Writers

राम, कृष्ण और शिव

राम मनोहर लोहिया की दृष्टि में

यों तो हरेक देश का अपना इतिहास होता है, इतिहास की राजनीतिक, साहित्यिक और दूसरे तरह की कई घटनाएं होती हैं। इतिहास की घटनाओं की एक लम्बी जंजीर होती है, उनको लेकर ही कोई सभ्यता और संस्कृति बनती है। उनका दिमाग पर असर रहता है। लेकिन इनसे अलग एक और जंजीर होती है, वह है क़िस्से-कहानियों वाली। राम, कृष्ण और शिव सचमुच इस दुनिया में कभी हुए या नहीं, कोई नहीं जानता। असली बात यह है कि इनकी जिन्दगी के किस्सों के छोटे-छोटे पहलू भी हिन्दुस्तान के करोड़ों लोग जानते हैं। पढ़ें डॉ राम मनोहर लोहिया का यह सुप्रसिद्ध विश्लेषण। यह मूल आलेख का संपादित अंश है।

राम, कृष्ण और शिव हिन्दुस्तान की उन तीन चीजों में हैं, जिनका असर हिन्दुस्तान के दिमाग पर अनेक ऐतिहासिक चरित्रों से भी ज्यादा है। गौतम बुद्ध या अशोक ऐतिहासिक लोग थे, लेकिन उनके काम के किस्से इतने ज्यादा और इतने विस्तार में आपको नहीं मालूम हैं, जितने राम, कृष्ण और शिव के क़िस्से। कोई आदमी वास्तव में हुआ या नहीं, यह इतना बड़ा सवाल नहीं है, जितना यह कि उस आदमी के काम किस हद तक, कितने लोगों को मालूम हैं और कितने लोगों के दिमाग पर उनका असर है। राम और कृष्ण तो इतिहास के लोग माने जाते हैं, हों या न हों, यह दूसरा सवाल है। थोड़ी देर के लिए मान लें कि वे उपन्यास के लोग हैं। शिव तो केवल एक किंवदंति के रूप में प्रचलित हैं। यह सही है कि कुछ लोगों ने कोशिश की है कि शिव को भी कोई समय और शरीर और जगह दी जाय। कुछ लोगों ने कोशिश की है यह साबित करने की कि वे उत्तराखंड के एक इंजीनियर थे, जो हिन्दुस्तान के मैदानों में गंगा को ले आये थे।


यह छोटे-छोटे सवाल हैं कि राम और कृष्ण और शिव सचमुच इस दुनिया में कभी हुए या नहीं। असली सवाल यह है कि इनकी जिन्दगी के किस्सों के छोटे-छोटे पहलू भी 5, 10, 20, 50 हज़ार लोग नहीं, बल्कि हिन्दुस्तान के करोड़ों लोग जानते हैं। ऐसा हिन्दुस्तान के इतिहास के किसी और आदमी के बारे में नहीं कहा जा सकता। मैं तो समझता हूँ, गौतम बुद्ध का नाम भी हिन्दुस्तान में शायद ज्यादा लोगों को मालूम नहीं होगा। उनके किस्से जानने वाले मुश्किल से हजार में 1-2 मिल जाएं तो मिल जाएं। लेकिन राम, कृष्ण और शिव के किस्से तो सबको मालूम हैं। लोगों के दिमाग पर उनका असर सिर्फ इसलिए नहीं है कि उनके साथ धर्म जुड़ा हुआ है। असर इसलिए है कि वे लोगों के दिमाग में एक मिसाल की तरह आते हैं और जिन्दगी के हरेक पहलू और हरेक कामकाज के सिलसिले में वे मिसालें, आँखों के सामने खड़ी हो जाती हैं। तब चाहे जानबूझकर, चाहे अनजान में, आदमी उन मिसालों के मुताबिक खुद भी अपने कदम उठाने लग जाता है। अगर मिसाल सोच-समझ कर दिमाग के सामने आये तो उसका इतना असर नहीं पड़ता, जितना बिना सोचे दिमाग में आ जाये। बिना सोचे कोई मिसाल दिमाग में आ जाये, सिर्फ मिसाल ही नहीं, बल्कि छोटे-छोटे किस्से भी, जैसे राम ने परशुराम को क्या कहा, कब कहा और कितना कहा, यह एक-एक किस्सा सबको मालूम है। या जब शूर्पणखा आयी, तो राम-लक्ष्मण और शूर्पणखा में क्या-क्या बातचीत हुई, या जब राम को वापस ले जाने के लिए भरत आये, तब उनकी आपस में क्या-क्या बातें हुईं, इन सबकी एक-एक तफ़सील, इसने यह कहा, उसने वह कहा, सबको मालूम है। इसी तरह से कृष्ण और अर्जुन की बातचीत और इसी तरह से शिव के किस्से हिन्दुस्तान के दिमाग की सतह पर खुदे हुए रहते हैं। यानी ये किस्से हमेशा मिसाल की तरह दिमाग और आँखों के सामने रहते हैं और किसी भी काम पर उनका बहुत असर पड़ता है।

यों तो हरेक देश का अपना इतिहास होता है। इतिहास की राजनीतिक, साहित्यिक और दूसरे तरह की कई घटनाएं होती हैं। इतिहास की घटनाओं की एक लम्बी जंजीर होती है, उनको लेकर ही कोई सभ्यता और संस्कृति बनती है। उनका दिमाग पर असर रहता है। लेकिन इनसे अलग एक और जंजीर होती है, वह है क़िस्से-कहानियों वाली, हितोपदेश और पंचतंत्र वाली। मैं समझता हूँ कि आपमें से भी क़रीब-क़रीब सभी को मालूम होगा कि किस तरह गंगदत्त नाम के मेढक ने प्रियदर्शन नाम के साँप को एक राजदूत के जरिये कुछ संदेश कहलाया था, ये किस्से और इनके पात्रों के नाम बड़े सुहावने हुआ करते हैं, मेढक का नाम गंगदत्त और साँप का नाम प्रियदर्शन! वे दूत भेजते हैं और दूत से बातचीत भी होती है। हितोपदेश और पंचतंत्र के इन किस्सों से करोड़ों बच्चों के दिमाग पर कुछ चीजें खुद जाती हैं, उसी पर नीतिशास्त्र बना करता है।

