Editorial

राज्य बनाम नागरिक

ज़रूरत है कि लोअर कोर्ट और हाईकोर्ट, सरकारों की बदनीयती, प्रतिशोध और दुश्चक्र को पहचान कर नागरिकों की रक्षा करें। हमें यह याद रखना चाहिए कि समाज की एकता और अखंडता के लिए न्याय एक अनिवार्य तत्व है, जिस राज्य और समाज में न्याय नहीं होगा, देर-सबेर उसका विखंडन निश्चित है।

झूठी खबरें जांचने परखने वाली वेबसाइट आल्ट न्यूज के संस्थापक मोहम्मद ज़ुबैर अहमद को लगभग चार हफ़्ते जेल में बिताने और काफ़ी जद्दोजेहद के बाद ज़मानत तो मिल गयी है, पर अभी न्याय नहीं मिला, न ही उन लोगों को कोई दंड मिला है, जिन्होंने यह फ़र्ज़ी आपराधिक मामला गढ़ा।

हाल ही में ऐसे अनेक मामलों से एक बड़ा सवाल यह भी उठ खड़ा हुआ है कि राज्य के दमन और प्रतिशोध से नागरिकों की रक्षा कैसे की जाये? क्या हम मान लें कि राज्य या सरकार तो है ही दमन और उत्पीड़न करने के लिए और इससे बचाने अथवा न्याय देने की ज़िम्मेदारी केवल न्यायालय की है?

अपराध नियंत्रण और दोषियों को दंड दिलाने में पुलिस के कामकाज की प्रक्रिया और रीति नीति के लिए स्पष्ट क़ानून बने हुए हैं, लेकिन मोटे तौर पर मान लिया गया है कि पुलिस को क़ानून के बजाय राज्य में सत्ताधारी दल की मर्ज़ी से काम करना है. फिर राज्य चाहे वह दिल्ली हो, उत्तर प्रदेश हो, बंगाल हो या कोई और राज्य हो।

ऊपर से इशारा होते ही पुलिस अधिकारी ताबड़तोड़ फ़र्ज़ी मुक़दमे क़ायम करके यह सुनिश्चित करते हैं कि अदालत से ज़मानत मिलने के बाद भी पीड़ित नागरिक जेल से बाहर न आने पाये। सुप्रीम कोर्ट को बहुत देर बाद मोहम्मद ज़ुबैर के मामले में इस दुष्चक्र को काटने का तरीक़ा समझ में आया। हालांकि इससे पहले तीस्ता सीतलवाड़ और हिमांशु कुमार के मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने भी निराश ही किया था।

आज जब सुप्रीम कोर्ट में सीनियर वकील एक-एक तारीख़ पर लाखों रुपये फ़ीस के रूप में वसूलते हैं, तो ऐसे में कितने पीड़ित नागरिक, कितनी बार अदालत का दरवाज़ा खटखटा सकते हैं? ज़रूरत है कि लोअर कोर्ट और हाईकोर्ट सरकारों की बदनीयती, प्रतिशोध और दुश्चक्र को पहचान कर नागरिकों की रक्षा करें।

सबसे पहले तो लोअर कोर्ट को आंख मूंदकर जुडीशियल या पुलिस रिमांड देने के बजाय यह देखना चाहिए कि पहली नज़र में कोई आपराधिक मामला बनता भी है या नहीं और क्या दंड प्रक्रिया संहिता के मुताबिक़ संदिग्ध आरोपी की गिरफ़्तारी ज़रूरी है? अगर गिरफ़्तारी ज़रूरी भी हो तो यह भी देखना चाहिए कि क्या आरोपी को ज़मानत पर रिहा किया जा सकता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया है कि ज़मानत के बारे में एक स्पष्ट क़ानून बनाना चाहिए, सरकार को इस पर बिना विलंब कार्यवाही करनी चाहिए।
हाल के दिनों में देखा गया है कि जिन मामलों में सरकार के मुखिया के इशारों पर इरादतन और प्रतिशोध में मुकदमे कायम किये जाते हैं और गिरफ़्तारियां होती हैं, उन मामलों में हाईकोर्ट भी हस्तक्षेप नहीं करते। यहां यह याद दिलाना ज़रूरी है कि दंड प्रक्रिया संहिता में हाईकोर्ट को विशेष अधिकार है कि वह न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग रोके अथवा न्याय के हित में कोई भी आपराधिक मामला रद्द कर दे। लेकिन अनेक बार मामला फ़र्ज़ी और विद्वेषपूर्ण होने के बावजूद हाईकोर्ट अपने अधिकारों का इस्तेमाल नहीं करते।

