Editorial

राजद्रोह क़ानून पर सरकार की मंशा साफ नहीं

सरकार ने जो गाइडलाइन प्रस्तावित की है, उसमें व्यवस्था है कि ऐसे मामलों में कार्रवाई से पहले पुलिस अधीक्षक स्तर का एक अधिकारी मामले की जांच कर ले कि वास्तव में राजद्रोह का मामला बनता है या नहीं. लेकिन यह व्यावहारिक रूप में निरर्थक है. पुलिस अधीक्षक तो उसी सरकार के मातहत काम करता है, जो इस क़ानून का जानबूझकर अपने राजनीतिक विरोधियों अथवा आलोचकों का दमन करने या मुँह बंद करने के लिए इस्तेमाल करना चाहती है, इसलिए पुलिस अधीक्षक कैसे सरकार की मंशा के खिलाफ काम करेगा.

 

सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह क़ानून को असंवैधानिक घोषित किये बिना ही एक प्रकार से उसे निष्प्रभावी करके ऐतिहासिक कार्य किया है. शायद याचिका करने वालों ने भी यह उम्मीद नहीं की होगी कि अदालत अंतरिम आदेश के ज़रिये अंग्रेजों के बनाये इस डेढ़ सौ साल पुराने क़ानून के दांत तोड़ देगी.

क़ानून मंत्री किरन रिजुजू ने मीडिया में अपनी त्वरित प्रतिक्रिया में अदालत को लक्ष्मण रेखा पार न करने की जो हिदायत दी, उससे साफ़ ज़ाहिर है कि सरकार इस क़ानून को ख़त्म नहीं करना चाहती. पहले तो सरकार इस दमनकारी क़ानून की समीक्षा भी नहीं करना चाहती थी, लेकिन जब उसे महसूस हुआ कि ग़ैर भाजपा शासित राज्य इसी क़ानून का बेजा इस्तेमाल करके पार्टी कार्यकर्ताओं और समर्थकों को जेल भेज रहे हैं, तब सरकार अचानक रुख़ बदलकर समीक्षा के लिए तैयार हुई. महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री आवास के बाहर हनुमान चालीसा पढ़ने वाली सांसद पर राजद्रोह का मुक़दमा या गुजरात के विधायक जिगने़श मेवाणी की इसी क़ानून में गिरफ़्तारी राजद्रोह क़ानून के दुरुपयोग के ताजे उदाहरण हैं. उत्तर प्रदेश में तो पत्रकार भी राजद्रोह का मुक़दमा झेल रहे हैं.

लेकिन सरकार ने यह साफ़ संकेत भी दे दिया कि वह इस दमनकारी क़ानून को ख़त्म करने के बजाय कुछ संशोधन कर सकती है, जिसमें क़ानून का दुरुपयोग रोकने की व्यवस्था हो. सरकार ने जो गाइडलाइन प्रस्तावित की है, उसमें व्यवस्था है कि ऐसे मामलों में कार्रवाई से पहले पुलिस अधीक्षक स्तर का एक अधिकारी मामले की जांच कर ले कि वास्तव में राजद्रोह का मामला बनता है या नहीं. लेकिन यह व्यावहारिक रूप में निरर्थक है. पुलिस अधीक्षक तो उसी सरकार के मातहत काम करता है, जो इस क़ानून का जानबूझकर अपने राजनीतिक विरोधियों अथवा आलोचकों का दमन करने या मुंह बंद करने के लिए इस्तेमाल करना चाहती है, इसलिए पुलिस अधीक्षक कैसे सरकार की मंशा के खिलाफ काम करेगा.

सुप्रीम कोर्ट के जजों को सरकार की मंशा समझने में देर नहीं लगी, इसीलिए सरकार द्वारा क़ानून की समीक्षा की बात स्वीकार करते ही अदालत ने अंतरिम आदेश दे दिया. अदालत ने सीधे-सीधे क़ानून पर रोक लगाने के बजाय सरकार से ही अपेक्षा की है कि जब तक समीक्षा पूरी नहीं होती, इस क़ानून के तहत किसी पर मुक़दमा दर्ज नहीं होगा. इस क़ानून के तहत वर्तमान में तेरह हज़ार लोग जेलों में हैं, अब उनकी ज़मानत का रास्ता भी आसान हो गया है. जिन मामलों में चार्जशीट नहीं लगी है, फ़िलहाल आगे उनकी जांच नहीं होगी.

