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रामकथा में सुशासन के सूत्र

राम के इस देश में रामराज्य की अक्सर चर्चा होती है; धार्मिक ही नहीं, सामाजिक तौर पर भी और अब तो राजनीतिक तौर पर भी। दुनिया में सबसे बड़े लोकतंत्र का तमगा पाने वाले देश में रामराज्य लाने के दावे अब राजनीतिक मंचों से भी होने लगे हैं, जबकि जमीनी तस्वीर इसके एकदम उलट है. रामराज्य के गुणों और लक्षणों के सूत्र हमें रामकथा में व्यापक रूप से मिलते हैं. इस व्याख्यान में वाल्मीकि रामायण और रामचरित मानस से उद्धृत ऐसे ही कुछ सूत्रों के जरिये रामराज्य के विभिन्न पहलुओं की विशद और सघन चर्चा की गयी है.

एक बार पार्वती ने शिव से पूछा कि क्या कोई संक्षिप्त उपाय है, जिससे विष्णुसहस्रनाम का पारायण किया जा सके? पार्वती अपनी दुविधा सही जगह ले गयी थीं। शिव ने तत्काल समाधान किया और बोले – श्रीराम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे। सहस्रनाम तत्तुल्यं श्रीराम नाम वरानने।। अर्थात शिव ने समझाया कि हे पार्वती! श्रीराम राम राम इति, बस तीन बार राम का नाम लीजिए, मन इस तरह रम जाएगा कि आपको ऐसे लगेगा, जैसे आपने सहस्रनाम का पाठ कर लिया है।

आज की मेरी बात इसी राम नाम से शुरू होती है। 2008 में मैंने यह सर्विस ज्वाइन की थी,14 साल हो गये। रामायण हमारे दैनिक जीवन में किस तरह बसा हुआ है, जरा इस पर गौर करें। हमलोग आपस में आमतौर पर कहते हैं कि हमारा 14 साल का वनवास पूरा हो गया। हम अपनी दैनिक जिन्दगी में भी रामायण से शब्द लेकर बात करते हैं। 14 साल पहले जब मैंने ज्वाइन किया था, तब हमें बोला जाता था कि आईएएस अधिकारी का एक ही कर्तव्य होता है गुड गवर्नेंस। अगर गुड गवरनेंस का हिन्दी या संस्कृत में अनुवाद करें तो क्या निकलता है? – रामराज्य। मैं इसी बिंदु से शुरू करना चाहूंगी। गांधीजी ने कहा था कि मुझे ऐसी स्वतंत्रता नहीं चाहिए, जिसमें अंग्रेज यहाँ से चले जायें, उनकी जगह कुछ हिन्दुस्तानी बैठ जायें और शासन-प्रशासन की व्यवस्था वही रह जाये, शोषण बदस्तूर चलता रहे, मुझे ऐसी स्वतंत्रता नहीं चाहिए, इससे तो मैं गुलाम ही ठीक हूं। मुझे ऐसी स्वतंत्रता चाहिए, जो रामराज्य ले आये।

