व्यापक अनुभव से ईश्वर-सम्पर्क
हिन्दुस्तान के लोग तो भावुक होते ही हैं, लेकिन आप देखिये कि दुनिया भर में किस ग्रंथ की सबसे ज्यादा प्रतियां खपी हैं। टॉल्स्टॉय, लेनिन आदि का साहित्य खपता है, लेकिन बाइबिल के सामने उनका कोई हिसाब नहीं। यानी यूरोप और अमेरिका में भी अंतर-प्रवाह आध्यात्मिक विचार का ही है। वह न होता, तो आज दुनिया में जो यह भूख पैदा हुई है कि सारी दुनिया एक हो, वह कदापि न होती। इसलिए आज दुनिया उसी हालत में है, जिसमें हम हैं। तब हमारा यह तर्क करना कि प्रार्थना में बैठने पर मन इधर-उधर जाता है, तो प्रार्थना में बैठे ही क्यों, बिलकुल वाहियात है। महान पुरुषों का सारा अनुभव पड़ा है और काल-प्रवाह और ईश्वर-प्रवाह एक ही ओर जा रहे हैं, तो आपका एक छोटा-सा अनुभव किस काम का? उसका क्या महत्त्व है? इसलिए हमें श्रद्धा रखकर सीधे ईश्वर से ही संपर्क स्थापित करना चाहिए।
प्रार्थना की शक्ति
हमें यह समझ लेना होगा कि प्रार्थना में कैसी शक्ति है। अंग्रेजों के भारत आने के बाद उनसे और उनके ईसाई-धर्म से हमारा संपर्क स्थापित हुआ और लगा कि हम भी सामूहिक प्रार्थना का उपयोग करें। ‘नमाज’ जैसी साप्ताहिक प्रार्थना की बात हमारे लिए नई नहीं थी। हमारे धर्म में तो वंदना, संध्या दिन में दो बार होती है। इसलिए सप्ताह में जब ईसाई-धर्म का अनुकरण चला, तो ‘ब्रह्म-समाज’ निकला। ब्राह्मों ने साप्ताहिक प्रार्थना शुरू की। लेकिन जैसे हम रोज खाना खाते हैं, सूरज रोज डूबता-उगता है, वैसे ही जीवन में भी दैनिक नियमितता होनी चाहिए।
प्रार्थना के सन्दर्भ में मैं हमेशा स्नान, भोजन और नीद–ये तीन मिसाले देता हूँ। तीनों की जो खूबी है, वह प्रार्थना में है। नींद से मनुष्य को उत्साह और विश्राम मिलता है। वैसे ही प्रार्थना से मन को विश्राम और आध्यात्मिक उत्साह मिलता है। भोजन से शरीर का पोषण होता है। प्रार्थना से भी मन का पोषण होता है। स्नान से शरीर की शुद्धि होती है, तो प्रार्थना भी मन को शुद्ध करती है। तीनों के मिलने से शरीर के लिए जो काम बनता है, वही मन के लिए प्रार्थना से। मानसिक पोषण, विश्राम, शान्ति और मानसिक निर्मलता हमें सप्ताह में सिर्फ एक बार नहीं, बल्कि रोज-रोज चाहिए। जैसे शरीर का क्षय होता है, वैसे ही मन का भी क्षय होता है। शान्ति, शुद्धि, पुष्टि हम चाहते हैं और प्रार्थना से इन तीनों की अपेक्षा रखते हैं।
प्रार्थना क्यों?