मैं जिनका जिक्र आज कर रहा हूँ, वे ऐसे किस्से नहीं हैं। उनके साथ नीतिशास्त्र सीधे नहीं जुड़ा हुआ है। ज़्यादा से ज़्यादा आप यह कह सकते हैं कि किसी भी देश की हँसी और सपने ऐसी महान किंवदंतियों में खुदे रहते हैं। हँसी और सपनों से बड़ी कोई दूसरी चीज़ दुनिया में नहीं होती। जब कोई राष्ट्र खुश होता है, तो उसका दिल चौड़ा होता है और जब कोई राष्ट्र सपने देखता है, तो अपने आदर्शों में रंग भर कर क़िस्से बना लेता है।

हमारी माइथोलोजी में राम, कृष्ण और शिव कोई एक दिन के बनाये हुए नहीं हैं। इनको आपने बनाया है। इन्होंने आपको नहीं बनाया। आमतौर पर तो हम यही सुनते हैं कि राम, कृष्ण और शिव ने हिन्दुस्तान या हिन्दुस्तानियों को बनाया। किसी हद तक शायद यह बात सही भी हो, लेकिन ज्यादा सही बात यह है कि करोड़ों हिन्दुस्तानियों ने युग-युगान्तर में राम, कृष्ण और शिव को बनाया, उनमें अपनी खुशियों और सपनों के रंग भरे, तब कहीं जाकर राम, कृष्ण और शिव जैसे चरित्र हमारे सामने आये।

राम और कृष्ण, विष्णु के रूप हैं और शिव महेश के। मोटे तौर पर लोग यह समझ लेते हैं कि राम और कृष्ण रक्षा या हिफाज़त के प्रतीक हैं और शिव विनाश के प्रतीक हैं। मुझे ऐसे अर्थ में नहीं पड़ना है। कुछ लोग हैं, जिन्हें हरेक किस्से में अर्थ ढूँढ़ने में मजा आता है। मैं अर्थ नहीं ढूँढ़ूँगा। जहाँ तक बन पड़ेगा, पिछले हज़ारों बरसों में हमारे पुरखों और हमारी क़ौम ने इन तीनों किंवदंतियों में अपनी जो बात डाली है, उसको सामने लाने की कोशिश करूँगा।

राम की सबसे बड़ी महिमा उनके उस नाम से मालूम होती है, जिसमें उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कह कर पुकारा जाता है। जो मन में आया, सो नहीं कर सकते। राम की ताकत बँधी हुई है, उसका दायरा खिंचा हुआ है। राम की ताकत पर कुछ नीति की या शास्त्र की या धर्म की या व्यवहार की या विधान की मर्यादा है। जिस तरह किसी भी कानून की जगह पर विधान रोक लगा दिया करता है, उसी तरह से राम के कामों पर रोक लगी हुई है। वह रोक क्यों लगी हुई है और किस तरह की है, इस सवाल में अभी आप मत पड़िए, लेकिन इतना कह देना काफ़ी होगा कि पुराने दक़ियानूसी लोग भी, जो राम और कृष्ण को विष्णु का अवतार मानते हैं, राम को सिर्फ़ 8 और कृष्ण को 16 कलाओं का कलाओं का अवतार मानते हैं। यहाँ कृष्ण सम्पूर्ण और राम अपूर्ण हैं। अपूर्ण शब्द सही नहीं होगा, लेकिन अपना मतलब बताने के लिए मैं इस शब्द का इस्तेमाल किये लेता हूँ। ऐसे मामलों में, कोई अपूर्ण और सम्पूर्ण नहीं होता है, लेकिन ज़ाहिर है, जब एक में 8 और दूसरे में 16 कलाएँ होंगी, तो उसमें कुछ नतीजा तो निकलेगा ही।

भागवत में एक बड़ा दिलचस्प किस्सा है। सीता खोयी थी, तब राम को दु:ख हुआ था। ज़्यादा दु:ख हुआ था। गो कि लक्ष्मण भी वहाँ पर थे और देख रहे थे, इसलिए राम का पेड़ों से बात करना और रोना वगैरह कुछ ज्यादा समझ में नहीं आता। अकेले राम रो लेते, तो बात दूसरी थी, लेकिन लक्ष्मण के देखते हुए पेड़ से बात करना और रोना वगैरह कुछ ज्यादा बढ़ गयी बात लगती है। कौन जाने, शायद वाल्मीकि और तुलसीदास को यही पसन्द रहा हो, लेकिन याद रखना चाहिए कि वाल्मीकि और तुलसीदास में भी फर्क है। वाल्मीकि की सीता और तुलसी की सीता, दोनों में बिलकुल अलग-अलग दुनिया का फर्क है। अगर कोई इस पर भी किताब लिखना शुरू करे कि सीता हिन्दुस्तान में तीन-चार हजार बरस के समय में किस तरह बदली हैं, तो वह बहुत ही दिलचस्प किताब होगी। अभी तक ऐसी किताबें लिखी नहीं जा रही हैं, लेकिन लिखी जानी चाहिए। खैर, तो राम रोये, पेड़ों से बात की, दुखी हुए और उस वक्त चन्द्रमा हँस रहा था। जाने क्यों चन्द्रमा को ऐसी चीजों में दिलचस्पी रहती है कि वह हँसा करता है, ऐसा लोग कहते हैं। वह खूब हँसा और कहा कि देखो, पागल कैसे रो रहा है?