क्या है रामराज्य?
चलिये, मुनि वाल्मीकि से रामराज्य के बारे में पूछते हैं, क्योंकि रामकथा के एक वही व्याख्याता हैं, जो राम के समकालीन थे। हमारे जो महाग्रंथ हैं, चाहे वह रामायण हो या महाभारत, इनको हम धार्मिक और अध्यात्मिक दृष्टि से ही देखते हैं। लेकिन इन ग्रंथों का ऐतिहासिक और सामाजिक महत्त्व भी है। इन महाग्रंथों का साहित्यिक महत्व भी हम देखते हैं, लेकिन ऐतिहासिक महत्व नहीं देख पाते। एक उदाहरण देना चाहूंगी। यजुर्वेद में शिव को रूद्र कहा गया है। यजुर्वेद से रूद्रम की एक पंक्ति है – त्वं मंत्रिणे वाणिज्याय पतयो नमो नम:। यानी शिव, मंत्रियों और वाणिज्य कक्ष के अधिपति हैं। अगर इसे धार्मिक दृष्टि से देखें तो यह रूद्र स्तुति है। साहित्यिक दृष्टि से देखें तो रूद्रम में बार-बार रुद्र शब्द आता है, कह सकते हैं कि रूद्रम खंड में बार-बार अनुप्रास अलंकार आया है। लेकिन इसका सामाजिक और ऐतिहासिक महत्व क्या है? इसका मतलब यह है कि यजुर्वेद के समय में एक मंत्रिमंडल था, एक वाणिज्य का कक्ष था, जहां के अध्यक्ष शिव थे। कितना अच्छा संदर्भ मिलता है! वाल्मिकी रामायण से आज हमने जो पंक्तियां उठायी हैं, उन्हें इसी दृष्टिकोण से देखने की कोशिश करेंगे। वाल्मीकि ने क्या बताया है? रामायण काल में रामराज्य कैसा था? – न पर्यदेवन्विधवा न च व्यालकृतं भयम्। न व्याधिजं भयं चासीद्रामे राज्यं प्रशासति।। मतलब यहां कभी किसी विधवा का रुदन नहीं सुनायी पड़ता था। रामराज्य में कोई स्त्री विधवा होती ही नहीं थी, यानी बाहरी और आंतरिक व्यवस्था ऐसी थी, जहां कोई युद्ध नहीं था। रामराज्य में किसी को कभी कोई भय नहीं था कि चोरी हो जायेगी, लूट हो जायेगी। युद्धकाण्ड, सर्ग 131 में वाल्मीकि लिखते हैं- आसन्वर्षसहस्राणि तथा पुत्रसहस्रिण:। निरामया विशोकाश्च रामे राज्यं प्रशासति।। अर्थात, प्रत्येक नागरिक बहुत-बहुत साल जीता था, रामराज्य में अल्पमृत्यु नहीं होती थी। पिता अपने पुत्रों को कई सालों तक जीते हुए देखता था, अगली पीढ़ियों को भी देखता था। कहीं कोई डर नहीं, कहीं कोई शोक नहीं था। रामराज्य में स्वास्थ्य व्यवस्था बहुत अच्छी थी, जिससे लोगों का जीवन बहुत लंबा और निरोग रहता था। मतलब कि रामराज्य के दौरान नागरिकों का मानसिक स्वास्थ्य भी इतना अच्छा होता था। इसके आगे मुनि वाल्मीकि लिखते हैं – नित्यपुष्पा नित्यफलास्तरव: स्कन्धविस्तृताः। काले वर्षी च पर्यजन्य: सुखस्पर्शश्च मारुत:।। यानी, अगर आप पहाड़ के क्षेत्र में पेड़ काटेंगे तो बाढ़ आयेगी, नीचे के क्षेत्रों में पेड़ काटेंगे तो सूखा पड़ेगा। आज तो हम अपने लालच के लिए प्रकृति का रोज़ अनादर करते हैं, लेकिन रामराज्य में इसका आदर था। इसीलिए ठीक समय से वर्षा होती थी। हमेशा फल फूल से हवा सुवासित रहती थी।

तुलसीदास ने इस बारे में लिखा है–


अल्प मृत्यु नहिं कवनिउ पीरा।
सब सुंदर सब विरुज सरीरा।।
नहिं दरिद्र को1ऊ दुखी न दीना।
नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।

किसी की अल्पमृत्यु नहीं होती थी, स्वास्थ्य व्यवस्था बहुत अच्छी थी। कोई दरिद्र नहीं था, कोई दुखी नहीं था, कोई दीन नहीं था। कोई अबुध नहीं था, यानी कोई मंदबुद्धि नहीं था, सब गुणवान होते थे, सभी सुलक्षणों से भरे हुए थे। शिक्षा प्रणाली ऐसी थी कि सभी को शिक्षा हासिल थी। ऐसी शिक्षा प्रणाली नहीं थी कि लोग केवल डिग्रियां बटोर रहे थे। सबको नैतिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा मिल रही थी।