प्रार्थना सामूहिक भी होती है और व्यक्तिगत भी। व्यक्तिगत तौर पर प्रार्थना करने से मनुष्य शुद्ध संकल्प करता है। आत्मा में संकल्प-शक्ति निहित है। आत्मा की व्याख्या है, संकल्प का अधिष्ठान। जिससे स्फूर्ति मिले, वही आत्मा है। हम अनेक काम करते हैं। परिणाम यह होता है कि संकल्प के बदले विकल्प भी होते हैं, शुभ संकल्प बनता नहीं। इसलिए आत्मा की संकल्प-शक्ति प्रकट नहीं होती। कभी-कभी संगति, घर या तालीम के कारण आत्मा की शुद्ध शक्ति प्रकट नहीं हो पाती। उसकी शुद्ध शक्ति के प्रकाशन के लिए हम इकट्ठे होते और प्रार्थना करते हैं।
प्रार्थना और ईश्वर का सम्बन्ध
कोई पूछ सकता है कि ईश्वर का प्रार्थना से क्या सम्बन्ध है? प्रार्थना में हम ईश्वर से ही आशीर्वाद माँगते हैं। हम शरीर में हैं। शरीर को पहचानने वाले, शरीर से काम लेने वाले ‘हम’ शरीर से भिन्न हैं। शरीर कमजोर रहा तो भी हम कमजोर नहीं होते। शरीर से हम बलवान भी नहीं होते। इस तरह हम शरीर से अलग हैं, यह स्पष्ट है। इसी तरह हम मन-बुद्धि से भी भिन्न हैं। पिण्ड से ब्रह्म अलग है। इसी ब्रह्म और पिण्ड को अलग-अलग संभालने वाली जो शक्ति है, वही ईश्वर है। शरीर प्रतिबिम्ब है तो ब्रह्म बिम्ब। यहाँ आँख है तो वहाँ सूर्य। यहाँ खून है तो वहाँ पानी। यहाँ हड्डी है तो वहाँ लोहा। इस तरह सृष्टि में जो कुछ है, वह ईश्वर है।
ईश्वर से क्या सम्बन्ध? प्राण-शक्ति को बाहर की खुली स्वच्छ हवा मिलती है, तो प्राण-शक्ति मजबूत होती है। कभी आँख खराब हुई तो सूर्य की किरणों की शक्ति से हम उसे मजबूत करते हैं। इस तरह ब्रह्माण्ड में जो शक्ति पड़ी है, वह लेकर हम पिण्ड की पूर्ति कर लेते हैं। जैसे ये भौतिक अनुभव हैं, वैसे ही नैतिक अनुभव भी। हम आत्म-शक्ति को बाहर से परमात्मा की शक्ति लेकर बलवान बनाते हैं। परमात्मा की मदद लेने के लिए प्रार्थना होती है। हम वहाँ अपनी सारी कमजोरियों को प्रकट कर देते और बल पाते हैं। इसीलिए प्रार्थना होती है।
प्रार्थना में सम्पूर्ण अनाग्रह
जिस मुँह को जो शब्द खींचते हैं, वह उन्हीं शब्दों द्वारा प्रार्थना करे। मैं यह नहीं कहता कि हम लोगों ने जो आश्रम बनाये, उनमें प्रार्थना की एकता हो। हमने यहाँ जो प्रार्थना चलायी है, उसमें ईशावास्य-उपनिषद, स्थितप्रज्ञ के लक्षण और नाम-माला है। नाम माला में भगवान के कुल नाम आ जाते हैं, जो सारी दुनिया के मानव-समूह में चलते हैं। सिर्फ भारत के ही नहीं, सारी दुनिया के नामों का उनमें समावेश है। फिर व्रत बोले जाते हैं। यह प्रार्थना का अंश नहीं। उनकी सिर्फ याद है। उसे रोज बोलना चाहिए, ऐसी बात नहीं। बोलने पर असर करेगा, ऐसा भी नहीं। वह यांत्रिक भी हो सकता है, लेकिन याद दिलाने के लिए बोलते हैं, तो वह सर्वथा व्यर्थ कार्य नहीं होता। नाम-माला के लिए भी मेरा आग्रह नहीं है। दुनिया में अनेक नाम चलते हैं। लोग विष्णु-सहस्रनाम ले सकते हैं या और भी भगवन्नाम ले सकते हैं।
-अध्यात्म-तत्त्व-सुधा
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