अनेकता में एकता को हमेशा भारत की विशेषता बताया जाता है, मगर कई बार यह एकता बहुत झूठी और खोखली लगती है। यह देश एक दूसरे के विपरीत में दिखने वाली इतनी सारी विविधताओं से भरा हुआ है कि इसका फिर भी एक होना और बने रहना आश्चर्य से भर देता है। इस देश का जनमानस अनेक खाँचों में सिमटा हुआ है। उन खाँचों में से एक खाँचा महापुरुषों का भी है। यहाँ हर धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण, समूह के अपने-अपने महापुरुष हैं। इनमें से कुछ ही अखिल भारतीय स्वीकृति के स्तर तक पहुँचते हैं। बहुत से महापुरुषों का कभी समग्र मूल्यांकन इसी वजह से नहीं हो पाता कि उन्हें किसी समूह विशेष के महापुरुष के खाँचे में बैठा दिया जाता है। अपनी अखिल भारतीय पहचान के बावजूद डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर भी उन महापुरुषों में शामिल दिखते हैं। क्या इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में या यूं कहें कि पिछले सौ-सवा सौ सालों के इतिहास में न सिर्फ अखिल भारतीय, बल्कि विश्व स्तर पर भी चर्चित, प्रशंसित और स्वीकृत महापुरुषों में अग्रणी बाबासाहेब अंबेडकर महात्मा गांधी के धुर विरोधी के रूप में आजीवन अपनी भूमिका निभाते रहे।
यहाँ मजे की बात यह है कि गांधी ने कभी बाबासाहेब अंबेडकर को अपना विरोधी नहीं माना, किंतु बाबासाहेब ने महात्मा गांधी के प्रति अपना द्वेष और अपनी नाराजगी नहीं छुपायी। भारतीय समाज के विकास के क्रम में सबसे अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति को उसके अधिकार, उसका सम्मान और उसके अवसर मिलें, इसके लिए प्रयासरत इन दोनों महापुरुषों के दृष्टिकोण के अंतर को समझकर भविष्य में उसका समन्वय करके एक नये भारत की तस्वीर बनाने की जगह, इनके अनुयायियों, विशेषकर अंबेडकरवादियों ने गांधी के प्रति अपने द्वेष को पालने, पोसने और अगली पीढ़ी तक हस्तांतरित करने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी। गांधीवादियों ने भी शायद उनके द्वेष के साथ-साथ स्वयं अंबेडकर को ही अनेदखा करने की नीति अपना ली। कुछ ही लोगों ने उन दोनों के दृष्टिकोण और भूमिकाओं को समझने और उनके बीच के समान सूत्र को खोजने का आधा-अधूरा प्रयास किया।
अंबेडकरवादियों द्वारा गांधी के प्रति द्वेष का सबसे बड़ा प्रतीक हमेशा पुणे करार को माना गया। हमेशा यह प्रचारित किया गया और दुर्भाग्य से बाद में स्वयं बाबासाहेब ने भी इसे दोहराया कि गांधी की जान बचाने के लिए बाबासाहेब को अस्पृश्य वर्ग के हितों को बलि पर चढ़ाते हुए पुणे करार करने पर बाध्य होना पड़ा। इस बात को इतनी बार और इतनी तरह से दोहराया गया है कि अधिकांश लोगों के लिए यही सत्य हो गया है। जबकि इतिहास में दर्ज घटनाओं का बारीकी से अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि शायद यह अपने समय के सबसे ज्यादा प्रचारित झूठ में से एक है। इसे समझने के लिए हमें शुरू से शुरू करना होगा।