राम विष्णु के अवतार तो थे ही, चाहे 8 ही कला वाले थे। शायद हजार, दो हजार बरस के बाद जब वे कृष्ण के रूप में आये, तो हजारों गोपियों के बीच अपनी लीला रचायी। वे 16 हजार थीं या 12 हजार थीं, इसका मुझे ठीक अन्दाज नहीं है। एक-एक गोपी के अलग-अलग से कृष्ण सामने आये और बार-बार चन्द्रमा की तरफ देख कर ताना मारा कि अब बोलो, अब हँसो। जो चन्द्रमा रोते हुए राम को देख कर हँसा था, उसी चन्द्रमा को उँगली दिखाकर कृष्ण ने ताना मारा कि अब हँसो जरा। 16 कला और 8 कला का यह फर्क रहा।

राम ने मनुष्य की तरह प्रेम किया। मैं इस बहस में बिलकुल नहीं पड़ना चाहता कि सचमुच कृष्ण ने ऐसा प्रेम किया या नहीं। यह बिलकुल फिजूल बात है। मैं शुरू में ही कह चुका हूँ कि ऐसी कहानियों का असर ढूंढ़ा जाता है, यह देखकर नहीं कि वे सच्ची हैं या झूठी, यह देखकर कि उनमें कितना सच भरा हुआ है और दिमाग पर उनका कितना असर पड़ता है। यह सही है कि कृष्ण ने प्रेम किया और ऐसा प्रेम किया कि बिलकुल बेरोये रह गये और तब चन्द्रमा को ताना मारा। राम रोये तो चन्द्रमा ने विष्णु को ताना मारा, कृष्ण 16 हजार गोपियों के बीच बाँसुरी बजाते रहे, तो चन्द्रमा को विष्णु ने ताना मारा। ये किस्से मशहूर हैं। इन्हीं में से आप और नतीजे निकालिये।


कृष्ण झूठ बोलते हैं, चोरी करते हैं, धोखा देते हैं और जितने भी अन्याय के, अधर्म के काम हो सकते हैं, वे सब करते हैं। जो कृष्ण के सच्चे भक्त होंगे, मेरी बात का बिलकुल भी बुरा न मानेंगे। एक बार जेल में मथुरा के एक बहुत बड़े चौबे जी से मेरा साथ हुआ था, अब मथुरा तो फिर मथुरा ही है। जितना ही हम उनको चिढ़ाना चाहें, वे खुद अपने आप कहने लगते थे कि हाँ वह तो माखनचोर था। हम कहें कि कृष्ण धोखेबाज था, तो वे कृष्ण का कोई न कोई धोखे का किस्सा ही सुना देते थे। जो कृष्ण के सच्चे उपासक हैं, उनको कृष्ण के झूठ, दगा, धोखेबाजी और लम्पटपन को याद करके मजा मिलता है। सो क्यों? 16 कलाएं हैं। कोई मर्यादा नहीं, सीमा नहीं, विधान नहीं है। यह ऐसी लोकसभा है, जिसके ऊपर विधान की कोई रुकावट नहीं है, जो मन में आये सो करे।

धर्म की विजय के लिए अधर्म से अधर्म करने को तैयार रहने के लिए कहने के प्रतीक हैं कृष्ण। आप खुद याद कर सकते हैं कि कब उन्होंने सूरज को छुपा दिया था, जबकि वह सचमुच नहीं छुपा था और कब एक जुमले के आधे हिस्से को जरा जोर से बोलकर और दूसरे हिस्से को धीमे बोलकर झूठ बोल गये थे। इस तरह की चालबाजियाँ तो कृष्ण हमेशा ही किया करते थे। कृष्ण 16 कलाओं के अवतार हैं, उन्हें किसी चीज की मर्यादा नहीं है। राम मर्यादित अवतार हैं, उनकी ताकत के ऊपर सीमा है, जिसे वे लाँघ नहीं सकते थे। कृष्ण बिना मर्यादा के अवतार हैं, लेकिन इसके यह मानी नहीं हैं कि जो कोई झूठ बोले और धोखा करे, वही कृष्ण हो सकता है। कृष्ण अपने किसी लाभ या राग के लिए झूठ नहीं बोलते। राग शब्द बहुत अच्छा शब्द है, मन के अन्दर राग होते हैं। राग चाहे लोभ के हों, क्रोध के हों, ईर्ष्या के हों, सब राग होते हैं। कृष्ण का धोखा, झूठ, बदमाशी और लम्पटपन, सब एक ऐसे आदमी का था, जिसे अपना कोई फायदा नहीं ढ़ूँढ़ना था, जिसे कोई लोभ नहीं था, जिसे ईर्ष्या नहीं थी, जिसे किसी के साथ जलन नहीं थी, जिसे अपना कोई बढ़ावा नहीं करना था। यह चीज मुमकिन है या नहीं, इस सवाल को आप छोड़ दीजिये। असल चीज है, दिमाग पर असर कि यह सम्भव है या नहीं। हम लोग इसे सम्भव मानते हैं, मैं खुद भी समझता हूँ कि अगर पूरा नहीं, तो अधूरा ही सही, किसी न किसी रूप में यह चीज़ सम्भव है।

राम और कृष्ण की तसवीरें आपकी आँखों के सामने नाचा करती होंगी। न नाचती हों, तो अब आगे से नाचा करेंगी। गाँधी जी के मारे जाने के बाद एक बार मेरे एक दोस्त ने कहा था कि साबरमती या काठियावाड़ की नदियों का बालक यमुना के किनारे जलाया गया और यमुना का बालक काठियावाड़ की नदियों के किनारे जलाया गया। फ़ासला दोनों में हजारों बरस का है। काठियावाड़ की नदी का बालक और यमुना नदी का बालक, दोनों में शायद इतना सम्बन्ध न दीख पाता होगा, कुछ अरसे पहले तक मुझे भी नहीं दीखता था, क्योंकि गाँधीजी ने खुद राम को याद किया और हमेशा याद किया। कृष्ण का नाम भी ले सकते थे और शिव का नाम भी ले सकते थे, लेकिन नहीं, उन्हें हिन्दुस्तान के सामने एक मर्यादित तस्वीर रखनी थी। एक ऐसी ताक़त, जो अपने ऊपर नीति, धर्म या व्यवहार की रुकावटों को रखे, मर्यादा पुरुषोत्तम का प्रतीक हो, ऐसी तस्वीर रखना चाहते थे।