सवाल यह है कि यह क़ानून क्यों ख़त्म होना चाहिए. यह कानून ब्रिटिश हुकूमत ने अठारह सौ सत्तावन की बग़ावत के बाद उन लोगों को कुचलने के लिए बनाया था, जो अंग्रेज़ी हुकूमत को उखाड़ने की बात करते थे. अंग्रेज़ी हुकूमत ने विधि द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ बोलने अथवा किसी अन्य तरीक़े से अनास्था प्रकट करने को राजद्रोह करार दिया था,लेकिन आज़ाद भारत में संसदीय लोकतंत्र और चुनाव की व्यवस्था आयी, जिसमें विपक्षी दलों को नैतिक और वैधानिक अधिकार होता है कि वे सरकार की नीतियों और कामकाज की आलोचना कर उसे बदलने के लिए जनमत तैयार करें. डॉक्टर राम मनोहर लोहिया का मशहूर नारा था कि ज़िन्दा क़ौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करतीं. लोकतंत्र की बुनियाद मौलिक अधिकार हैं और भारत के हर नागरिक को अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार है. यह अधिकार मूलतः सरकार की आलोचना पर किसी उत्पीड़न की कार्रवाई से बचाव के लिए है.

क़ायदे से तो देश की स्वतंत्रता के बाद तत्काल इस क़ानून को समाप्त कर देना चाहिए था, पर एक तो उन दिनों इस क़ानून के दुरुपयोग की संभावना नगण्य थी, दूसरे देश विभाजन के बाद शांति व्यवस्था स्थापित करना बड़ा काम था, संभवतः इसी कारण इस मामले को प्राथमिकता नहीं मिली.

1962 में बिहार के केदारनाथ सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस क़ानून को सशर्त वैधता दी थी कि मात्र सरकार के ख़िलाफ़ बोलने से राजद्रोह का केस नहीं बनेगा, जब तक उसके परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर ऐसी हिंसा न हो, जिससे पब्लिक ऑर्डर यानी लोक व्यवस्था को ख़तरा उत्पन्न हो जाए, लेकिन सरकारों ने इस मर्यादा का पालन नहीं किया। वैसे तो सभी दलों की सरकारों ने इस क़ानून का दुरुपयोग किया है, लेकिन आँकड़े बताते हैं कि वर्ष 2014 में सत्ता परिवर्तन के बाद इसका बहुत ज़्यादा दुरुपयोग सामाजिक कार्यकर्ताओं, ट्रेड यूनियन नेताओं और राजनीतिक विरोधियों के ख़िलाफ़ हुआ है। अब देखना यह है कि मोदी सरकार इस क़ानून की समीक्षा के बाद क्या प्रस्ताव लेकर सुप्रीम कोर्ट के सामने आती है।

अनुभव बताता है कि अगर राजद्रोह क़ानून खतम भी हो जाए, तो सरकार के पास अभी तमाम ऐसे क़ानून हैं, जिनमें फ़र्ज़ी मुक़दमा करके लोगों को अनिश्चित काल के लिए जेल में डाला जा सकता है। इसलिए एक तो नागरिक समाज में जागरूकता लानी होगी कि जहां कहीं नागरिक अधिकारों का हनन हो रहा हो,वहां प्रतिकार हो और जहां आवश्यकता हो, वहां सत्याग्रह के हथियार का भी इस्तेमाल हो। दूसरे, नागरिकों के मौलिक अधिकारों और विधि के शासन की संरक्षक होने के नाते अदालतों को हर समय सतर्क रहना होगा कि किसी को फ़र्ज़ी और निराधार मामलों में एक दिन के लिए भी जेल में न रखा जाए।

-राम दत्त त्रिपाठी

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