Writers

पूंजीपतियों को गरीबों का शोषण करने की अनुमति नहीं देते गांधी

गांधीवाद केवल एक नैतिक आग्रह नहीं, अपितु एक अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र भी है. इसमें एक ओर वर्तमान आर्थिक जीवन की अनेक समस्याओं तथा सामाजिक जीवन में व्याप्त अनेक जटिलताओं का सम्यक समाधान निहित है, तो दूसरी ओर सुखद मानवीय भविष्य के लिए स्वतःस्फूर्त क्रान्ति की शिक्षादृष्टि भी है. गांधी उस अर्थशास्त्र को शास्त्र नहीं मानते, जो पूंजीपतियों को गरीबों का शोषण करके धन संग्रह की सुविधा देता है.

समाज और राज्य के आर्थिक मॉडल, लोकतान्त्रिक स्वरूप के मानवीय पक्ष निश्चित करते हैं. लोकतांत्रिक मूल्य ही सभ्यता संस्कृति के चेतन तत्व होते हैं, जो सभ्य समाज को अग्रगामी बनाते हैं. आज सारे विश्व की लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं कितनी मानवीय रह गई हैं? यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसका उत्तर अभी खोजा जाना बाकि है. आज व्यक्ति, समाज और राज्य का नियंत्रक वह भौतिक संपदा बनती जा रही है, जिसके दोहन से प्रकृति का विनाश हो रहा है. सभ्यता और संस्कृति को विनष्ट कर मनुष्य अपनी आवश्यकताओं को इस सीमा तक असीमित करता जा रहा है कि आज उसका अस्तित्व ही संकट में पड़ गया है.


पूंजीवादी दर्शन पर आधारित नवउदारवादी आर्थिक नीतियों और वैश्वीकरण से प्रेरित विश्वविजयी बाजारवाद राजनैतिक दांवपेंच की व्यवस्था में उलझ चुका है. नवउदारवाद का नेटवर्क बहुत ही शक्तिशाली है. संयुक्त राज्य अमेरिका का एक गैर सरकारी संगठन- एटलस नेटवर्क 100 से अधिक देशों में लगभग 500 से अधिक थिंक टैंकों के लिए अन्तर्राष्ट्रीय समर्थन, समन्वय और अनुदान उपलब्ध कराता है, जो विश्व भर में उदारवादी और मुक्त बाजार समूहों के लिए पशिक्षण और दिशा निर्धारण करते हैं. इन थिंक टैंको की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका, सारे विश्व में शैक्षणिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक परिवर्तन लाने में रही है.1990 के दशक तक दुनिया की वाममार्गी सरकारों ने भी अपनी आर्थिक नीतियों में नवउदारवाद के प्रमुख तत्वों को महत्त्व देना शुरू कर दिया था. सरकारें किसी विकल्प की तलाश करना ही नहीं चाहतीं, जबकि मनुष्य गुलामी की नई जंजीरों में जकड़ता जा रहा है.

इन प्रश्नों के उत्तर के रूप में गांधीवादी आर्थिक चिंतन पर विचार करने की आवश्यकता है. गांधी के आर्थिक दर्शन का आदर्श सादा जीवन, उच्च विचार है, जो हर प्रकार की दासता से मुक्ति प्रदान करता है. वह चाहे राज्य की दासता हो, चाहे पूंजी की दासता हो, चाहे विचार की दासता हो. गांधीवादी आर्थिक प्रारूप में हर किसी को क्षमतानुसार कार्य और आवश्यकतानुसार पुरस्कार की अवधारणा है. यह प्रारूप आवश्यकताविहीनता पर विचार नहीं करता और न ही आवश्यकता की अनंतता को प्रोत्साहित करता है. गांधीवादी चिंतन से स्वावलंबन पर आधारित, संघर्ष, शोषण और लोभ की अनंतता से मुक्त एक ऐसा ढांचा निर्मित होता है, जो लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण नहीं होने देता.

