देश के राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक इतिहास में भी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का योगदान कालजयी रहा है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर वायसराय या ब्रिटिश सरकार के साथ बैठकर मंथन करना हो, आश्रम की सफाई करनी हो या किसी बीमार अन्तेवासी युवक के लिए काॅफी बनानी हो, बापू के लिए इनमें से कोई भी काम दूसरे काम से कमतर नहीं था। वयोवृद्ध परचुरे शास्त्री का किस्सा विख्यात है। वे कुष्ठरोग से ग्रस्त थे और तत्कालीन ही नहीं, आधुनिक समाज में भी कुष्ठरोग के प्रति भयानक घृणा का भाव कोई छुपी हुई बात नहीं है। इतिहास गवाह है कि जब समाज ने पूरी तरह त्याग दिया था, तब बापू ने उन्हें अपने आश्रम में रखकर अपने हाथों से उनकी नियमित सेवा की। कनकमल गांधी की किताब ‘बापू और सेवाग्राम आश्रम’ से उद्धृत इस प्रसंग में बापू की करुणा का अजस्र स्रोत फूटता हुआ महसूस होता है।
एक दिन शाम को बापू से किसी ने आकर कहा कि गोशाला के पीछे एक फकीर जैसा आदमी छिपा खड़ा है। आपको पहचानता है, ऐसा लगता है। बापू गोशाला पहुँचे। फकीर जैसे दीखने वाले व्यक्ति ने बापू को साष्टांग प्रणाम किया। उसके मुँह से संस्कृत श्लोकों की वंदना प्रस्फुटित हो रही थी।
अरे, परचुरे शास्त्री! कहिये, कैसे अचानक आना हुआ? बापू चौंके।
परचुरे शास्त्री ने कहा कि मेरा रोग बढ़ गया है। समाज मुझे स्वीकार करने को तैयार नहीं है। मर जाने का निश्चय कर चुका हूँ। आखिरी के दिन आपके आश्रम में आपकी छत्रछाया में बिताकर शांति से मरना चाहता हूं। मुझे दो रोटियों से अधिक की आवश्यकता नहीं है। यहाँ रहने की अनुमति प्रदान करके अनुग्रह कीजिएगा।
पर पीड़ा देखकर वैष्णव-जन का हृदय द्रवित हुआ। बापू ने कहा कि मेरे आश्रम में आपको रहने की तो छूट है, लेकिन मरने की छूट नहीं है। यहाँ आपकी सेवा की जाएगी, आपको मरने नहीं दिया जाएगा। यह निर्णय करने से पहले बापू को भी थोड़ा सोचना पड़ा था, क्योंकि दूसरे कार्यकर्ताओं की भावना और संसर्ग की भावना का ख्याल भी उनको रखना था। देखते-देखते बापू की कुटी के पड़ोस में, लेकिन अन्य कुटियों से कुछ हटकर, शास्त्रीजी के लिए एक कुटी तैयार की गई। एक चारपाई पर शास्त्रीजी का बिस्तर लगा दिया गया और उनके खाने-पीने की व्यवस्था उसी झोपड़ी में कर दी गयी।
कुष्ठरोग के लिए समाज में जो तीव्र घृणा की भावना है, उसका मुख्य कारण यह है कि इस रोग को भयानक संसर्गजन्य रोग माना गया है। यद्यपि आधुनिक विज्ञान का निष्कर्ष है कि कुष्ठरोग यक्ष्मा या चेचक जितना भी संसर्गजन्य नहीं है। बापू की देखभाल में शास्त्रीजी की चिकित्सा का सारा इंतजाम पूरा हो गया।
परचुरे शास्त्री संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। कुछ दिन साबरमती आश्रम में रह चुके थे। फिर शायद अपने बच्चों की गृहस्थी संवारने के लिए चले गए थे। वहीं से खबर लगी कि उनको कुष्ठरोग की छूत लग गई है।
मानव-समाज ने अपने अज्ञान के कारण समाज के कई वर्गों पर हजारों साल तक अन्याय किया है, उनमें कुष्ठ रोगियों का वर्ग भी शामिल है। हजारों वर्षों से इस रोग का जिक्र होता आया है और दुनिया के किसी भी देश में कुष्ठ रोगियों की हालत अन्य देशों की तुलना में अच्छी नहीं कही जा सकती। सुना है कि सौराष्ट्र के कुछ हिस्सों में कुष्ठ रोगियों को जिंदा समुद्र में फेंक दिया जाता रहा है।