पुणे करार की जड़े 1931 में लंदन में आयोजित दूसरी गोलमेज परिषद तक जाती हैं, जिसमें महात्मा गांधी कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के तौर पर शामिल होते हैं, जबकि बाबासाहेब अंबेडकर अस्पृश्यों के प्रतिनिधि के रूप में शिरकत करते हैं। यह परिषद मुख्य रूप से भविष्य के भारत के संघीय ढाँचे और अल्पसंख्यकों के प्रश्नों पर केंद्रित थी। अल्पसंख्यकों के प्रश्नों पर कोई सहमति न होने के कारण यह बिना किसी नतीजे के खत्म हो गई, मगर इसमें गांधी और अंबेडकर के बीच के मतभेद खुलकर सामने आए। अंबेडकर जहाँ मुसलमान और सिख समुदाय की तरह अस्पृश्यों को भी अल्पसंख्यक मानकर उनके लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र की वकालत कर रहे थे, वहीं गांधी इसका मुखर विरोध कर रहे थे। परिषद विफल हो गई और सारा दारोमदार तत्कालीन प्रधानमंत्री जेआर मैक्डोनाल्ड के नेतृत्व वाली कमेटी द्वारा लिए जाने वाले निर्णय पर निर्भर हो गया, जिसे बाद में सांप्रदायिक निर्णय के नाम से जाना गया।
अंग्रेज सरकार द्वारा इस निर्णय की घोषणा से पूर्व ही महात्मा गांधी ने तत्कालीन भारत मंत्री सर सैमुएल होर को दिनांक 11 मार्च 1932 को एक पत्र लिखकर यह चेतावनी दे दी कि यदि अस्पृश्यों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र का निर्णय लिया गया तो उन्हें मजबूर होकर इसके खिलाफ अनशन करना होगा। उनकी इस चेतावनी को अनदेखा करके 17 अगस्त 1932 को सांप्रदायिक निर्णय की घोषणा कर दी गयी, जिसमें अस्पृश्यों के लिए कुल 78 पृथक निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था की गयी थी।
रोचक बात यह है कि अलग-अलग आधार पर गांधी और अंबेडकर दोनों इस निर्णय की आलोचना करते हैं। घोषणा के अगले ही दिन प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में जहाँ गांधी यह निर्णय न बदले जाने पर 20 सितंबर से आमरण अनशन की घोषणा करते हैं, वहीं अंबेडकर भी इसके विरोध में अपना मत व्यक्त करते हुए कहते हैं कि …. प्रांतीय विधि परिषद में जो सीटें हमारे हिस्से में आयी हैं, वे अत्यंत अपर्याप्त होने के कारण अस्पृश्यों के बहुत कम प्रतिनिधि विधि परिषद में जा सकेंगे और इसके कारण उनका जितना पड़ना चाहिए, उतना प्रभाव नहीं पड़ सकेगा। अर्थात अस्पृश्यों को अपने हितों की रक्षा के लिए जितनी कम से कम सीटें मिलनी चाहिए थीं, उतनी भी इस निर्णय के कारण न मिलने की वजह से यह निर्णय अस्पृश्य समाज की दृष्टि से देखने पर अधूरा, असंतोषजनक और अन्यायपूर्ण समझा जाना चाहिए।
महात्मा गांधी के पत्र के 8 सितंबर 1932 को दिए जवाब में खुद प्रधानमंत्री मैक्डॉनल्ड भी एक तरह से इसकी पुष्टि ही करते हैं – यह देखा जाएगा कि दलित वर्गों के विशेष निर्वाचन क्षेत्रों से भरी जाने वाली विशेष सीटों की संख्या अति अल्प हो। वह इस प्रकार नियत की गई है कि वह दलित वर्गों की समूची आबादी के कुल प्रतिनिधित्व के लिए संख्या की दृष्टि से समुचित कोटा नहीं होगा, बल्कि उसका एकमात्र उद्देश्य यह है कि विधान मंडल में दलित वर्गों के लिए न्यूनतम संख्या में प्रवक्ता तो हों और उन्हें केवल दलित वर्गों के लोग ही चुनें। उनकी विशेष सीटों का अनुपात सर्वत्र दलित वर्गों की जनसंख्या के प्रतिशत से कहीं कम है। अगले ही दिन प्रधानमंत्री को भेजे एक पत्र में गांधी यह स्पष्ट करते हैं कि दलित वर्ग को अनुपात में कम से उलट अनुपात से अधिक सीटें दिए जाने पर भी उनका कोई विरोध नहीं है। उनका विरोध दलितों को कानूनी रूप से हिंदुओं से अलग करने पर है।
