आधुनिक युग ने विश्व को तीन बड़े विचारक दिये, उन्होंने दुनिया के चिंतन को नये मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया। ये विचारक थे – फ्रायड, डार्विन और एडम स्मिथ। एक मनोवैज्ञानिक था, दूसरा समाज वैज्ञानिक था और तीसरा अर्थशास्त्री। फ्रायड ने जीवन की मूल प्रेरणा कामना को माना। मानव के संपूर्ण विकास के लिए कामना की पूर्ति को उसने आवश्यक बताया। डार्विन ने मनुष्य के जिन्दा रहने के लिए अवसर का अपने हित में उपयोग आवश्यक माना, अन्यथा उसके मत के अनुसार मनुष्य का जिन्दा रहना कठिन था। एडम स्मिथ ने कहा कि अर्थशास्त्र धन का विज्ञान है। अर्थात अर्थशास्त्र यह बताता है कि व्यक्ति को धन कैसे कमाना चाहिए। दुनिया में अब तक जितने शास्त्रों की रचना की गयी है, उनमें समाज-सापेक्ष व्यक्ति के विकास की कल्पना की गयी है, लेकिन इन तीनों ने अपने विचार का केन्द्र बिन्दु व्यक्ति को बताया।
फ्रायड के कामना पूर्ति के मनोविज्ञान ने उपभोक्ता संस्कृति को विकसित करने में सहयोग प्रदान किया। डार्विन के ‘सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ यानी जिसकी लाठी उसकी भैंस के सिद्धांत ने व्यक्ति के मन में ‘हाऊ टू सरवाइव’ का प्रश्न पैदा किया, जिसने राक्षसी पुरुषार्थ को जन्म दिया। एडम स्मिथ ने लोगों के मन में धन कमाने की प्रेरणा पैदा की।
धन कमाने की प्रेरणा, राक्षसी पुरुषार्थ और उपभोक्ता संस्कृति तीनों जब एक साथ मिले तो पूंजीवाद के दर्शन ने साकार स्वरूप ग्रहण करना प्रारंभ किया। इस दर्शन ने व्यक्ति के चिंतन को, कर्म को काफी प्रभावित किया। मानव अब सांस्कृतिक मानव नहीं, आर्थिक मानव था। आर्थिक मानव को विकास की प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए पूंजी की जरूरत थी। अधिक पूंजी कमाने के लिए आर्थिक मानव व्यक्ति और छोटी-छोटी मशीनों की श्रमशक्ति पर निर्भर नहीं कर सकता था। उसने बड़ी-बड़ी मशीनें बनायीं। विशालकाय उद्योग खड़े किये। वहां बड़े पैमाने पर उत्पादन प्रारंभ हुआ। व्यक्ति ने बड़े पैमाने पर उत्पादन के कारण कच्चे माल और बाजार की खोज प्रारंभ कर दी। इसके बाद देश-विदेश के बाजारों पर नियंत्रण बनाये रखने और कच्चे माल की प्राप्ति के लिए संबंधित देशों की सरकारों पर पूंजीवाद के प्रभुत्व का प्रदर्शन अनिवार्य हो गया। इसका सीधा असर सरकारों की नीतियों पर दिखायी देने लगा। परंपरागत उद्योग नष्ट होने लगे। कच्चा माल कारखानों में जाने लगा। इस तरह औपनिवेशिक संस्कृति ने जन्म लिया। औद्योगिक पूंजीवाद, उपनिवेशों के मार्फत जहां-जहां गया, वहां-वहां की सरकारों पर उसने कब्जा किया और सरकारी नीतियां पूंजीवाद के अनुकूल बनायी जाने लगीं। सेना का उपयोग औद्योगिक संस्थानों के संरक्षण के लिए किया जाने लगा और शिक्षण-संस्थान पूंजीवादी अवधारणाओं को आम जनता तक पहुंचाने लगे।