गाँधी जी के काम मर्यादा के अन्दर रहकर ही हुए। ज्यादातर यह बात सही है, लेकिन पूरी सही भी नहीं है। यह असर दिमाग पर तब पड़ता है, जब आप गाँधी जी के लेखों और भाषणों को एक साथ पढ़ें। अंग्रेजों और जर्मनों की लड़ाई के दौरान हर हफ़्ते ‘हरिजन’ में उनके लेख या भाषण छपा करते थे। हर हफ़्ते उनकी जो बोली निकलती थी, उसमें इतनी ताक़त और इतना माधुर्य होता था कि मुझ जैसे आदमी को भी समझ में नहीं आता था कि उनकी बोली, हर हफ़्ते बदल रही है। बोली तो बोली, लेकिन उसकी बुनियादें भी बदल गयीं, ऐसा लगता था। कृष्ण भी अपनी बोली की बुनियाद बदल दिया करते थे, पर राम नहीं बदलते थे। कुछ महीने पहले का किस्सा है कि एकाएक मैंने लड़ाई के दिनों में गाँधी जी ने जो कुछ लिखा था, उसमें से 6 महीनों की बातें जब एक साथ पढ़ीं, तब पता चला कि किस तरह उनकी बोली बदल जाती थी। जिस चीज़ को आज अहिंसा कहा, उसीको 2-3 महीने बाद हिंसा कह डाला और इसके उलट, जिसे हिंसा कहा था, उसे अहिंसा कह डाला। वक़्ती तौर पर अपने संगठन के नीति-नियमों के मुताबिक जाने के लिए और अपने आदमियों को मदद पहुँचाने के लिए वे बुनियादी सिद्धान्तों में भी बदलाव करने के लिए तैयार रहते थे। उन्होंने यह किया, लेकिन ज्यादा नहीं किया।

मैं यह नहीं कहना चाहूँगा कि गाँधी जी ने कृष्ण का काम बहुत ज़्यादा किया, लेकिन काफ़ी किया। इससे कहीं यह न समझना कि गाँधी जी मेरी नज़रों में गिर गये, कृष्ण मेरी नज़रों में कहाँ गिर गये? ये तो ऐसी चीजें हैं, जिनका सिर्फ़ सामना करना पड़ता है। गिरने-गिराने का तो कोई सवाल ही नहीं है। आदमी को अपनी कसौटियाँ हमेशा पैनी और साफ़ रखनी चाहिए, जिससे पता चल सके कि जिस किसी चीज को उसने आदर्श बनाया है या जिन सिद्धान्तों को अपनाया है, उन्हें वह सचमुच लागू किया करता है या नहीं। जैसे साधनों की शुचिता के सिद्धान्त को गाँधी जी ने न सिर्फ़ अपनाया, बल्कि बार-बार दुहराया। इसी को उन्होंने अपनी जिन्दगी का सबसे बड़ा मक़सद समझा कि अगर मक़सद अच्छे बनाने हैं, तो तरीके भी अच्छे बनाने पड़ेंगे, लेकिन आपको याद होगा कि किस तरह बिहार के भूकम्प को अछूत-प्रथा का नतीजा बताकर उन्होंने एक अच्छा मक़सद हासिल करना चाहा था कि हिन्दुस्तान से अछूत-प्रथा ख़तम हो। बहुत बढ़िया मक़सद था, इसमें कोई शक नहीं। उन दिनों जब रवीन्द्रनाथ ठाकुर और महात्मा गाँधी में बहस हुई थी, तो मुझे एकाएक लगा कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर क्यों यह तीन-पाँच कर रहे हैं। आखिर गाँधी जी कितना बड़ा मक़सद हासिल कर रहे हैं! जाति-प्रथा मिटाना, हरिजन और अछूत-प्रथा मिटाना, इससे बड़ा और क्या मक़सद हो सकता है, लेकिन उस मक़सद को हासिल करने के लिए कितना बड़ा झूठ बोल गये कि बिहार का भूकम्प इसलिए हुआ कि हिन्दुस्तानी लोग आपस में अछूत-प्रथा चलाते हैं। भला भूकम्प, सूरज, तारे, आसमान और पानी वगैरह को इससे क्या पड़ी है कि हिन्दुस्तान में अछूत-प्रथा चलती है या नहीं।

मैं इस समय बुनियादी तौर पर राम और कृष्ण के बीच के इस फ़र्क को सामने रखना चाहता हूँ कि एक तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, उनकी ताक़तों के ऊपर रोक है और दूसरा बिना रोक का, स्वयंभू है। यह सही है कि वह राग से परे है, राग से परे रहकर सबकुछ कर सकता है, उसके लिए नियम और उपनियम नहीं हैं।