बापू जब किसी व्यक्तिगत काम को भी उठाते थे, तो उस काम को सामाजिक महत्त्व प्राप्त हो जाता था और यही उनके व्यक्तित्व के क्षितिज व्यापी होने का राज है। तिस पर किसी कुष्ठरोगी की सेवा एक सांकेतिक काम भी था, यानी समाज के अत्यंत उपेक्षित वर्ग की सेवा का काम। सर्वोदय का प्रारम्भ अन्त्योदय से ही होता है।
भारत में अब तक कुष्ठसेवा का जितना भी काम हुआ है, वह करीब-करीब ईसाई मिशनरियों के जरिये ही हुआ है। ईसाई मिशनरियों ने उसे एक धर्मकृत्य माना है। इसीलिए कुछ ईसाई मिशनरियों ने कुष्ठरोगियों की सेवा करते हुए खुद कुष्ठरोग का शिकार होने का खतरा उठाकर प्राण भी गँवाये हैं। ईसाइयों को छोड़कर अन्य लोग कुष्ठसेवा के काम में नहीं पड़े थे। बापू ने अन्य कई विषयों की तरह इस विषय में भी पहल की। उनकी और विनोबा की प्रेरणा से मनोहर दिवाण ने कुष्ठरोगियों की सेवा में जीवन समर्पण करने का निश्चय किया। उनकी कुष्ठसेवा के परिणामस्वरूप वर्धा और पवनार के बीच दत्तपुर कुष्ठधाम की स्थापना हुई।
कुष्ठरोगी का स्पर्श भयंकर माना जाता है, लेकिन बापू ने कुष्ठरोगी परचुरे शास्त्री की सेवा का जो काम अपने जिम्मे लिया था, वह उनके शरीर में मालिश करने का था। परचुरे शास्त्री जब सेवाग्राम आश्रम आये, तभी उनका रोग असाध्य हो चुका था। फिर भी सेवाग्राम में उनकी जो सेवा और देखभाल की गयी, उससे कुछ समय के लिए उनका स्वास्थ्य कुछ सुधर गया था। उस समय वे आश्रम के लोगों को संस्कृत भी पढ़ाते थे। बापू जब अधिकतर समय सेवाग्राम से बाहर रहने लगे, तब शास्त्रीजी का स्वास्थ्य फिर से बिगड़ गया। इसलिए उनको दत्तपुर कुष्ठधाम में पहुँचा दिया गया। वहीं उनकी मृत्यु हुई।
चम्पारण का वह कुष्ठरोगी
उन दिनों चंपारण में किसानों का सत्याग्रह आंदोलन चल रहा था। गांधी जी के साथ एक व्यक्ति ऐसा भी था, जो कुष्ठ रोग से पीड़ित था। वह पेशे से खेतिहर मजदूर था। उसके शरीर में अनेक घाव हो गये थे, जिससे वह अपने घावों पर कपड़ा लपेट कर चलता था। सभी उसे हेय दृष्टि से देखते थे। एक दिन शाम के समय सत्याग्रही अपनी छावनी को लौट रहे थे, तो उस व्यक्ति के घावों से खून बहने लगा। अधिक पीड़ा होने के कारण वह पीछे छूट गया और वहीं बैठ गया। जब सभी सत्याग्रही लौट आये और वह व्यक्ति नहीं लौटा तो गांधी जी ने उस व्यक्ति के बारे में पूछा, लोगों ने जवाब दिया कि वह शायद पीछे रह गया है। यह जानकर गांधी जी उसी समय उसकी तलाश में निकल पड़े। उसे खोजते-खोजते वे काफी आगे आ गये। सहसा वह उन्हें एक पेड़ के नीचे बैठा हुआ नजर आया।
उसने भी उन्हें देख लिया और जोर से आवाज लगायी, ‘बापू।’ बापू उसके पास पहुंचे और उसकी हालत देखकर बोले, ‘अरे भलेमानस, जब तुम चल नहीं सकते थे, तो मुझे बताया क्यों नहीं? कम से कम अपनी स्थिति से मुझे अवगत तो कराना चाहिए था। खैर, छोड़ो।’ उसके बाद उन्होंने उसके खून से लथपथ पैरों पर अपनी चादर फाड़कर लपेटी और उसे सहारा देकर धीरे-धीरे आश्रम ले आये। उन्होंने उसके घावों को साफ किया, पैर धोये और फिर प्यार से अपने पास बिठाया। बाकी सत्याग्रही यह देखकर आत्मग्लानि से भर उठे और उन्होंने मन ही मन संकल्प किया कि आगे से वे जरूरतमंदों और रोगियों की सहायता के लिए सदैव तैयार रहेंगे।
जब सहायक कैदी को बिच्छू ने डंक मारा