गांधीवादी मॉडल न किसी वर्ग का संरक्षण करता है और न किसी वर्ग के हित में अन्य वर्गों का होम ही करता है. गांधी की अर्थव्यवस्था में शासक वर्ग, पूंजीपति वर्ग, श्रमिक वर्ग, शिक्षित वर्ग, अनपढ़ वर्ग सभी का अस्तित्व सामान रूप से संरक्षित रहता है. गांधी दर्शन में आर्थिक समानता का तात्पर्य पूंजी और श्रम के बीच के झगड़ों को हमेशा के लिए समाप्त कर देना है. यानी देश के बड़े से बड़े धनवानों के हाथ में हुकूमत का जितना हिस्सा रहेगा, उतना ही गरीबों के हाथ में भी होगा, महलों और झोपड़ियों के बीच का फर्क तभी मिटेगा.

गांधी अहिंसा को न केवल व्यक्तिगत, बल्कि सामाजिक धर्म मानते थे. उनका विश्वास था कि ट्रस्टीशिप के सिद्धांत पर आधारित ‘सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय’ का आर्थिक ढांचा ही शोषणविहीन हो सकता है, जिसमें अर्थशक्ति का केन्द्रीकरण नहीं हो सकेगा. गांधी किसी भी स्थिति में मानवीय अर्थव्यवस्था के सामाजिक परिवर्तन के लिए हिंसा के पक्षधर नहीं थे. गाँधी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत के अनुसार देश की संपत्ति पर चन्द लोगों का एकाधिकार नहीं हो सकता. पूंजीपति केवल ट्रस्टी बनकर उस धन का उपभोग तभी तक कर सकते हैं, जबतक धन का उपयोग जनता के हित में हो तथा जनता का विश्वास भी बना रहे. गांधी अर्थ को जीवन का प्रधान तत्व नहीं मानते थे, वे उसके साथ मानवीय और सामाजिक मूल्यों को भी प्रधानता देते थे. भौतिकता की अंधी दौड़ में सामाजिक जीवन छिन्न-भिन्न हो जाए, गांधी ऐसा नहीं चाहते थे. प्रसिद्ध अर्थशास्त्री गुन्नार मिर्डल के अनुसार, गांधीवाद केवल एक नैतिक आग्रह नहीं, अपितु एक अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र भी है. इसमें एक ओर वर्तमान आर्थिक जीवन की अनेक समस्याओं तथा सामाजिक जीवन में व्याप्त अनेक जटिलताओं का सम्यक समाधान निहित है, तो दूसरी ओर सुखद मानवीय भविष्य के लिए स्वतःस्फूर्त क्रान्ति की शिक्षादृष्टि भी है. गांधी उस अर्थशास्त्र को शास्त्र नहीं मानते थे, जो पूंजीपतियों को गरीबों का शोषण करके धन संग्रह की सुविधा देता है.


गाँधी के आर्थिक विचार की आजादी के बाद उपेक्षा की गई. देश की अर्थव्यवस्था में जो तथाकथित विकास हुआ, जो औद्योगीकरण हुआ, उससे राष्ट्रीय आय के वितरण में असमानता बढ़ी. बड़े पूंजी निवेश पर आधारित बड़े उद्योगों का लाभ चन्द लोगों तक ही सीमित रह गया. इस अर्थव्यवस्था से निर्धनता और बेरोजगारी में वृद्धि के साथ ही आर्थिक तथा सामाजिक विसंगतियां भी बेतहाशा बढ़ीं. आर्थिक शक्ति कुछ ही हाथों में केन्द्रित होने से राजनितिक सत्ता भी कुछ ही हाथों में केन्द्रित होकर रह गई. निजी लाभ की होड़ ने पूरे देश के समक्ष बहुआयामी असंतुलन उत्पन्न कर दिया. गांधी के यथार्थवादी चिंतन के मूल में मशीन के समाजीकरण का सिद्धांत अंतर्निहित था. गांधी को समाज के मशीनीकरण के कारण होने वाले शोषण का भान था. वे ऐसी टेक्नोलाजी और मशीन के पक्षधर थे, जो गाँवों में ही स्थापित हो. वे गाँव में उत्पादित कच्चे माल का प्रयोग कर ऐसी चीजें बनायें, जो आम आदमी की जरूरतों की पूर्ति कर सके, ऐसी व्यवस्था में उत्पादन और वितरण पर आम आदमी का ही नियंत्रण रहेगा.