कमाल की बात यह है कि गांधी और अंबेडकर दोनों इस निर्णय से अंसतुष्ट होने के बावजूद इसे लागू करने को लेकर एक-दूसरे के खिलाफ खड़े नज़र आते हैं। गांधी अनशन की अपनी घोषणा पर अडिग रहते हैं। सारे देश में इसे लेकर उत्तेजना फैल जाती है। अंबेडकर अचानक किसी खलनायक की तरह दिखाई देने लगते हैं। इसके बावजूद वह किसी भी तरह के दबाव में आने से स्पष्ट इंकार करते हैं।
गांधी का अनशन शुरू होने से ठीक एक दिन पूर्व 19 सितंबर 1932 को अंबेडकर एक पत्रक जारी करते हैं, जिसमें वे स्पष्ट कहते हैं–‘…… मुझे आशा है कि गांधीजी के प्राण और मेरे लोगों के अधिकार इन दोनों में से सिर्फ किसी एक बात का चुनाव करने का भीषण व नाजुक मौका गांधी जी मेरे समक्ष नहीं आने देंगे। क्योंकि यदि ऐसा कोई मौका आएगा तो मैं किस बात का चुनाव करूंगा, यह न कहने पर भी समझने योग्य है। कुछ भी हुआ तो भी स्पृश्य हिंदुओं के हवाले मेरे लोगों का भविष्य सौंपने के लिए मैं कभी भी तैयार नहीं होऊंगा।‘ जाहिर है, उनके लिए अपने लोगों का हित सर्वोपरि है, जिसके साथ वे किसी कीमत पर समझौता करने के लिए राजी नहीं थे। इसी दिन पंडित मदन मोहन मालवीय और अन्य अनेक हिंदू नेता मुंबई पहुँचते हैं। वहाँ एक परिषद होती है, जिसमें डॉ. अंबेडकर सहित अनेक अन्य दलित नेता भी शामिल होते हैं। डॉ. अबेडकर वहाँ स्पष्ट कर देते हैं कि किसी न किसी स्वरूप में स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्र के बगैर वह किसी तरह का समझौता नहीं करेंगे। डॉ. अंबेडकर को इस मुद्दे पर न झुकता देख, कोई वैकल्पिक योजना बनाने की जिम्मेदारी उनके ही नेतृत्व में एक समिति को सौंपी जाती है। उसी रात 10 बजे डॉ. अंबेडकर एक नयी योजना तैयार करके समिति के बाकी सदस्यों के सामने रखते हैं, जिसमें मुख्य रूप से सांप्रदायिक निर्णय में अस्पृश्यों को 78 पृथक निर्वाचन क्षेत्रों की जगह 197 आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों की मांग के साथ-साथ इसे लागू करने के तरीके तथा अन्य मांगें होती हैं।
इस योजना को पुणे में महात्मा गांधी को दिखाया जाता है और इसके बाद डॉ. अंबेडकर को चर्चा के लिए पुणे बुलाया जाता है। डॉ. अंबेडकर देश के अन्य दलित नेताओं को भी पुणे चर्चा में शामिल होने के लिए बुलाते हैं। 22 सितंबर 1932 की सुबह से चर्चा के दौर शुरू होते हैं। पहला गतिरोध आता है, डॉ. अंबेडकर द्वारा अस्पृश्यों के लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में प्राथमिक मतदान के माध्यम से दो सर्वाधिक मत पाने वाले उम्मीदवारों को ही आम चुनावों में हिस्सा लेने की अनुमति देने के नियम के सम्बन्ध में। बाबासाहेब को बताया जाता है कि महात्मा गांधी इस प्राथमिक चुनाव की व्यवस्था के लिए राजी नहीं हैं। अंबेडकर साफ कर देते हैं कि इस व्यवस्था के बिना वे बातचीत में आगे नहीं बढ़ेंगे। अंत में दोनों पक्ष शाम पाँच बजे येरवडा जेल में महात्मा गांधी के पास पहुँचते हैं। वहाँ करीब डेढ घंटा बाबासाहेब अपना पक्ष विस्तार से रखते हैं। आश्चर्यजनक रूप से न सिर्फ महात्मा गांधी इस प्राथमिक मतदान की व्यवस्था को मान्य करते हैं, बल्कि नयी योजना में पृथक निर्वाचन क्षेत्र की सभी अच्छी बातों के समावेश के लिए डॉ. अंबेडकर का अभिनंदन करते हैं।
