ब्रह्मविद्या मंदिर के प्रति अपने अपने मनोभाव व्यक्त करने का एक खूबसूरत सिलसिला चल पड़ा है। विनोबा सेवा आश्रम, शाहजहांपुर की संरक्षक बिमला बहन, जिनको वर्ष 2011 में प्रख्यात जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है, आज प्रस्तुत हैं उनके मनोभाव।
ब्रह्मविद्या मंदिर के सामने देखें, तो धाम नदी बहती है, लेकिन अंदर देखें तो स्नेह की अविरल गंगा ही बहती है। विश्व महिला सम्मेलन के समय पहली बार मुझे अपने माता पिता के साथ पवनार जाने का अवसर मिला था। बाबा का आशीर्वाद उद्बोधन सुना था। बाबा के निर्वाण के बाद जो श्रद्धांजलि यात्रा आयोजित हुई, उसके प्रसाद स्वरूप ही बरतारा में विनोबा आश्रम का अवलंबन लेकर बैठना हुआ, जो अब तक निरंतर जारी है। 1980 से 1995 तक पंद्रह वर्ष का कालखंड ब्रह्मविद्या मंदिर के बारे में सुनने और पढ़ने में व्यतीत हुआ।
आश्रम से मेरा सही जुड़ाव तब शुरू हुआ, जब आदरणीय ऊषा दीदी का आश्रम आना हुआ। उसी वर्ष बाबा की जन्मशताब्दी मनाई जा रही थी, जिसमें आश्रम की बहनों की पदयात्रा टोली पवनार गई थी। तबसे ही ब्रह्मविद्या मंदिर की स्नेहगंगा में अवगाहन का अवसर मुझे मिलता रहा है। वहां जहाँ भी नजर डालिए, हर कोने में, हर जर्रे पर बाबा के दर्शन हो जाते हैं। जिन रास्तों पर बाबा विचरण करते थे, जिन खेतों में बाबा श्रम करते थे, उन हवाओं में आज भी पवित्रता की सुगंध सुवासित है। बाबा अक्सर अपनी कुटी के सामने बैठकर बात करते थे।
आश्रम की बहनों की वाणी में जो मिठास है, वह अद्भुत है। मेरा मन देश के अन्य किसी तीर्थ पर उतना नहीं लगता. पवनार आश्रम एक ऐसा तीर्थ है, जहां जाने के लिए हम छटपटाते रहते हैं।
आश्रम की बहनों की वाणी में जो मिठास है, वह अद्भुत है। मेरा मन देश के अन्य किसी तीर्थ पर उतना नहीं लगता. पवनार आश्रम एक ऐसा तीर्थ है, जहां जाने के लिए हम छटपटाते रहते हैं। हर वर्ष मित्र-मिलन की प्रतीक्षा बनी रहती है कि उस समय सारे देश और दुनिया के बाबा प्रेमियों के दर्शन होंगे। बीच में कभी जाने पर स्नेह गंगा को छूकर आने वाली हवा हमें हुलसाती है, लेकिन मित्र मिलन में जाने पर ऐसा महसूस होता है जैसे ज्ञानगंगा में डुबकी लगा ली हो। ब्रह्मविद्या मंदिर जिस आध्यात्मिकता की नींव पर खड़ा है, उस तक पहुंचने में तो पूरा जीवन लग जाएगा।
बीच में कभी जाने पर स्नेह गंगा को छूकर आने वाली हवा हमें हुलसाती है, लेकिन मित्र मिलन में जाने पर ऐसा महसूस होता है जैसे ज्ञानगंगा में डुबकी लगा ली हो।
बाबा ने जब इसकी स्थापना की कल्पना की तो वे पूर्ण संतुष्ट और प्रसन्न थे। आश्रम की तपस्विनियों ने बाबा की गैरहाजिरी में भी आश्रम को सुंदर ढंग से चलाया ही नहीं, बल्कि उसे विस्तार भी दिया। बाबा जब पदयात्रा से वापस आए, तब उन्हें ब्रह्मविद्या मंदिर के दर्शन कर प्रसन्नता हुई। बाबा इसी स्थान पर अपने अंतिम समय तक रहे। बाबा की कल्पनाओं और आकांक्षाओं पर खरा उतरने वाला ब्रह्मविद्या मन्दिर आज दुनिया में अपनी शालीनता, सरलता और आध्यात्मिकता के लिए प्रख्यात है।
दुनिया के तमाम देशों की बहनें यहां कुछ दिन रुककर अपने को गौरवान्वित महसूस करती हैं। ब्रह्मविद्या मंदिर की अतिथि प्रमुख की अनुमति पाकर भारत के लोग भी आश्रम में आकर सहभाग करते हैं। भोर में 4 बजे जागरण की घंटी सुनते ही नींद खुल जाती है, फिर दिन भर काम की प्रेरणा बाबा देते रहते हैं। रात्रि में प्रार्थना के बाद 8 बजे सोने का आवाहन होते ही धीरे धीरे नींद आने लगती है। मेरा मानना है कि आज वर्धा का ब्रह्मविद्या मंदिर भारत का ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण विश्व का सहज आध्यात्मिक तीर्थ बन गया है।
-बिमला बहन
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