आगे संत तुलसी लिखते हैं –

धवल धाम ऊपर नभ चुंबत।
कलस मनहुं रबि ससि दुति निंदत।

ऐसे-ऐसे घर होते थे, जो आकाश छूते थे और उनके कलश ऐसे चमकते थे, जिनको देखकर सूरज और चांद को लगता था कि हमारे प्रकाश में कुछ कमी है, वे खुद को निन्दित महसूस करते थे। इस चौपाई से उस वक्त की इंजिनियरिंग का अंदाज़ा लगाइए।

बहु मनि रचित झरोखा भ्राजहिं।
गृह गृहपति मनि दीप बिराजहिं।।

घर-घर में मणियों के दीप प्रज्ज्वलित होते थे। मतलब घरों की अर्थव्यवस्था ऐसी थी कि लोग खुशहाल जीवन जीते थे। सबके घरों में दिये जलते थे। ऐसा कोई घर नहीं होता था, जहां अंधकार होता हो। रामचरित मानस में रामराज्य की अर्थव्यवस्था पर और भी संकेत मिलते हैं।

बाज़ार रुचिर न बनइ बरनत बस्तु बिनु गथ पाइए।
जहँ भूप रमानिवास तहँ की संपदा किमि गाइए॥

रामराज्य में बाजार ऐसे थे, जहां वस्तुएं बिना मूल्य के मिल जाती थीं, जहाँ स्वयं लक्ष्मीपति राजा हों, वहाँ के संपत्ति-वैभव के बारे में कोई किन शब्दों से बखान करे। इस चौपाई से संकेत मिलता है कि रामराज्य में कोई महंगाई नहीं थी, सब लोग सब कुछ पा सकते थे। तुलसीदास आगे लिखते हैं –

बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते।
सब सुखी सब सचरित सुंदर नारि नर सिसु जरठ जे॥

रामराज्य में व्यापारी ऐसे थे, जैसे सब के सब कुबेर हों, उनके व्यापार में धनवर्षा होती थी। रामराज्य में सभी नर-नारी, बच्चे, बूढ़े सुखी थे और सभी सचरित्र थे। रामराज्य का ऐसा वर्णन संत तुलसीदास ने रामचरित मानस में किया है। हम देख सकते हैं कि रामराज्य में अर्थव्यवस्था बहुत अच्छी थी। शिक्षा प्रणाली बहुत अच्छी थी। स्वास्थ्य व्यवस्था बहुत अच्छी थी। पर्यावरण के प्रति भी रामराज्य में बहुत आदर था। हमारे इतिहास की इतनी बड़ी धरोहर हमारे सामने है। वाल्मीकि रामायण और तुलसीकृत रामचरित मानस दोनों महाग्रंथों में इस गाथा का वर्णन लगभग समान भाव में मिलता है।

हमारा संविधान और रामायण
हमारी स्वतंत्रता के समय, आपको क्या लगता है कि इस धरोहर से हमने कोई प्रेरणा ली या नहीं? जी हाँ, बिल्कुल ली। आज से कई साल पहले जब हमारा संविधान लिखा गया, तो हमारे संविधाननिर्माताओं ने रामायण से अनेक प्रेरणाएं हासिल कीं। मैं संविधान का एक चित्र आपके साथ साझा करना चाहूंगी। संविधान हर नागरिक को मौलिक अधिकार देता है। रामायण से उन्हें प्रेरणा यह मिली कि मौलिक अधिकार सभी नागरिकों को देना चाहिए। इसलिए हमारे संविधान में सबको समानता का अधिकार दिया गया है। राज्य किसी के साथ भेदभाव नहीं करता। संविधान सबके लिए एक है, कानून सबके लिए एक है, आप किसी मजहब, जाति, लिंग, भाषा आदि के हों, राज्य कोई भेदभाव नहीं करता। कोई अलग-अलग कानून नहीं है। सबको स्वतंत्रता से जीवन जीने का अधिकार है। राइट टू एजूकेशन यानी सबको शिक्षा का अधिकार, 6 वर्ष से लेकर 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को शिक्षा का अधिकार है। फंडामेंटल राइट्स के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने कई बार कहा है कि यह संविधान का बेसिक स्ट्रक्चर है। कोई भी इसे बदल नहीं सकता है। मतलब यह बुनियादी ढांचा है हमारे संविधान का और इसकी प्रेरणा हमने ली है रामायण से। हमारे संविधान में एक प्रस्तावना है, जहां कहा गया है कि हमारा देश कैसा होगा। हम अपने आपको किस तरह का देश देख रहे हैं। उस प्रस्तावना में बाद में जोड़ा गया कि भारत एक धर्म निरपेक्ष देश होगा। गांधीजी का कहना था कि वेस्टर्न कंट्रीज में धर्मनिरपेक्षता का पालन किया जाता है, राज्य का धर्म से कोई लेनादेना नहीं है। धर्म हर किसी का निजी मामला है। मजहब हर किसी का निजी मामला है। धर्म का मतलब है सही मार्ग, जो हमारे सामने हमारे शास्त्रों ने रखा है। धर्म मतलब वह रास्ता, जिसको अपनाकर हम सही दिशा पाते हैं। गांधीजी का कहना था कि भारत धर्मनिरपेक्ष होगा, लेकिन सबको धर्म के मार्ग पर चलना पड़ेगा। क्या है यह धर्म का मार्ग? राजा भी उसी पथ पर चलेगा, प्रजा भी उसी पथ पर चलेगी। राजा का क्या धर्म है, राजधर्म क्या है? जब राजा के धर्म की बात करते हैं, तो रामायण के उद्धरणों से राजधर्म का बोध होता है।