अगले दिन चर्चा के अगले दौर में अनेक मुद्दों पर विस्तार से वाद-विवाद के बाद सहमति बनी, मगर एक मुद्दे पर आकर संवाद टूटने की स्थिति बन गई। अस्पृश्यों के लिए कितनी अवधि के लिए सीटें आरक्षित रखी जाएं और इस व्यवस्था को समाप्त करने का तरीका क्या हो, इस पर सारा दिन चर्चा के बाद भी कोई सहमति नहीं बनी। हिंदू नेता जहाँ इसे दस वर्ष के लिए लागू करने तथा उसके बाद इसके स्वयमेव खत्म होने के पक्षधर थे, वहीं बाबासाहेब का कहना था कि यह व्यवस्था कम से कम 15 वर्ष के लिए हो और अस्पृश्य वर्ग की सहमति के बाद ही इसे खत्म किया जाए। फिर एक बार यह मुद्दा महात्मा गांधी के समक्ष रात को साढ़े नौ बजे ले जाया गया। मदनमोहन मालवीय और डॉ. अंबेडकर ने अपने पक्ष रखे और इस बार भी गांधी ने अंबेडकर के पक्ष में अपनी सहमति दी।
अगले दिन यानी 24 सितंबर को चर्चा जल्द ही पूर्ण होकर कोई समझौता होगा, इसकी आशा के विपरीत फिर एक मुद्दे पर बातचीत अटक गई। हिंदू नेताओं का कहना था कि आरक्षित सीटों की व्यवस्था के संदर्भ में अस्पृश्य वर्ग के बीच पाँच साल बाद रेफरेंडम हो और अगर वह यह व्यवस्था खत्म करने के विरुद्ध निर्णय देते हैं, तो अगले पाँच वर्ष या दस वर्ष यह व्यवस्था जारी रखकर फिर अपनेआप इसे खत्म कर दिया जाए। डॉ. अंबेडकर दस वर्ष के बाद रेफरेंडम लेने तथा इसके बाद भी बिना अस्पृश्य वर्ग की सहमति के इस निर्णय को खत्म न करने की मांग पर अड़े हुए थे। अंत में डॉ. अंबेडकर ने इस मुद्दे पर महात्मा गांधी की राय जानने की इच्छा व्यक्त की और राजगोपालाचारी और घनश्याम दास बिड़ला के साथ वे येरवडा जेल पहुँचे। महात्मा गांधी ने एक बार फिर बिना अस्पृश्य वर्ग की सहमति के इस व्यवस्था को खत्म न करने की बाबासाहेब की मांग से पूर्ण सहमति जताई, मगर उनसे अनुरोध किया कि दस वर्ष की जगह पाँच वर्ष बाद यह रेफरेंडम हो।
बाबासाहेब दस वर्ष की अपनी मांग से पीछे हटने को राजी नहीं थे। अंत में यह तय किया गया कि किसी प्रकार की अवधि का उल्लेख ही समझौते में न किया जाए। इसके बाद अन्य मांगों पर विचार किया गया। आरक्षित स्थानों की संख्या विचार-विमर्श के बाद 148 तय की गई। अन्य बातों पर सहमति के बाद दोनों पक्षों के 23 व्यक्तियों ने 24 सितंबर को तथा 18 व्यक्तियों ने 25 सितंबर को इस समझौते पर दस्तख़त किए। इनमें प्रमुख रूप से मदनमोहन मालवीय, तेजबहादूर सप्रू, एमआर जयकर, डॉ. अंबेडकर, एमसी राजा, सी राजगोपालाचारी, पी बालू, घनश्यामदास बिडला, जीए गवई आदि शामिल थे। इस समझौते की सूचना ब्रिटिश सरकार को दी गई, जिसे उसने 26 सितंबर को मान्य किया और अंत में 27 सितंबर 1932 को गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की उपस्थिति में महात्मा गांधी ने अपना अनशन खत्म किया।