शिव एक निराली अदा वाला है। दुनिया भर में ऐसी कोई किंवदन्ति नहीं, जिसकी न लम्बाई है, न चौड़ाई है और न मोटाई है। एक फ्रांसीसी लेखक ने शिव के बारे में एक बार कहा था कि वह तो ‘नॉन डाइमेंशनल मिथ’ है। किंवदन्तियाँ दुनिया में और जगह भी हैं, खास तौर से पुराने मुल्कों में, जैसे ग्रीस आदि में बहुत हैं। कहाँ नहीं हैं? बिना किंवदन्तियों के कोई देश रहा ही नहीं। जितने पुराने देश हैं, उनमें किंवदन्तियाँ ज्यादा हैं। मैंने शुरू में ही कहा था कि एक तरफ हितोपदेश और पंचतंत्र की गंगदत्त और प्रियदर्शन जैसी बच्चों की कहानियाँ हैं, तो दूसरी तरफ हजारों बरस के काम के नतीजे के स्वरूप कुछ लोगों में कौम की ख़ुशी और सपने भरे हुए हैं, ऐसी किंवदन्तियाँ हैं।

शिव एक ऐसी किंवदन्ति है, जिसका न आदि है, न अंत। यहाँ तक कि वह एक किस्सा मशहूर है कि जब ब्रह्मा और विष्णु आपस में लड़ गये, तो शिव ने उनसे कहा कि लड़ो मत। जाओ, तुममें से एक मेरे सिर का पता लगाए और दूसरा मेरे पैर का पता लगाए और फिर लौटकर मुझसे कहो। जो पहले पता लगा लेगा, उसकी जीत हो जाएगी। दोनों पता लगाने निकले। शायद अब तक पता लगा रहे हों! जो ऐसे किस्से-कहानियाँ गढ़ा करते हैं, उनके लिए वक़्त का कोई मतलब नहीं रहता। कोई हिसाब और गणित वगैरह का सवाल नहीं उठता उनके सामने। खैर, किस्सा यह है कि बहुत अरसे के बाद, न जाने कितने लाखों बरसों के बाद ब्रह्मा और विष्णु दोनों लौटकर आये और शिव से बोले कि भई, पता तो नहीं लगा। तब उन्होंने कहा कि फिर क्यों लड़ते हो? फ़िजूल है।

यह असीमित किंवदन्ति है। इसके बारे में बार-बार मेरे दिमाग में एक ख़याल आता है कि दुनिया में जितने भी लोग हैं, चाहे ऐतिहासिक हों, चाहे किंवदन्ति वाले, उन सबके कर्मों को समझने के लिए कर्म और फल देखना पड़ता है। उनके जीवन में ऐसी घटनाएँ हैं, जिन्हें एकाएक नहीं समझा जा सकता। वे अजीब-सी मालूम पड़ती हैं। उन घटनाओं को समझने के लिए पहले का कारण और बाद का फल ढूँढ़ना पड़ता है, तब जाकर वे सही मालूम पड़ती हैं। आप भी अपनी आपस की घटनाओं को सोच लेना। आपके भी आपस में रिश्ते होंगे। उन आपसी रिश्तों के प्रकाश की एक श्रृंखला होती है। अगर कोई चाहे कि उनमें से एक ही कड़ी को पकड़ कर पता लगाये कि आदमी अच्छा है या बुरा, तो ग़लती कर जायेगा, क्योंकि उस कड़ी के पहले वाली कड़ी कारण के रूप में है और उसके बाद वाली कड़ी फल के रूप में है। अमुक काम क्यों हुआ, उसका कारण क्या था और उसको करने के बाद परिणाम क्या निकला, यह सब देखना पड़ता है। कारण और परिणाम देखना, हर आदमी, हर किस्से और सीमित किंवदन्ति को समझने के लिए जरूरी होता है।

शिव ही एक ऐसी किंवदन्ति है, जिसका हरेक काम अपने औचित्य को अपने-आप में रखता है। शिव का कोई भी काम आप ढूँढ़ लो, वह उचित काम होगा। उनके लिए पहले या बाद की कोई कड़ी नहीं ढूँढ़नी पड़ेगी। क्यों शिव ने ऐसा किया, उसका क्या नतीजा निकला, यह सब देखने की कोई जरूरत नहीं होगी। औरों के लिए इसकी जरूरत पड़ जाएगी। राम के लिए जरूरत पड़ेगी, कृष्ण के लिए जरूरत पड़ेगी, दुनिया में हरेक आदमी के लिए इसकी जरूरत पड़ेगी। दूसरों के बारे में कर्म और फल की एक पूरी कड़ी बँधती है, लेकिन मुझे तो ढूँढ़ने पर भी शिव का ऐसा कोई काम नहीं मालूम पड़ा कि मैं कह सकूँ कि उन्होंने क्यों ऐसा किया। यह चीज़ बहुत बड़ी है।


आज की दुनिया में प्राय: सभी लोग अपने मौजूदा तरीके को, गंदे कामों को उचित बताते हैं, यह कहकर कि आगे चलकर उसके परिणाम अच्छे निकलेंगे। वे एक कड़ी बाँधते हैं कि भविष्य में उसके कुछ ऐसे नतीजे निकलेंगे कि वे काम अच्छे हो जाएँगे। दुनिया के दिमाग में एक ऐसी श्रृंखला बाँधते हैं कि किसी भी काम के लिए कोई कसौटी नहीं बना सकती मानवता, जबकि कसौटियाँ होनी चाहिए। काम अच्छा है या बुरा, इसका कैसे पता लगाएँगे। कोई कसौटी होनी ही चाहिए। अगर एक के बाद एक कड़ी बाँध देते हो तो कोई कसौटी नहीं रह जाती। फिर तो मनमानी होने लग जाती है, क्योंकि जितनी लम्बी जंजीर हो जायेगी, उतना ही ज्यादा लोगों को मौका मिलेगा अपनी मनमानी बात उसके अन्दर रखने का। ऐसा दर्शन बनाओ, ऐसा सिद्धान्त बनाओ, जिसमें मौजूदा घटनाओं को भविष्य की किसी बड़ी घटना से जोड़ दिया जाये, तो फिर मौजूदा घटनाओं में कितना ही गंदापन रहे, लेकिन उस भविष्य की घटना, जो होने वाली है, जिसके बारे में कोई कसौटी नहीं बन सकती कि वह होगी या नहीं होगी, उसको लेकर मौजूदा घटनाओं का औचित्य या अनौचित्य ढूँढ़ा जाता है और यह हमेशा हुआ है।