कैकेयी मां ने मांग लिया कि मेरा बेटा भरत राज सिंहासन पर बैठेगा और राम वनवास जायेंगे। यह दशरथ का दिया हुआ वचन था। दशरथ सिर्फ पिता नहीं थे, वे राजा भी थे। जहां राजा ने वचन दे दिया, आदेश जारी कर दिया, वहां राजकुमार का यही धर्म था कि बिना कोई प्रश्न किये, वह उसका पालन करें। ऐसा नहीं है कि राम को इसको अनदेखा करने के मौके नहीं मिले। अयोध्या की सारी प्रजा चाहती थी कि राम गद्दी पर विराजें। प्रजा उन्हें जाने नहीं देती है। कहते हैं कि रात के अंधेरे में वे निकले, ताकि प्रजा दुखी न हो। उनके पास प्रतिभा थी, वे चाहते तो प्रजा का सहयोग लेकर राजा बन सकते थे। इतना ही नहीं, जब वे वनवास को जा चुके थे, तो भरत स्वयं आये और बोले कि भाई, आप राजगद्दी पर बैठ जाइये, मैं नहीं बैठूंगा। कैकेई मां ने भी कहा कि जिसने वचन दिया, वे राजा अब नहीं हैं और जिसको वचन दिया, मैं स्वयं कहती हूं कि तुम आओ और तुम्हीं राजगद्दी पर बैठो, तब भी राम नहीं माने।

राजधर्म
पिछले दिनों चुनाव के दौरान मुझे गोवा जाने का मौका मिला, हमारे एक सहकर्मी हैं वहां, वह भी प्रशासन में ही काम करते हैं, उन्होंने मराठी में एक गीत लिखा है, उसका हिन्दी में अनुवाद किया है। इस गीत से दो पंक्तियां सुनाना चाहती हूं। राम भरत से कहते हैं – वृथा शोक न कर भ्राता, पाल राजधर्म। राजपुत्र तुम हो, मैं हूं रंक काननों का।। तुम अपना धर्म निभाओ, मैं अपना धर्म निभाता हूं। इस उदाहरण से अगर देखा जाय, तो उस वक्त राज्य था, राजा थे, प्रजातंत्र था। मैं एक प्रशासनिक अधिकारी हूं, इससे यह सीख लेती हूं कि मेरे लिए मुझसे जो ऊपर है, वह मेरा संगठन है। अगर संगठन ने कुछ ठीक किया है, तो मैं उसके अनुशासन में उसका पालन करूंगी।

अब राम राजा कैसे थे, राजधर्म कैसे निभाते थे, इसे भी देख लेते हैं। संत तुलसीदास ने लिखा है कि राम रोज सुबह क्या करते थे –