गांधी की दृष्टि में सच्ची आर्थिक नीति वह है, जो सामाजिक न्याय की हिमायत करे. आजादी के संघर्ष को उन्होंने विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार से जोड़ा और भारत को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में खादी को अमोघ अस्त्र बनाया, जिससे स्वदेशी अर्थशास्त्र की नींव पड़ी. चरखा गाँधी का वह सुदर्शन चक्र था, जिसके सम्बन्ध में उन्होंने कहा कि किसी गरीब विधवा के हाथ का चरखा उसे थोड़ा बहुत पैसे देने में मदद करता है, तो जवाहरलाल नेहरू जैसे व्यक्ति के हाथ में वह स्वाधीनता प्राप्त करने का साधन बन जाता है.

आजादी के बाद गाँधी के स्वदेशी अर्थशास्त्र को न समझकर, राजसत्ता का जो स्वरूप विकसित हुआ, उसमें पश्चिमपरक विकास की अवधारणा तथा बड़े उद्योगों को स्थापित करने की औद्योगिक नीति ने असंख्य स्वदेशी उद्योगों को मृतप्राय कर दिया. पश्चिमी मूल्यों तथा ज्ञान-विज्ञान के साथ समझौता करते हुए देश में एक ऐसा समाज विकसित हुआ, जिसके लिए सत्य, स्वदेशी, सहयोग, स्वधर्म, स्वायत्तता, स्वराज्य और अहिंसा चुके हुए मूल्य हो गए. इन्हें देश के विकास में बाधक समझा जाने लगा. गांधी के सपनों की सर्वोदय क्रान्ति ध्वस्त होती चली गयी. भारत का नागरिक स्वदेशी मनुष्य न रहकर दास या दस्यु बनता जा रहा है. देश की इस संकटपूर्ण स्थिति में जब बहुसंख्य लोगों का कल्याण न नगरीकरण कर पा रहा है, न आधुनिकीकरण, तो ऐसी दशा में गांधीवादी आर्थिक चिंतन की ओर उन्मुख होकर वर्तमान स्वदेशी और वैश्विक परिप्रेक्षों में उसकी अर्थवत्ता पर गंभीर रूप से सोचने की आवश्यकता है.

-डॉ चंद्रविजय चतुर्वेदी

Sarvodaya Jagat

Share
Published by
Sarvodaya Jagat

Recent Posts

क्या इस साजिश में महादेव विद्रोही भी शामिल हैं?

इस सवाल का जवाब तलाशने के पहले राजघाट परिसर, वाराणसी के जमीन कब्जे के संदर्भ…

5 days ago

सर्वोदय जगत – 01-15 मई 2023

  सर्वोदय जगत पत्रिका डाक से नियमित प्राप्त करने के लिए आपका वित्तीय सहयोग चाहिए।…

8 months ago

बनारस में अब सर्व सेवा संघ के मुख्य भवनों को ध्वस्त करने का खतरा

पिछले कुछ महीनों में बहुत तेजी से घटे घटनाक्रम के दौरान जहां सर्व सेवा संघ…

1 year ago

विकास के लिए शराबबंदी जरूरी शर्त

जनमन आजादी के आंदोलन के दौरान प्रमुख मुद्दों में से एक मुद्दा शराबबंदी भी था।…

1 year ago

डॉक्टर अंबेडकर सामाजिक नवजागरण के अग्रदूत थे

साहिबगंज में मनायी गयी 132 वीं जयंती जिला लोक समिति एवं जिला सर्वोदय मंडल कार्यालय…

1 year ago

सर्व सेवा संघ मुख्यालय में मनाई गई ज्योति बा फुले जयंती

कस्तूरबा को भी किया गया नमन सर्वोदय समाज के संयोजक प्रो सोमनाथ रोडे ने कहा…

1 year ago

This website uses cookies.