यहाँ मैं सिर्फ कृष्ण का ही किस्सा बता देता हूँ कि अश्वत्थामा के बारे में धीमे बोलना या ज़ोर से बोलने के औचित्य और अनौचित्य को, महाभारत से पुराने किस्से और आगे आने वाली घटना के साथ जोड़ दिया जाता है। यह बुरा काम है, ऐसा खुद मानकर चलना पड़ता है, लेकिन किसी बुरे काम का पुराने कारण से और भविष्य में आने वाले परिणाम से औचित्य साबित हो जाता है। आप शिव का ऐसा कोई किस्सा नहीं पायेंगे। शिव का हरेक किस्सा अपने-आप में उचित है। उसी के अन्दर सब कारण और सब फल भरे हुए हैं, जिससे मालूम पड़ता है कि वह सही है और उसमें कोई ग़लती नहीं हो सकती।

हो सकता है कि राम, कृष्ण और शिव, इन तीनों को लेकर कइयों के दिमाग में अलगाव की बातें भी उठती हों। मैं आपके सामने अभी एक विचार रख रहा हूँ। एक बार मैंने जब 1951-52 के आम चुनावों के नतीजे पर सोचना शुरू किया, तो मेरे दिमाग में एक अजीब-सी बात आई। आपको याद होगा कि उस समय एक इलाका ऐसा था, जहाँ कम्युनिस्ट जीते थे, दूसरा इलाका ऐसा था, जहाँ सोशलिस्ट जीते थे, तीसरा इलाका ऐसा था, जहाँ धर्म के नाम पर कोई न कोई संस्था जीती थी। यों, सब जगह कांग्रेस जीती थी और सरकार उसी की रही, लेकिन हिन्दुस्तान के ये कुछ ऐसे इलाके थे, जहाँ ये तीनों पार्टियाँ अलग-अलग जीतीं, यानी कहीं कम्युनिस्ट नम्बर 2 पर रहे, कहीं सोशलिस्ट नम्बर 2 पर रहे और कहीं जनसंघ, रामराज्य परिषद वगैरह नम्बर 2 पर रहे। मैं यह नहीं कहता कि जो कुछ मैं कह रहा हूँ, वह सही ही है, लेकिन मुमकिन है कि इसके ऊपर अगर विचार करें,तो हिन्दुस्तान के नक्शे के 3 हिस्से बनते हैं। एक नक्शा वह, जहाँ राम सबसे ज्यादा चला, दूसरा वह, जहाँ कृष्ण सबसे ज्यादा चला और तीसरा वह, जहाँ शिव सबसे ज्याद चला। मैं जब राम, कृष्ण और शिव कहता हूँ तो जाहिर है, उनकी पत्नियों को भी शामिल कर लेता हूँ, उनके नौकरों को भी शामिल कर लेना चाहिए, क्योंकि ऐसे भी इलाके हैं, जहाँ हनुमान चलता है, जिसके साफ़ मानी हैं कि वहाँ राम चलता है, ऐसे भी इलाके हैं जहाँ काली और दुर्गा चलती हैं, इसके साफ़ मानी हैं कि वहाँ शिव चलता है। ये हिन्दुस्तान के इलाके हैं, जहाँ पर इन तीनों ने अपना-अपना दिमागी साम्राज्य बना रखा है। किंवदन्तियों और विचारों का दिमागी साम्राज्य भी होता है।

मोटे तौर पर शिव का इलाका वह था, जहाँ कम्युनिस्ट नम्बर 2 हुए थे। उसी तरह, कृष्ण का इलाका वह था, जहाँ संघ और रामराज्य परिषद वाले नम्बर 2 हुए थे और राम का इलाका वह था, जहाँ सोशलिस्ट नम्बर 2 हुए थे। मैं मानता हूँ कि मैं खुद चाहूँ तो इस विचार को एक मिनट में तोड़ सकता हूँ, क्योंकि ऐसे बहुत से इलाके मिलेंगे, जो जरा दुविधा के रहते हैं। किसी बड़े ख्याल को तोड़ने के लिए छोटे-छोटे अपवाद निकाल देना कौन-सी बड़ी बात है! हिन्दुस्तान की किंवदन्तियों के इन तीन साम्राज्यों के मुताबिक ही हिन्दुस्तान की जनता ने अपनी विरोधी शक्तियों को चुनने की कोशिश की। आप कह सकते हैं अभी तो तुमने शिव की बड़ी तारीफ़ की थी। तुम्हारा यह शिव कैसा निकला? जहाँ पर शिव की किंवदन्ति का साम्राज्य है, वहाँ तो कम्युनिस्ट जीत गये। तो फिर मुझे यह कहना पड़ता है कि जरूरी नहीं कि इन किंवदन्तियों के अच्छे ही असर पड़ते हैं, सब तरह के असर पड़ सकते हैं।

शिव अगर नीलकंठ हैं और दुनिया के लिए अकेले जहर को अपने गले में बाँध सकते हैं, तो उसके साथ-साथ धतूरा खाने और पीने वाले भी हैं। शिव की दोनों तस्वीरें साथ-साथ जुड़ी हुई हैं। हिन्दुस्तान में करोड़ों लोग समझते हैं कि शिव धतूरा पीते हैं, शिव की पलटन में लूले-लँगड़े हैं, उसमें जानवर भी हैं, भूत-प्रेत भी हैं और सब तरह की बातें जुड़ी हुई हैं। लूले-लँगड़े, भूखे के मानी क्या हुए? गरीबों का आदमी।