इसके अलावा औद्योगिक पूंजीवाद दुनिया में जहां-जहां गया, उसने प्रशासकों-राजनीतिज्ञों की स्वतंत्र फौज खड़ी की, जो पूरी तरह पूंजीवादी अवधारणाओं से ग्रस्त थी। आर्थिक दृष्टि से वे लोग पूरी तरह पूंजीपतियों पर निर्भर थे। उन्होंने शासन की ऐसी पद्धति विकसित की, जो लोकतंत्र के नाम से जानी जाती है। लोकतंत्र की यह पद्धति ऐसी है, जो अपने प्रतिनिधियों को चुनवाने के लिए पूंजी पर निर्भर करती है और पूंजी पूंजीपतियों से ही मिलने वाली है। इसलिए प्रकारांतर से प्रशासन पर प्रतिनिधियों के माध्यम से पूरी पकड़ पूंजीपतियों की ही रहती है।
जब औद्योगिक पूंजीवाद के हाथों में सरकारें आयीं, शिक्षण संस्थाएं आयीं, सैनिक संस्थान आये और लोकप्रतिनिधि आये तो उसे समाज को पूंजीवाद के हक में इस्तेमाल करने का अबाधित अधिकार भी मिल गया। इस अबाधित अधिकार पर लगाम लगाने की कोशिश मार्क्सवादियों ने की, लेकिन वे पूरी तरह सफल नहीं हो पाये।
प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच पूंजीवाद अपने को दुनिया में सर्वोच्च शक्ति के रूप में स्थापित करने की कोशिश करता रहा। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद स्थापित कर भी लिया, लेकिन उसी समय एक महाशक्ति के रूप में दुनिया में साम्यवाद खड़ा हुआ। दोनों के बीच सीधी लड़ाई कभी नहीं हुई; लेकिन उनके बीच तनाव की स्थिति हमेशा बनी रही। इस तनाव की स्थिति में महाशक्तियां हथियारों की जखीरेबाजी करती रहीं और युद्ध की नवीनतम टेकनीक की खोज करती रहीं। महाशक्तियों के राष्ट्रीय बजट का अधिकांश भाग हथियारों की जखीरेबाजी पर खर्च होता रहा। इस कारण बाजार से पूंजी का पलायन प्रारंभ हुआ। पूंजी के इस पलायन पर नियंत्रण पाने के लिए साम्यवादी रूस सर्वहारा की रोटी छीनने लगा और पूंजीवादी अमेरिका शोषण के नये-नये आसान तरीकों की खोज करने लगा।
बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक के प्रारंभ तक पूंजीवाद और साम्यवाद इन्हीं परिस्थितियों से जूझ रहे थे। पूंजीवादी देशों के नागरिकों पर प्रति व्यक्ति भार बढ़ता जा रहा था और साम्यवादी देशों में प्रति व्यक्ति उत्पादित आय दर घटती जा रही थी। पूंजीवादी देशों में विकसित श्रेणी के देश अपनी भरपाई अविकसित और विकासशील देशों से पूरी कर रहे थे, लेकिन साम्यवादियों के लिए यह सब करना संभव नहीं था, इसलिए साम्यवादी देश आर्थिक दृष्टि से टूटन का शिकार बनते जा रहे थे। अंतत: उन्हें तनाव शैथिल्य के सिद्धांत पर आना पड़ा। इस तरह साम्यवादी देशों में वर्ग संघर्ष का सिद्धांत सर्वहारा वर्ग पर इतना भारी पड़ा कि वह चरमराकर टूट गया। इस तरह साम्यवाद विश्व के राजनैतिक रंगमंच से विदा हो गया।
आज पूंजीवाद विश्व की एकमात्र महाशक्ति है। ये पूंजीवादी देश आपस में नहीं लड़ेंगे, यह तय है। अगर लड़ेंगे भी तो युद्ध में हथियारों का उपयोग नहीं करेंगे, क्योंकि इन राष्ट्रों ने लोकतंत्र के नाम पर ऐसी शासन व्यवस्था विकसित कर ली है, जिसमें युद्ध के लिए हथियारों की जरूरत नहीं पड़ेगी। लोकतांत्रिक तरीके से लड़ेंगे, आपस में फैसला भी करेंगे और पूंजीवाद-सापेक्ष राजनीति भी चला लेंगे।