प्रातकाल सरऊ करि मज्जन।
बैठहिं सभाँ संग द्विज सज्जन॥
बेद पुरान बसिष्ठ बखानहिं।
सुनहिं राम जद्यपि सब जानहिं॥

राम सब कुछ जानते थे, पर रोज सरयू के तट पर बैठकर वशिष्ठ के मुंह से वेद पुराण का पाठ सुनते थे। इससे सबसे बड़ी सीख मिलती है कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती, कोई पदवी नहीं होती। अगर राम राजा बनने के बाद भी सीख सकते हैं, तो हर प्रशासनिक अधिकारी को चाहिए कि वह अपना मस्तिष्क खुला रखे और हर तरह से सीख ले, इससे ज्ञान बढ़ेगा। राम केवल सीखने के लिए ही नहीं सीखते, वे आलोचना के लिए भी खुले थे। अगर कोई उनको क्रिटिसाइज करे, तो उसको भी सुन सकते थे। उनमें सुनने की भी क्षमता और सहिष्णुता थी। आलोचना तो बहुत लोग करते हैं, लेकिन जो सही आलोचना करते हैं, उसका पालन करना भी राजधर्म ही है। ऐसा नहीं होता कि मैंने निर्णय लिया, तुम कौन होते हो मुझे बताने वाले, मैं सब जानता हूं। यह नहीं हो सकता। हमारा सभी से पाला पड़ता है, सबको सुनना हमारा धर्म है और कहां से क्या लेकर चलें, यह हमारी बुद्धि और विवेक पर निर्भर होता है। यह सीख मुझे राम से मिलती है। राम स्तोत्रम में कहा गया है – जो शरण में आता है, उसकी रक्षा करने के लिए राम तत्पर रहते हैं। जब विभीषण राम के पास शरण लेने आते हैं, तो सब उनको यही बुद्धि देते हैं कि नहीं, इससे आपका हित नहीं है, पता नहीं यह कौन है, ये रावण की कोई साजिश भी हो सकती है, इसको आप शरण में मत लीजिए, लेकिन तब राम क्या कहते हैं –

सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पाँवर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि।।

शरणागत को त्याग दूं, बस इसलिए कि मेरे अनुमान से इससे मेरा अहित होगा? ऐसा मनुष्य पापी और नीच किस्म का होगा, जो शरणागत को लौटा देगा। यह देखकर हनुमान के मन में आता है कि राम शरणागत वत्सल हैं, मतलब अपने शरणागत को पुत्र की तरह प्यार करते हैं, उसकी रक्षा करते हैं। भारत का इतिहासा साक्षी है कि हमने किसी पर पहले वार नहीं किया और जितने लोग भारत में शरण लेने के लिए आये, सबको भारत ने शरण दी। कहीं न कहीं यह हमारी धरोहर है। हमने हमेशा से सभी के लिए अपने दरवाजे खोल रखे हैं।

एक और प्रसंग है, जब राम रामेश्वरम में समुद्र देवता से रास्ता मांग रहे थे। तीन दिन हो गये, लेकिन समुद्र देवता कुछ नहीं बोले, वे चुप थे। तब राम क्रोधित हो जाते हैं और कहते हैं –

विनय न मानत जलधि जड़।
गये तीन दिन बीति।
बोले राम सकोप तब। भय बिनु होइ न प्रीति।।

जब कोई किसी से प्रीति करता है, तो कई बार लोग समझते हैं कि वह दुर्बल है। जब उसे क्रोध नहीं आता, तो लोगों को लगता है कि इसके साथ जो करना है सो करो। इसलिए भय दिखाना भी उतना ही जरूरी है। यह राम स्वयं कह रहे हैं। हमारी जो विदेश नीति है, रक्षा नीति है, हमने कभी किसी पर वार नहीं किया, हमने किसी की भूमि नहीं हड़पी। हमारी रक्षा के लिए हमारी सेना है, एयर फोर्स है, हमारे पास परमाणु शक्ति भी है। लेकिन हमने हमेशा यही कहा कि हम किसी पर पहले वार नहीं करेंगे। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम दुर्बल हैं या हम सक्षम नहीं हैं। हम सक्षम हैं, हमारी प्रीति के कारण आप हमें दुर्बल समझेंगे, तो हम भय भी दिखा सकते हैं। रामायण की यह बहुत बड़ी प्रेरणा है, जो हमारी विदेश और रक्षा नीति में है।