शिव का वह किस्सा भी आपको याद होगा, शिव ने सती को मना किया था कि तुम अपने पिता के यहाँ मत जाओ, क्योंकि उन्होंने तुमको बुलाया नहीं। फिर भी सती गयीं। यह सही है कि उसके बाद शिव ने बहुत जबरदस्त गुस्सा दिखाया। धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके किशोर चन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम.….! शिव की जो तसवीरें अक्सर आँख के सामने आती हैं, वह किस तरह की हैं? जटा में चन्द्रमा है, लेकिन लपटें ज्वाला की निकल रही हैं, धगद्धगद हो रहा है। सब तरह की और बिना सीमा की किंवदन्ति सामने खड़ी हो जाती है- शक्ति की, फैलाव की, सब तरह के लोगों को साथ समेटने की।

इसी तरह कृष्ण और राम की किंवदन्तियों के भी दूसरे स्वरूप हैं। राम चाहे जितने ही मर्यादा पुरुषोत्तम रहे हों, लेकिन अगर उनके किस्से का मामला बैलगाड़ी की पुरानी लीक तक ही फँस कर रह जाएगा तो फिर उनके उपासक कभी आगे बढ़ नहीं सकते। वे लकीर में ही बँधे रह जाएँगे। यह सही है कि राम के उपासक बुरा काम नहीं करेंगे, क्योंकि बुराई और अच्छाई, दोनों करने में वे मर्यादा से बँधे हुए हैं। शिव या कृष्ण में इस तरह बन्धन का कोई मामला नहीं है। कृष्ण में तो किसी भी नीति के बन्धन का मामला नहीं है। शिव में हर एक घटना बड़े महत्व की हो जाती है। तांडव की भी कोई बुनियाद होती है: एक गाढ़ी निद्रा के दौरान एकाएक आँख खुली, लीला देखी, आँखें इधर-उधर मटकायीं और फिर आँखें बन्द हो गयीं।

इससे एक तामस भी जुड़ा हुआ है। शान्ति सतोगुण का प्रतीक है, लेकिन अगर शान्ति कहीं बिगड़ना शुरु हो जाये तो फिर वह तामस का रूप ले लेती है। चुप बैठो, कुछ करो मत, धगद्धगद होता रहे, धतूरा या उसके प्रतीक की कोई न कोई चीज़ चलती रहे। हमारे देश में अकर्मण्यता का तो बहुत जबरदस्त दार्शनिक आधार है। यह सही है कि अलग-अलग मौकों पर हिन्दुस्तान के इतिहास में अलग-अलग दार्शनिकों ने कर्म के सिद्धान्त को, अपने हिसाब से समझाने की कोशिश की है, लेकिन बुनियादी तौर पर हिन्दुस्तान का असली कर्म-सिद्धान्त यही है कि जहाँ तक बन पड़े, अपने-आप को कर्म की फाँस से रिहा करो। यह सही है कि जो पुराने संचित कर्म हैं, उनसे तो छूट सकते नहीं, उनको तो भुगतना पड़ेगा, वे तो और नये कर्मों में आएँगे ही, लेकिन कोशिश यह करो कि नये कर्म न आएँ। हिन्दुस्तान की सभ्यता का यह मूलभूत आधार कभी नहीं भूलना चाहिए कि नये काम मत करो, पुराने कामों को भुगतना ही पड़ेगा और जब कामों की श्रृंखला टूट जाएगी, तभी मोक्ष मिलेगा। शिव जैसी किंवदन्ति और इस तरह के विचार के मिल जाने के बाद कई बार तामस भी आ जाता है, साथ-साथ एकाएक कोई विस्फोट हो जाया करता है, अगर किंवदन्ति कहीं बिगड़ गयी तो यह सम्भावना हो जाती है कि विस्फोट हो जाये। जब किंवदन्तियाँ बिगड़ती हैं, तो चाहे राम का इलाका हो, चाहे कृष्ण का इलाका हो, चाहे शिव का इलाका हो, बिगड़ती ही चली जाती हैं।

मैंने इन तीन किंवदन्तियों के बड़े स्वरूप आपके सामने रखे। इनके किस्से किसी भी काम के लिए मनोहर और छाती को चौड़ा करने वाले हैं। जरूरी नहीं कि कोई इन किस्सों को माने। अगर ये झूठे हैं तो इससे मुझसे क्या मतलब? किस्से तो हैं न! आखिर हम उपन्यास पढ़ते हैं कि नहीं? हम हितोपदेश और पंचतंत्र के गंगदत्त और प्रियदर्शन को याद रखते ही हैं।

वह नीलकण्ठ शिव, जिसके हर एक काम का औचित्य उसके अन्दर बना हुआ है। वह मर्यादा पुरुषोत्तम राम और वह योगेश्वर कृष्ण, जो लीला करके चन्द्रमा को ताने मारा करता है। ये सब किसी भी आदमी के दिल को बड़ा करने वाले किस्से हैं। हमारे देश ने इस बात का भी थोड़ा-बहुत इंतजाम किया कि ये किंवदन्तियाँ आपस में न टकराएँ। अगर वे कहीं टकराती हैं, मुमकिन भी है, तो बोलचाल में, कहीं लोगों में गरम बोल-चाल हो गयी हो आपस में या लोगों ने मूर्तियाँ तोड़ी हों। मूर्तियाँ तो आज भी टूटती हैं और पहले के जमाने में भी टूटी होंगी। इसमें आदमी को बहुत सोच-विचार नहीं करना चाहिए। यह सब तो लीला की तरह चलता ही रहता है। कहीं पर मूर्ति टूट गयी या बन गयी, यह सब तो चलता ही है। ख़ैर, तो ये इंतजाम किये गये हैं कि तीनों आपस में टकराएँ नहीं।