24 सिंतबर को इस समझौते पर दस्तखत के बाद 25 सितंबर 1932 को मुंबई के इंडियन मर्चेंट्स एसोसिएशन के हॉल में पंडित मदनमोहन मालवीय की अध्यक्षता में एक सभा का आयोजन किया गया, जिसमें डॉ. अंबेडकर भी शामिल हुए। इस सभा में तालियों की गड़गड़ाहट के बीच बोलते हुए डॉ अम्बेडकर ने इस समझौते पर आनंद व्यक्त करते हुए और इसका बड़ा श्रेय महात्मा गांधी को देते हुए कहा कि मुझे बहुत आश्चर्य होता है कि मेरी सभी मांगों को महात्मा गांधी ने न सिर्फ मान्यता दी, बल्कि इसके उलट मेरा अभिनंदन किया। इसके बाद 28 सितंबर को मुंबई के वरली इलाके में आयोजित अस्पृश्यों की एक सभा में भी डॉ. अंबेडकर ने इस बात को दोहराया कि महात्मा गांधी की भूमिका के कारण इस समझौते से अस्पृश्य वर्ग को पहले के मुकाबले ज्यादा फायदा हुआ है।
यह सारा घटनाक्रम और इस समझौते के तुरंत बाद हुई सभाओं में डॉ. अंबेडकर के वक्तव्य से यह बात पूरी तरह से स्पष्ट हो जाती है कि पुणे करार में कहीं भी बाबासाहेब ने दबाव में आकर अपने अस्पृश्य बंधुओं के हितों के साथ समझौता नहीं किया। चर्चा के टूटने की हद तक वह अपनी मांगों पर अड़े रहे। चर्चा टूटने की नौबत आने के तीनों अवसरों पर जब जब दोनों पक्ष महात्मा गांधी के पास पहुँचे, तो हर बार उन्होंने डॉ. अंबेडकर के पक्ष में अपना मत दिया। जिसके लिए खुद डॉ. अंबेडकर ने भी आश्चर्य व्यक्त किया। इसके अलावा साम्प्रदायिक निर्णय में दिए गए 78 पृथक निर्वाचन क्षेत्र के मुकाबले अस्पृश्य वर्ग को करीब दुगने 148 निर्वाचन क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व मिला। इसके बावजूद यह कहना कि महात्मा गांधी की जान बचाने के लिए मजबूरी में डॉ. अंबेडकर ने पुणे करार किया, न सिर्फ महात्मा गांधी के प्रति द्वेष फैलाने के लिए प्रचारित किया गया कोरा झूठ है, वरन यह खुद डॉ. अंबेडकर की नीयत, क्षमता और संकल्प का अपमान है।
यह सब जानते हैं कि महात्मा गांधी ने सारे द्वेष और घृणा के बावजूद हमेशा डॉ. अंबेडकर का सम्मान किया। स्वतंत्र भारत के पहले विधि व न्याय मंत्री के रूप में उनकी नियुक्ति हो या संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में उनका चुनाव, हर बार गांधी की सम्मति अंबेडकर के पक्ष में रही। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दोनों ही महापुरुषों का लक्ष्य एक समता आधारित समाज की रचना का था, जहाँ सबको विकास के समान अवसर और अधिकार मिल सकें। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए दोनों एक होकर काम नहीं कर सके। मगर पिछले 75 सालों का हमारा अनुभव बताता है कि इन दोनों के विचारों और तरीकों का कोई सुवर्ण मध्य खोजे बिना और उस दिशा में प्रयत्न किए बिना उस लक्ष्य की प्राप्ति बहुत दूर की कौड़ी ही रहेगी, जिसका सपना महात्मा गांधी और बाबासाहेब अंबेडकर ने देखा था। द्वेष और समन्वय के बीच चुनाव हमें करना है। जैसी हमारी नीयत होगी, वैसी ही इस देश की नियति होगी।
-पराग मांदले
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