सात मई को रांची के रामदयाल मुंडा आदिवासी शोध संस्थान में समाजकर्मी कनक की स्मृति में एक संगोष्ठी संपन्न हुई. विषय था- मौजूदा दौर : औरतों की आजादी की कठिन होती राह. उल्लेखनीय है कि बीते वर्ष दो मई को कोविड-19 के कारण कनक का असामयिक निधन हो गया था. वे जीवन के अंतिम समय तक सामजिक गतिविधियों से जुड़ी रही थीं, लेकिन कोरोनाग्रस्त माता-पिता की सेवा करते हुए वे खुद संक्रमित हुईं और हर तरह की गैरबराबरी के खिलाफ संघर्ष करती रहीं कनक लड़ते-लड़ते अंततः जीवन की जंग हार गयीं. कार्यक्रम का प्रारंभ उनकी तस्वीर पर पुष्पांजलि से हुआ. इस मौके पर कनक के लेखों के संकलन ‘स्त्री-शब्द’ का लोकार्पण भी किया गया. साथ ही घोषणा की गयी कि इस किताब की बिक्री से जो राशि आयेगी, वह सघर्ष वाहिनी से जुड़े जरूरतमंद कार्यकर्ताओं की सहायता के लिए बने कोष में जमा की जायेगी.
मुख्य वक्ता थीं दिल्ली से आयीं प्रसिद्ध पत्रकार मणिमाला, जो कनक की सहपाठी होने के साथ ही आंदोलन और संघर्ष वाहिनी की साथी भी रही हैं, ने चर्चा की शुरुआत करते हुए मौजूदा भयावह दौर का उल्लेख किया और कहा कि ऐसे वक्त में सबसे अधिक कठिनाई महिलाओं को ही झेलनी पड़ती है. उन्होंने कहा कि भीषण दंगों के दौर से गुजरकर आजाद हुए इस देश को कितनी मुश्किलों से हमारे पुरखों ने संवारा, वह आज पुनः ऐसे दौर में पहुँच गया है, जिसने समाज में अबतक हुए सकारात्मक बदलावों की प्रक्रिया को बाधित कर दिया है. आज पांच वर्ष की बच्चियों को हिजाब पहने देखकर बुरा तो लगता है, पर जब एक तबका या गिरोह डरा धमका कर एक समुदाय को क्या खाना और पहनना चाहिए, यह तय करने लगा है, तो हम जैसों को उस हिजाब के पक्ष में; या उनके कुछ भी पहनने या न पहनने के अधिकार के पक्ष में खड़े होना पड़ता है. उन्होंने कहा कि इतनी क्रूरता, इतनी नफरत और ऐसे दमन का दौर पहले कभी नहीं था. ऐसी अशांति का सबसे बुरा असर उन तबकों पर पड़ता है, जो पहले से ही कमजोर और हाशिये पर होते हैं. आज महिलाएं सबसे अधिक असुरक्षित और पीड़ित हैं. समाज में सार्थक बदलाव पीढ़ियों के संघर्ष से आता है और ऐसे हालात में समाज दशकों पीछे चला जाता है. उन्होंने सीएए-एनआरसी के खिलाफ महिलाओं के शांतिपूर्ण आंदोलन को याद करते हुए उम्मीद जताई कि इस देश के लोगों ने अभी हार नहीं मानी है. वे लड़ रहे हैं. किसान आंदोलन के सामने सरकार के झुकने का उल्लेख करते हुए भी उन्होंने आशा व्यक्त की कि अब भी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है. लेकिन आगे कठिन लड़ाई है.
विशिष्ट अतिथि, संघर्ष वाहिनी के अरविन्द ने कनक के साथ अपने अनुभवों को याद करते हुए उनकी सौम्यता और दृढ़ता को उनके चरित्र की विशेषता बताया. कनक की छोटी बहन और आंदोलन की साथी कुमुद ने कनक के साथ अपने पारिवारिक रिश्तों का जिक्र करते हुए बताया कि उसमें भरपूर आत्मविश्वास था और उसने कभी अपने सिद्धांतों और मूल्यों से समझौता नहीं किया. कुमुद ने सांप्रदायिकता के बढ़ते खतरे के आलावा लोकतंत्र पर मंड़राते संकट का भी उल्लेख किया और इसे एक बड़ी चुनौती के रूप में देखने की जरूरत पर बल दिया. इसके बाद अधिकतर वक्ता कनक के साथ अपने आत्मीय संस्मरण साझा करते रहे. इस क्रम में कनक के व्यक्तित्व के अलग अलग पहलू उजागर होते रहे. राजनीति और आंदोलन से अलग उनमें आम लोगों के बीच आसानी से घुलमिल जाने, अपनी बात सहजता से कहने, खूब पढ़ने, खाने-खिलाने और घूमने का जो शौक था, वह उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का द्योतक था. समारोह में उपस्थित डॉ आलम आरा ने उन्हें अपनी काव्यमय श्रद्धांजलि दी. समारोह की अध्यक्ष डॉ करुणा झा ने कहा कि कनक भले ही आज सशरीर हमारे बीच नहीं है, लेकिन अपने विचार और आचरण से उन्होंने जो आदर्श पेश किया है, वह हमें हमेशा प्रेरित करता रहेगा.
समारोह में आदिवासी शोध संस्थान के निदेशक साहित्यकार रणेंद्र, वरिष्ठ पत्रकार बैजनाथ मिश्र और वाईएन झा, दीनानाथ, भारती, माला विश्वास, मंजुला, कुमुद और विनोद कुमार आदि ने भी अपनी स्मृतियों को साझा किया. समारोह में अधिवक्ता रश्मि कात्यायन, सीबी चौधरी, प्रभात खबर के अनुज सिन्हा और विनय भूषण सहित जमशेदपुर से आये संघर्ष वाहिनी के अनेक कार्यकर्त्ता उपस्थित थे. कार्यक्रम का संचालन डॉ किरण ने और धन्यवाद ज्ञापन स्वाति ने किया.
-सर्वोदय जगत डेस्क
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