प्रजा धर्म
अब चलते हैं प्रजा धर्म की तरफ, केवल राजा का ही धर्म नहीं होता, प्रजा को भी अपना धर्म निभाना पड़ता है। यह मैं नहीं कह रही हूं, यह मुनि वाल्मीकि और संत तुलसी कह रहे हैं। वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड का ही श्लोक है- आसन्प्रजा धर्मरता रामे शासति नानृता:। सर्वें लक्षण सम्पन्ना: सर्व धर्मपरायणा:।। यानी प्रजा में जितने लोग थे, वे भी अपने धर्म का पालन करते थे। तब जाकर रामराज्य बना। संत तुलसी कहते हैं –

सब निर्दंभ धर्मरत पुनी।
नर अरु नारि चतुर सब गुनी।
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी।
सब कृतग्य नहिं कपट सयानी॥

यानी प्रजा में सभी दम्भरहित हैं, धर्मपरायण हैं और पुण्यात्मा हैं। पुरुष और स्त्री सभी चतुर और गुणवान हैं। सभी गुणों का आदर करने वाले और पण्डित हैं तथा सभी ज्ञानी हैं। सभी दूसरे के किए हुए उपकार को मानने वाले हैं, कपट और धूर्तता किसी में नहीं है। हम विचार कर सकते हैं कि आज की प्रजा में क्या ये सारे गुण हैं? अगर हम कहते हैं कि राजाओं में ये गुण नहीं हैं, तो कहीं न कहीं प्रजाओं में भी ये गुण नहीं हैं। संत तुलसीदास कहते हैं-

सब उदार सब पर उपकारी।
बिप्र चरन सेवक नर नारी।
एकनारि ब्रत रत सब झारी।
ते मन बच क्रम पति हितकारी॥

प्रजा में सभी उदार थे, उपकारी थे, ज्ञानियों की सेवा करते थे, सारे पुरुष एक नारी व्रत वाले थे। सभी नारियां भी मन, कर्म, वचन से पति की हितकारी थीं। इस प्रकार प्रजा कैसी होनी चाहिए, इसका भी विस्तृत वर्णन हमें रामायण से मिलता है। अगर हम रामायण से एक या दो गुण निकालना चाहें, तो मैं कहूंगी कि सबसे बड़ा जो गुण निकल के सामने आता है, जो सबको ग्रहण करना चाहिए, चाहे वह राजा हो या प्रजा, वह है ‘अस्तेय’। अब रामायण से हटकर मैं ईशोपनिषद में जाना चाहूंगी, जहां से एक श्लोक मैंने लिया है, उसमें कहा गया है –

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृध: कस्यस्विधनम्।।

यानी ईश्वर ने सबके लिए कुछ न कुछ रखा है। एक कोटा रखा है धन का, प्रकृति का। सब उतना ही लें, जितना ईश्वर ने आपके लिए रखा है। किसी को शोभा नहीं देता कि लोभ, मोह के कारण अपना जो निर्धारित धन है, उससे ज्यादा लोभ या मोह करे। इस अस्तेय भाव के लिए जैन सम्प्रदाय में बहुत स्पष्ट कहा गया है कि जो अपनी जरूरत से ज्यादा लेता है, वह चोरी करता है। यह भाव राम कथा में कूट-कूट कर भरा हुआ है। दशरथ ने वचन दे दिया कि भरत राजा बनेंगे, तो उसी वक्त राम के मन में आ गया कि ये जो अयोध्या नगरी है, ये जो साम्राज्य है, यह मेरा नहीं है, मैं इसको नहीं ले सकता। इसे ले लेने के मौके उनको कई बार मिले, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने अस्तेय का मार्ग ही चुना।