विष्णु प्रभाकर ने अपनी किताब ‘गांधी : समय, समाज और संस्कृति’ में उल्लेख किया है कि जब गांधी जी जेल में थे तो उनकी सेवा के लिए एक कैदी उनके पास रहता था। वह उनकी भाषा नहीं समझता था। एक दिन उसको बिच्छू ने काट लिया। रोता हुआ वह गांधी के पास आया। तब सहज भाव से उन्होंने घाव धोकर उसका सारा डंक खींच लिया। उस गरीब ने कभी ऐसा प्रेम नहीं पाया था। वह उनका परमभक्त हो गया।
अंग्रेजी के ट्यूटर गांधी
उन दिनों गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में थे। वहां भी वे हर समय सबकी मदद के लिए तैयार रहते थे। एक दिन वे अपना दैनिक कामकाज निबटा रहे थे, तभी एक मुसलमान बटलर उनके पास आया और बोला, ‘गांधी जी, मुझे बहुत थोड़ी तनख्वाह मिलती है। मैं बाल-बच्चेदार आदमी हूं। मेरा गुजारा इतने कम में नहीं हो पाता है। अगर मुझे थोड़ी-सी अंग्रेजी आ जाती तो मुझे ज्यादा तनख्वाह मिल सकती है।’
गांधी जी बैरिस्टर थे। उन्होंने बटलर को प्रेम से बिठाया और बोले, ‘आपको अंग्रेजी न आने के कारण तनख्वाह कम मिलती है तो मैं आपको अंग्रेजी पढ़ाने के लिए तैयार हूं। आप मुझसे अंग्रेजी पढ़ सकते हैं।’
एक ही बार में गांधी जी को हामी भरते देखकर बटलर आश्चर्यचकित रह गया। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि कोई व्यक्ति इतना नेकदिल भी हो सकता है कि बिना किसी स्वार्थ के सहर्ष उसकी मदद कर सकता है। किन्तु कुछ देर बाद ही वह कुछ सोचकर उदास हो गया। गांधीजी ने पूछा, ‘क्या हुआ? तुम उदास क्यों हो गये?’ बटलर बोला, ‘आप मुझे पढ़ाने के लिए तैयार हो गये हैं। यह तो ठीक है, लेकिन नौकरी से समय निकालकर मेरा रोज समय से आ पाना कठिन है।’ तब गांधी जी बोले, ‘तुम फिक्र मत करो। जब मैंने तुम्हें पढ़ाने के लिए हामी भर दी है तो पढ़ाने भी मैं ही आ जाया करूंगा।’
यह सुनकर तो बटलर की आंखें कृतज्ञता से नम हो गयीं। वह उन्हें प्रणाम करके वहां से चला गया। इसके बाद गांधी उस बटलर को प्रतिदिन चार मील दूर उसके घर जाकर अंग्रेजी पढ़ाने लगे। यह सिलसिला पूरे आठ महीने चला। वह बटलर आजीवन गांधीजी के प्रति कृतज्ञ रहा।
जुलू विद्रोह के समय घायलों की सेवा
गाँधी जी खुद लिखते हैं कि जुलू विद्रोह के समय जब कोई घायलों की मदद के लिए आगे नहीं आ रहा था तो उनका इलाज कर रहे डॉ सावेज ने हमसे मदद मांगी और हमने खुशी-खुशी जूलुओं की सेवा-शुश्रूषा का काम अपने हाथ में ले लिया। कुछ हब्शियों के घावों की पांच-पांच, छह-छह दिन तक मरहम पट्टी करने का काम हमारे सिर आया और हमने उसे बहुत ही पसंद किया। हब्शी बेचारे हमारे साथ कुछ बात तो नहीं कर सकते थे, परंतु उनके हाव-भाव और उनकी आंखों से प्रकट होने वाली कृतज्ञता से हम समझ सकते थे कि वे हमें उनकी मदद के लिए भेजा गया ईश्वर का दूत ही मानते थे। यह काम बड़ा कठिन था। कभी-कभी हमें एक दिन में चालीस मील तक की मंजिल तय करनी पड़ती थी।
गांधी जी में मदर टेरेसा से ज्यादा सेवा भावना पायी जाती है। कहते हैं कि अपनी सेवाभाविता में वे ईसा मसीह के करीब ठहरते हैं। मार्टिन लूथर ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि गांधी को पढ़ने से पहले मुझे ईसा की उस उक्ति पर विश्वास ही नहीं होता था कि अगर कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल आगे कर दो, इस तरह टकराव को टाला जा सकता है। ईसा के इस कथन का कि दुश्मनों से भी प्रेम करो, गांधी से बेहतरीन दूसरा कोई उदाहरण नहीं पाया जाता।
-मदन मोहन वर्मा
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