कार होता है, वहां तीन परिणाम होते हैं: अकाल, मृत्यु और भय। आइए, इस नीतिगत निष्कर्ष को जोशीमठ और गंगा के ताज़ा संदर्भ में देखें।

गंगाविलास क्रूज

ज्योतिष्पीठ की उपेक्षा
ज्योतिष्पीठ, आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार सनातनी पीठों में से एक पीठ है। यह ज्योतिष्पीठ एक दशक पूर्व से ही विचलित है। इस विचलन में विनाश की आशंका मौजूद है। इस आशंका को लेकर, पीठाधीश शंकराचार्य स्वर्गीय स्वरूपानन्द सरस्वती सरकारों को समय-समय पर चेताते रहे। तमाम वैज्ञानिक अध्ययनों ने भी चेताया। उनकी चेतावनी को ज्योतिष्पीठ शंकराचार्य पद की दावेदारी के अनैतिक विवाद का दलगत कंबल ओढ़कर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता रहा। नतीज़ा यह हुआ कि आज शिवलिंग दरक चुका है। ज्योतिष्पीठ के नगरवासी विस्थापित होने को मज़बूर हैं। जोशीमठ और इसके आसपास के इलाकों के प्रति वर्ष छह सेंटिमीटर की रफ्तार से धंसने की रिपोर्ट भी सामने आ गई है। जुलाई, 2020 से मार्च, 2022 के बीच की सैटेलाइट तस्वीरों ने सच सामने ला दिया है। हिमालय, प्राकृतिक तौर पर पांच सेंटीमीटर प्रति वर्ष की रफ्तार से उत्तर की ओर सरक रहा है। भूमि के भीतर लगातार घर्षण वाले क्षेत्र लम्बे अरसे से चिन्हित हैं; बावजूद इसके वहां बेसमझ निर्माण व कटान की सरकारी मंजूरी व क्रियान्वयन में कुप्रबंधन व लूट की खुली छूट है। कॉरपोरेट के दबाव व अपने लालच की पूर्ति के लिए नेता, ठेकेदार और अधिकारियों के त्रिगुट पहाड़ी नियम-संयम की धज्जियां उड़ा रहे हैं। तमाम नकारात्मक निष्कर्षों के बावजूद, जल-विद्युत परियोजनाओं के तौर-तरीकों में कोई सकारात्मक परिवर्तन नहीं आ रहा है। बांध सुरक्षा नीति तो है, नदी व हिमालय सुरक्षा की कोई ठोस नीति व कार्य योजना सरकारें आज तक लागू नहीं कर सकी हैं। इसके परिणाम ज्योतिष्पीठ से आगे कर्णप्रयाग, रूद्रप्रयाग, हिमाचल से लेकर दिल्ली तक दिखने लगे हैं। सबसे मज़बूत भू-गर्भीय प्लेटों वाली विंध्य और अरावली पर्वतमालाओं के इलाकों में भी झटके लगने लगे हैं।

वैज्ञानिक व व्यवस्थागत तथ्य और अधिक भिन्न हो सकते हैं, किन्तु यदि शास्त्रीय श्लोक के अनुसार कहें तो कह सकते हैं कि यह सब ज्योतिष्पीठ के तिरस्कार का दुष्परिणाम है। कह सकते हैं कि जिस शिव की सिर पर वनरूपी जटा, चन्द्रमारूपिणी शीतलता और गंगारूपिणी पवित्रता विराजती हो, उसकी पीठ पर बम फोड़े जायेंगे तो विनाश तो होगा ही।

गंगा के सीने पर विलास
आज उत्तराखण्ड और केन्द्र, दोनों जगह भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। भाजपा आज भी खुद को हिंदू संस्कृति का पोषक बताते नहीं थकती है। क्या आज एक बार फिर कोई सुषमा स्वराज उस श्लोक को दोहरा सकती है? क्या किसी अन्य राजनैतिक दल अथवा नेता ने गंगा विलास नामक क्रूज का विरोध किया? धारी देवी के विस्थापन के विरोध में आवाज़ उठाने वाली उमा भारती भी इस लेख को लिखे जाने तक गंगा विलास के विरोध में सामने नहीं आई हैं।12।59 लाख रुपए में गंगा के सीने पर 51 दिन की यात्रा होगी, यह विलास नहीं तो क्या तीर्थ करने की कीमत है?

गंगाविलास पूज्य है या अपूज्य?

चुप क्यों है आस्था?
आज कोई हिंदू संगठन नहीं कह रहा है कि आस्थावानों के लिए गंगा तीर्थ है। गंगा स्नान, संयम, शुद्धि और मुक्ति का पथ है। गंगा विलास काम, भोग और धनलिप्सा का यात्री बनाने आया है। गंगा हमारी पूज्या हैं। हम गंगा पर भोग-विलास की इजाज़त नहीं दे सकते। यह हमारी आस्था के साथ कुठाराघात है। गंगा विलास जैसे विलास के साथ-साथ गंगा एक्सप्रेस वे व उससे जुड़ी व्यावसायिक व औद्योगिक गतिविधियां गंगा की पवित्रता, अविरलता और निर्मलता को कितना नुकसान पहुंचायेंगी, यह बेचैन करने वाली बात है। इस पक्ष तथा आस्था तर्कों को लेकर धर्मसत्ता, राजसत्ता अथवा समाजसत्ता का कोई शीर्ष यह कहने सामने नहीं आया कि गंगा से विलास को दूर रखो। गंगा को तीर्थ ही रहने दो; पर्यटन व भोग-विलास का पथ न बनाओ।