लेकिन मूल प्रश्न यह है कि इन पूंजीपतियों ने अपने विशालकाय उद्योगों को चलाने के लिए प्राकृतिक साधनों का जिस तरह दोहन करना शुरू किया है, उससे प्रकृति में असंतुलन पैदा हो गया है। बड़े-बड़े उद्योगों से निकलने वाले कचरे के कारण धूप, पानी, बारिश और हवा सबके सब प्रदूषित हो रहे हैं। उपभोक्ता संस्कृति के कारण मानव-जीवन में सामाजिक संबंधों का ह्रास, प्राकृतिक साधनों के दोहन के कारण प्रकृति में असंतुलन और औद्योगिक कचरे के कारण वातावरण में प्रदूषण, ये तीनों महारोग औद्योगिक पूंजीवाद की देन के रूप में विश्व को मिले हैं। इसका कोई इलाज औद्योगिक पूंजीवादी संस्कृति के पास नहीं है। अगर औद्योगिक पूंजीवाद इन महारोगों का इलाज खोजने जायेगा भी तो वह इलाज बहुत खर्चीला होगा। औद्योगिक पूंजीवाद के लिए उद्योगों से जान छुड़ा लेना उससे ज्यादा सस्ता पड़ेगा। कहने का मतलब यह है कि जिस तरह ‘वर्ग संघर्ष’ साम्यवादियों के लिए भारी पड़ा, उसी तरह औद्योगिक पूंजीवाद का उद्योग पूंजीवाद पर भारी पड़ने वाला है। लाचार होकर पूंजीवाद को उससे अंतत: जान छुड़ानी पड़ेगी।
अगर दुनिया में इसी तरह मानव मूल्यों का ह्रास होता रहा, प्रकृति में असंतुलन पैदा होता रहा और वातावरण प्रदूषित होता रहा तो दुनिया में मनुष्य का अस्तित्व बचाना कठिन हो जायेगा, क्योंकि यह दुनिया आदमी के रहने लायक नहीं रह जायेगी। वैसी परिस्थिति में मानव-पशुश्रम आधारित अर्थव्यवस्था, मानव-जीवन का सहारा बनेगी। गांव की खेती, गांव के उद्योग देश के अर्थतंत्र की रीढ़ बनेंगे। ये खेती और ग्रामोद्योग गांवों में उपलब्ध संसाधनों के इस्तेमाल से चलेंगे। तब न तो प्राकृतिक असंतुलन पैदा होगा, और न वातावरण प्रदूषित होगा।
मानव-मानव और मानव-पशु के बीच के संबंध उत्पादक और उपभोक्ता के नहीं, वरन परस्पर पूरकता के होंगे। एक दूसरे का इस्तेमाल लाभ कमाने के लिए नहीं, कामना-पूर्ति के लिए नहीं, वरन नये संबंधों के निर्माण के लिए, नवीन सृष्टि के सृजन के लिए होगा, ताकि आने वाली पीढ़ियों को उसका लाभ मिल सके।
इस सृष्टि में गोवंश, मानव-जीवन का सबसे निकट का मित्र प्राणी है। अपने दूध से वह हमें पुष्टि प्रदान करता है और अपनी श्रमशक्ति हमारी आवश्यकता के अनुरूप अनाज एवं वस्तुएं पैदा करने में सहायता करता है। इसका गोबर मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाता है, जो अन्न-उत्पादन में वृद्धि करता है। इसके अलावा गोवंश अपनी उपयोगिता द्वारा हमारे अंदर ऐसी भावना पैदा करता है कि हमारे हृदय में सभी प्राणियों के लिए प्रेम की भावना भी बलवती होती रहे। मनुष्य मात्र का कर्तव्य है कि वह गोवंश का पालन करे और उसकी रक्षा का दायित्व अपने कंधों पर ले।
-सतीश नारायण
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