आप जानते हैं कि राम ने त्याग किया है, लक्ष्मण ने त्याग किया है, भरत ने त्याग किया है, सारे भाई, दूसरे भाइयों के लिए अपना हक, अपनी संपत्ति छोड़ने के लिए तैयार थे। सीता का त्याग सबको पता है, लेकिन कई बार हम भूल जाते हैं। मैथिलीशरण गुप्त ने उर्मिला के त्याग के बारे में लिखा है। कहीं न कहीं उन्होंने भी त्याग किया है, जिसको लोगों ने शायद उतनी मान्यता नहीं दी। उर्मिला को टैगोर भी उपेक्षिता कहते हैं। उर्मिला एक ऐसी महिला हैं, त्याग की जिनकी भावना को मान नहीं मिला है।

उपसंहार
आज सभी कहते हैं कि भारत भ्रष्टाचार मुक्त होना चाहिए। अगर भ्रष्टाचार मुक्त देश चाहिए, तो राजा और प्रजा दोनों को हाथ मिलाना होगा। क्योंकि अगर कोई घूस लेता है, तो कोई घूस देने वाला भी है। ऐसा तो नहीं है कि केवल एक तरफ से ही हो रहा है। अब कोई घूस देने के लिए क्यों तैयार है, पैसा देकर क्यों काम करवाना चाहता है, क्योंकि वह कोई नियम तोड़ने के लिए तैयार है या वह कतार में खड़ा नहीं होना चाहता। अगर हम कोई नियम न तोड़ना चाहें, अगर हम अपनी कतार में खड़े रहें तो घूस लेने की संभावना ही नहीं रह पायेगी। एक होता है अपना अंत:करण, एक होता है समाज का अंत:करण। एक उदाहरण से इसको समझाना चाहूंगी। सतयुग में कहा जाता था कि कोई झूठ बोलेगा, तो उसको सांप काट लेगा। हमलोग हंसते हैं कि सतयुग में क्या सांपों को यह पता था कि कौन झूठ या कौन सत्य बोल रहा है? असल में यहां से एक संकेत मिलता है कि उस वक्त सत्य का क्या महत्व था। अगर कोई असत्य बोलेगा तो उसका एक ही दंड था, वह था मृत्यु दंड। आज के समाज के अंत:करण में देखिये, असत्य तो लोग अनावश्यक भी बोल लेते हैं। उनको कोई टोकता भी नहीं, किसी को कुछ गलत लगता ही नहीं। समाज के अंत:करण में भी नैतिकता के मानकों का परिवर्तन होता रहता है। एक समय ऐसा था, स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, जब लोग अपनी जान देने के लिए तैयार रहते थे, अपनी बड़ी-बड़ी संपत्तियां लोगों ने स्वतंत्रता संग्राम के लिए छोड़ दीं। बैरिस्टर की नौकरी छोड़कर लन्दन से वापस आ गये। आज के समाज में अपने देश के लिए यह सब करने को कौन तैयार है? भ्रष्टाचार के खिलाफ कम कानून नहीं हैं। एक लंबी सूची है कानूनों की, लेकिन जिस दिन समाज यह तय कर लेगा कि अब यह नहीं चलेगा, उसी दिन से यह सब नहीं चलेगा। आज भौतिकवाद बहुत ऊपर आ गया है। आज भाई, भाई से लड़ते हैं, महायुद्ध हो जाता है, क्योंकि समाज के अंत:करण में ऐसा परिवर्तन हुआ है।

हमने पिछले दिनों आजादी की 75वीं वर्षगांठ मनायी। याद करिये, जब 50 वर्ष पूरे हुए, तब भारत कैसा था और आज कैसा है? काफी सारी चीजें बहुत जल्दी बदल गयीं। आगे के 25 वर्षों में क्या होने वाला है, इसका हमें अंदाजा भी नहीं है। सिर्फ अर्थव्यवस्था ही नहीं, हमें सामाजिक व्यवस्था को भी डेवलप करना है। यह संकल्प हमें ही करना है और किसी को नहीं करना है। जब हम सब धर्म के मार्ग पर चलेंगे, तभी हमारे संकल्प पूरे होंगे। वह धर्म का मार्ग क्या है, रामायण बहुत सुंदर तरीके से हमारे सामने रखता है।

(ओमकारनाथ मिशन)

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