सिर्फ यमुना और सरयू में ही एका करने की कोशिश नहीं की गयी। जब तुलसीदास यमुना के किनारे गये, तो उन्होंने अपना सिर नवाने से इनकार कर दिया, यह जानते हुए कि सब एक ही माया है। उन्होंने कहा कि भई हाथ में धनुष-बाण लो, अपनी मुरली अलग रखो तब मैं अपना सिर नवाऊँगा। फिर मुरली अलग हुई, धनुष-बाण हाथ में आया और यमुना तथा सरयू एक हो गयी। हमारे यहाँ के जो गाने-बजाने वाले हैं, वे राम को हमेशा यमुना के तट पर होली खिलवा के छोड़ देते हैं। यमुना के तट पर राम होली खेलें, तो अब कहो कि ये कौन सी बात है? सरयू के तट पर कृष्ण अपनी कौन-सी रास-लीला रचायें? ये सब चीजें हमारे लेखक कर दिया करते हैं। बड़ा लेखक बहुत बड़ा आदमी होता है। वह राम को भेज देता है यमुना के किनारे और कृष्ण को भेज देता है सरयू के किनारे। फिर यह क्यों न सम्भव हो कि हिन्दुस्तानी लोग भी ऐसी किंवदन्ति अपनी आँखों के सामने लायें, जिसमें शिव अपनी जटा में सिर्फ चन्द्रमा ही नहीं, मुरली वाले कृष्ण को भी लिये हों और खुद मर्यादा पुरुषोत्तम राम के साथ तांडव कर रहे हों।

6 महीने तक मरी हुइ पार्वती को अपने कंधों पर डाल कर ले चलना, यह भी एक अनोखा प्रेम है। लड़ाई के मैदान में दुनिया के शायद सबसे बड़े दर्शन को गीत के रूप में कह देना, यह भी एक अनोखा दर्शन है। यों हिन्दुस्तान में एक अजीब खूबी पायी गयी है कि अपने दर्शन को उसने गीत के रूप में कहा। दूसरी कौमों ने भी इसकी कोशिश की, लेकिन उन्हें उतनी सफलता नहीं मिली। राम ने अपनी ताकत को मर्यादा के अन्दर रखकर अपना काम किया। जब रावण मर रहा था तो राम ने लक्ष्मण को रावण से राजनीति सीखने के लिए कहा। पहले नहीं भेजा था। हर एक चीज का अपना वक्त होता है। कई लोग कहते हैं कि राम बड़े चतुर थे। हो सकता है कि वह चतुर रहे हों। लक्ष्मण और परशुराम के संवाद में अक्सर ऐसा मालूम होता है कि जैसे बड़ा भाई छोटे भाई को मजे में उकसा रहा हो कि तुम ताना मारो, मैं तो हूँ ही, अगर मामला बिगड़ेगा तो बचा ही लूँगा, तुम जरा मामला बढ़ाते रहो। इसी तरह शूर्पणखा के मामले में मालूम पड़ता है कि बड़े भाई साहब छोटे भाई को अगर उकसा नहीं रहे हैं, तो कम से कम मजा तो जरूर ले रहे हैं। ख़ैर, राम ने लक्ष्मण को कभी भी रावण के पास लड़ाई के दौरान नहीं भेजा। जब रावण मर रहा था, तब भेजा। लक्ष्मण लौटकर आये और बोले कि रावण तो कुछ बोलने को ही तैयार नहीं। तब राम ने उनसे कहा कि रावण के पैरों के पास खड़े होकर निवेदन करो। लक्ष्मण फिर गये, रावण के पैरों के पास खड़े हुए, तो उन्हें जवाब मिला। ऐसे बढ़िया- बढ़िया किस्से हैं।

यह छोटा-सा किस्सा है कि दोनों दुश्मन हैं, बहुत बड़ी लड़ाई लड़ी गयी और जब दुश्मन मर गया, तब उसके पास अपना आदमी जाता है, मर गया तब, पहले नहीं। यहाँ मुझे सिर्फ इतना बताना है कि इन किस्सों की एक-एक तफ़सील में, एक-एक संवाद में, एक-एक बात में मजा भरा है। जरूरी नहीं कि इन किस्सों को आप सही ही समझें। जरूरी नहीं है कि आप उसको धर्म मानें ही। उनको आप सिर्फ उपन्यास की तरह लें, एक ऐसा उपन्यास, जो दस-बीस-पचास हजार लोगों तक नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों तक 5 हज़ार बरसों से पढ़ा- पढ़ाया जा रहा है और पता नहीं कब तक, यों ही चलता रहेगा।

-राममनोहर लोहिया

Sarvodaya Jagat

Share
Published by
Sarvodaya Jagat

Recent Posts

सर्वोदय जगत (16-31 अक्टूबर 2024)

Click here to Download Digital Copy of Sarvodaya Jagat

2 months ago

क्या इस साजिश में महादेव विद्रोही भी शामिल हैं?

इस सवाल का जवाब तलाशने के पहले राजघाट परिसर, वाराणसी के जमीन कब्जे के संदर्भ…

2 months ago

बनारस में अब सर्व सेवा संघ के मुख्य भवनों को ध्वस्त करने का खतरा

पिछले कुछ महीनों में बहुत तेजी से घटे घटनाक्रम के दौरान जहां सर्व सेवा संघ…

1 year ago

विकास के लिए शराबबंदी जरूरी शर्त

जनमन आजादी के आंदोलन के दौरान प्रमुख मुद्दों में से एक मुद्दा शराबबंदी भी था।…

2 years ago

डॉक्टर अंबेडकर सामाजिक नवजागरण के अग्रदूत थे

साहिबगंज में मनायी गयी 132 वीं जयंती जिला लोक समिति एवं जिला सर्वोदय मंडल कार्यालय…

2 years ago

सर्व सेवा संघ मुख्यालय में मनाई गई ज्योति बा फुले जयंती

कस्तूरबा को भी किया गया नमन सर्वोदय समाज के संयोजक प्रो सोमनाथ रोडे ने कहा…

2 years ago

This website uses cookies.