यह भी एक ग़लत धारणा बन गयी है कि न्याय करना केवल अदालत का काम है और सरकार तो है ही मनमानी और प्रतिशोधात्मक कार्यवाही के लिए। हम यह भूल जाते हैं कि हर मुख्यमंत्री और मंत्री बिना पक्षपात और भेदभाव किये, न्याय करने की शपथ लेता है। इसलिए ऐसे विद्वेषपूर्ण मामलों में कभी किसी मुख्यमंत्री अथवा मंत्री के खिलाफ संवैधानिक शपथ के उल्लंघन का मामला सुप्रीम कोर्ट/हाईकोर्ट में ले जाना चाहिए, ताकि उनके मनमानेपन पर अंकुश लगे।
दरअसल केवल पुलिस ही नहीं है, जिसका इस्तेमाल सरकार अपने आलोचकों या विरोधियों के खिलाफ करती है. सीबीआई, ईडी और इनकम टैक्स विभाग विद्वेषपूर्ण कार्यवाही में पुलिस से पीछे नहीं हैं। और तो और अब शहरी निकाय भी राजनीतिक आकाओं के इशारे पर विरोधियों के खिलाफ बुलडोज़र चलाने को उतावले रहते हैं।

सरकार बनाम नागरिक की यह लड़ाई तब और ख़तरनाक हो जाती है, जब लगातार एक समुदाय विशेष निशाने पर होता है। देश में संविधान, क़ानून, नियम और उपनियम बनाये ही इसलिए जाते हैं कि राज्य अथवा सरकार उनके दायरे में रहकर निर्धारित प्रक्रिया से क़ानून का शासन चलाये। इसीलिए नागरिकों के मौलिक अधिकार साफ़-साफ़ लिखे जाते हैं।

राज्य की तीनों शाखाओं विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका से अपेक्षा की जाती है कि विधि के अनुसार क़ानून का शासन हो। न्यायपूर्ण कार्य करना केवल न्यायपालिका की ज़िम्मेदारी नहीं है। हर स्तर पर प्रशासन के निर्णय न्यायपूर्ण होने चाहिए. यह ज़िम्मेदारी हर सिविल सर्वेंट, मजिस्ट्रेट और पुलिस अधिकारी की है।

वास्तव में लोकतंत्र में तो पक्ष-विपक्ष सभी राजनीतिक दलों की ज़िम्मेदारी है कि वे अपना नीति-निर्माण, कामकाज और आचरण, संविधान तथा नियम क़ानून और नैतिक मर्यादा के अनुसार करें. समाज में न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे मूलभूत मूल्यों को बढ़ावा दें, न कि इनके विपरीत आचरण करें। राजनीतिक दलों का यह भी कर्तव्य बनता है कि समाज में इन मूल्यों के प्रचार प्रसार के लिए लोक शिक्षण करें।

हमें यह याद रखना चाहिए कि समाज की एकता और अखंडता के लिए भी न्याय एक अनिवार्य तत्व है, जिस राज्य और समाज में न्याय नहीं होगा, देर- सबेर उसका विखंडन निश्चित है। विखंडन न हो, यह जिम्मेदारी हम भारत के लोगों की है, क्योंकि एक लोकतांत्रिक गणराज्य में जनता ही सम्प्रभु है। अगर हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि यानी संसद, सरकार को नियंत्रित नहीं कर सकती तो फिर जागरूक जनता को खुद ही आगे आना होगा।

-राम दत्त त्रिपाठी

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