हक़ीक़त यह है कि इस लेख को लिखे जाने तक ’मां गंगा ने बुलाया है’ कहने वाले भी कुछ नहीं बोल रहे हैं और जय श्रीराम का नारा लगाने वाले भी कुछ नहीं बोल रहे हैं। जेडी यू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने अवश्य गंगा विलास क्रूज़ चलाने को जनता के पैसे की लूट कहकर विरोध प्रकट किया है।

केन्द्र सरकार तो गंगाविलास को महिमामण्डित व प्रचारित करने के लिए मीडिया के जरिये प्रचार की योजनाएं बना रही है। दूसरी तरफ अदालत, अधिकारियों से पूछ रही हैं कि क्या आप गंगा को साफ करना नहीं चाहते? वे कह रहे हैं कि हम गंगा में विलास करना चाहते हैं। अदालत पूछ रही है कि क्या आप गंगा को साफ नहीं कर सकते? वे कह रहे हैं कि हम गंगा के सीने पर गंगा एक्सप्रेस-वे बना सकते हैं; हिमालय का सीना चीरकर चारधाम सड़क बना सकते हैं। हम गंगा किनारे झाडू लगवा सकते हैं, आरती की थाली बजा सकते हैं। हम गंगा की सजावट के वीडियो वायरल करा सकते हैं। गंगा को निर्मल दिखाने के लिए जल मानकों को नीचे गिरा सकते हैं, करोड़ों लुटा सकते हैं, पर गंगा के गले से फंदा नहीं हटा सकते, गंगा को अविरल नहीं बना सकते। वे ऐसा क्यों कह व कर रहे हैं?

क्योंकि तीर्थ अब व्यासायिक एजेण्डा है
वे जानते हैं कि गंगा विलास चलता रहा तो गंगा विलाप के अलावा हमारे हाथ कुछ न लगेगा। गंगा तो होगी, किन्तु मृत्यु पूर्व दो बूंद ग्रहण करने लायक गंगाजल नहीं होगा। गंगा किनारे, तबाही के तटों के नाम से जाने जायेंगे; बावजूद इसके वे ऐसा इसलिए कह व कर रहे हैं, क्योंकि आज कॉरपोरेट जगत सिर्फ गंगा, हिमालय अथवा सम्मेद शिखर ही नहीं, हमारी आस्था के समस्त तीर्थों को अपने व्यावसायिक लालच की पूर्ति का माध्यम बना लेना चाहता है। इस विनाशक लालची प्रवृति को बढ़ाने में कॉरपोरेट बाबाओं और मोटे पैसे के पैकेज पर कथा बांचते कथावाचकों का भी पूरा योगदान है। हमारी केन्द्र सरकार कुछ ज्यादा ही आतुर नज़र आ रही है। अयोध्या का राममंदिर निर्माण, सम्मेद शिखर, अरविंद आश्रम, साबरमती आश्रम तथा गांधी तीर्थ सेवाग्राम में सरकारी मनमर्जी। नदी तट विकास के नाम पर साबरमती रिवर फ्रंट तथा गंगा व ब्रह्मपुत्र एक्सप्रेस वे जैसी परियोजनाएं भी पूरी तरह नदियों के व्यावसायिक अतिक्रमण व शोषण की ही परियोजनाएं हैं।

कोरे व्यावसायिक एजेण्डे को बढ़ाने वाले अक्सर भूल जाते हैं कि बिना शुभ के लाभ ज्यादा दिन टिक नहीं सकता। चाहे कोई काम हो, व्यक्ति या स्थान; तीर्थ वह होता है, जो प्रकृति के छोटे से छोटे, कमज़ोर से कमज़ोर प्राणी के लिए शुभप्रद हो, जिसमें किसी एक पक्ष का नहीं, सभी के कल्याण का भाव मौजूद हो, जैव के भी और अजैव के भी। नदियां ऐसी ही तीर्थ हैं। किन्तु क्या आपको उक्त परियोजनाएं, नदियों को तीर्थ बनाये रखने की प्रार्थनाओं की समर्थक नज़र आती हैं?

मंथन ज़रूरी
आइए, याद करें कि गंगा हिंदुओं के लिए तीर्थ तो मुसलमानों के लिए एक पाक दरिया है। पानी, पर्यावरण व रोज़ी-रोटी सनातनी संस्कार वालों के लिए भी ज़रूरी है और वैदिक, जैनी, बौद्ध, सिख, यहूदी व पारसी संस्कार वालों के लिए भी। भूगोल बचेगा तभी हम बचेंगे, नहीं तो न सेहत बचेगी, न अर्थव्यवस्था, न रोज़गार और न शासन का दंभ। एक दिन सब जायेगा।

अपूज्य को पूजना बंद करें
आइए, स्कन्दपुराण के उक्त श्लोक को हर पल याद करें। अपूज्य को पूजना बंद करें। पूज्य की उपेक्षा न करें। पर्यावरण, समाज, विकास और रिश्तों जैसे मधुर शब्दों की आड़ में कोरे व्यावसायिक व विध्वंसक एजेण्डा चलाना, पूज्य की उपेक्षा करने सरीखा ही है। ऐसी उपेक्षा करने वाले प्रकृति के पापी हैं। ऐसों को पूजना अपूज्य को पूजना ही है। इसका नतीजा न भूलें अकाल, मृत्यु और भय। कृपया संजीदा हों। विचार करें। समाज बेहतरी के लिए बदलाव की पहल करे। शासन अपने-आप बदल जाएगा।

-अरुण तिवारी

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