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राष्ट्रभाषा के लिए राष्ट्रव्यापी जागरण के प्रणेता महात्मा गांधी

हमारे प्रगतिवादी विद्वान मार्क्स और एंजल से लेकर स्टालिन, माओ त्से तुंग आदि के साहित्य संबंधी विचार को तो उद्धृत करते हैं, किन्तु अपने अध्यवसाय का 10% भी साहित्य को जनवादी तथा मानवतावादी ढंग से देखने समझने वाले देसी गांधी को समझने में नहीं लगाते।

गांधी की राजनीति की संस्कृति में सत्याग्रह, रामराज्य और चरखा का क्या महत्व है यह सब लोग जानते हैं। लेकिन इन तीनों का भक्ति काल से क्या संबंध है यह अधिकतर लोग नहीं जानते। गांधी जी को सत्याग्रह की प्रेरणा मीराबाई से मिली और रामराज्य की कल्पना तुलसीदास से। उनका चरखा कबीर का है और पराई पीर अनुभव करने वाली संवेदनशीलता नरसी मेहता की। यह मेरा अनुमान नहीं है इसके पर्याप्त प्रमाण गांधीजी के लेखन में मौजूद है।

गांधी जी अपनी कालजयी किताब हिंद स्वराज में सत्याग्रह के संदर्भ में आत्मबल के महत्व को दर्शाने हेतु तुलसी का मत उद्धृत करते है। वे कहते हैं कि कवि तुलसीदास ने कहा-

दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान/ तुलसी दया न छांड़िए ,जब जग घट में प्राण ।

दयाबल आत्मबल है, वह सत्याग्रह है। तुलसीदास का यह दोहा गांधी जी के चिंतन में बहुत गहरे तक पैठ गया था। इस दोहे का प्रयोग वे विभिन्न संदर्भों में अलग-अलग अवसर पर करते रहे । मसलन 8 जनवरी, 1925 को काठियावाड़ में अस्पृश्यता के संदर्भ में वे कहते हैं कि दया धर्म का मूल है, इसलिए प्रेम छोड़ोगे तो बाजी हार जाओगे। 12 मई, 1932 को पुरुषोत्तम गांधी को लिखे पत्र में वे कहते हैं कि दया और अहिंसा अलग नहीं है। 31 दिसंबर, 1947 को शरणार्थियों को संबोधित करते हुए गांधीजी ने कहा कि संत तुलसीदास ने कहा है कि दया धर्म का मूल है। यदि हम उन बहनों के प्रति आदर से पेश नहीं आएंगे तो हमारा धर्म नहीं रह जाएगा। यहां उन बहनों से उनका आशय उन हिंदू और सिख स्त्रियों से था, जिनका दंगों के दौरान अपहरण करके उन्हें सताया गया था। ऐसी औरतों को समाज में आदर के साथ प्रतिष्ठित करने की गुहार गांधीजी कर रहे थे। तुलसी की जिस रामायण से वे प्रभावित थे, उसका भी गुण-दोष बताने में वे परहेज नहीं करते थे। वे कहते हैं कि मैं तुलसीदास का पुजारी हूं, रामायण को उत्तम ग्रंथ मानता हूं, किंतु ‘ढोल गंवार शुद्र पशु नारी ,यह सब ताड़ण के अधिकारी’ में जो विचार निहित है, उसे मैं सम्मानीय मान ही नहीं सकता। तुलसीदास ने अपने जमाने में जो रूढ़ि पड़ी हुई थी, उससे प्रभावित होकर यह लिख दिया था। इसलिए अपनी पत्नी, पशु अथवा जिन्हें मैं शुद्र हूं मानता हूं, उनको मेरे मतानुसार बर्ताव न करने पर मार बैठना सदाचार नहीं हो सकता।


भारत की भाषा समस्या के समाधान की दिशा में भी गांधी जी को तुलसी से बहुत मदद मिली। हिंदी के प्रचार-प्रसार में गांधीजी का योगदान किसी हिंदी-सेवी से कम नहीं है। बहुभाषी भारतवर्ष में हिंदी को पूरे राष्ट्र के लिए संपर्क भाषा बनाने का अभियान गांधी जी ने पूरे देश में चलाया। हिंदी के समक्ष प्रस्तुत चुनौतियों का सामना भी गांधीजी तुलसी के सहारे ही करते हैं। मसलन 4 फरवरी, 1921 को कोलकाता में राष्ट्रीय महाविद्यालय के उद्घाटन के अवसर पर बोलते हुए गांधी जी ने कहा कि आप हिंदी भाषा की साहित्यिक दरिद्रता की बात करते हैं, किंतु यदि आप तुलसी की रामायण को गहराई से पढ़ें तो शायद मेरी इस राय से सहमत होंगे कि संसार की आधुनिक भाषाओं के साहित्य में उसके मुकाबले कोई दूसरी किताब नहीं ठहरती। उस एक ही ग्रंथ से मुझे जितनी श्रद्धा और आशा है, उतनी किसी दूसरी किताब से मुझे नहीं मिली।

गांधीजी ने जिस तरह तुलसी काव्य का विभिन्न संदर्भों में उपयोग किया, उससे भी साहित्य के संदर्भ में उनके दृष्टिकोण एवं सरोकार का पता चलता है। ज्ञातव्य है कि गांधीजी अपने लेखों भाषणों में बार-बार यह बताते हैं कि तुलसीदास ने दुर्जनों और असंतों से असहयोग करने को कहा है। इन बातों से सिद्ध है कि तुलसी का काव्य गांधी के रोम-रोम में रच बस गया, तो इसलिए कि उसमें अन्याय, अनीति, शोषण, दमन आदि के विरुद्ध असहयोग करने, संघर्ष करने तथा भेदभाव, उत्पीड़न एवं अन्याय से मुक्त, सब के लिए कल्याणकारी रामराज्य जैसी शासन व्यवस्था की दिशा में सक्रिय एवं उत्प्रेरित करने की शक्ति है।

गांधीजी मातृभाषा के माध्यम से ही शिक्षा के पक्षधर थे। इसकी झलक उनकी किताब हिंद स्वराज्य में मिलती है। वे कहते हैं कि हम स्वराज्य की बात भी पराई भाषा में करते हैं, यह कितनी बड़ी दरिद्रता है। दक्षिण अफ्रीका से जनवरी, 1915 में लौटने के बाद गांधी जी ने मातृभाषा में भारतीय परंपराओं के अनुसार शिक्षा पद्धति के प्रचार के अभियान को तेजी से आगे बढ़ाया। इस संदर्भ में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में दिया उनका ऐतिहासिक भाषण काफी महत्वपूर्ण है। 4 फरवरी, 1916 को काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में उन्होंने कहा कि इस महान विद्यापीठ के प्रांगण में अपने ही देशवासियों से अंग्रेजी में बोलना पड़े, यह अत्यंत अप्रतिष्ठा और लज्जा की बात है।… मुझे आशा है कि इस विद्यापीठ में विद्यार्थियों को उनकी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने का प्रबंध किया जाएगा।

15 अक्टूबर, 1917 को बिहार के भागलपुर शहर में छात्रों के एक सम्मेलन में अध्यक्ष पद से बोलते हुए गांधी ने कहा कि बहुत से लोग ऐसा कहते सुने जाते हैं कि हमारी भाषा में ऐसे शब्द नहीं हैं, जिनमें ऊंचे विचार प्रकट किए जा सकें, किंतु यह भाषा का दोष नहीं है। भाषा को बनाना और बढ़ाना हमारा अपना ही कर्तव्य है। एक समय ऐसा था, जब अंग्रेजी भाषा की भी यही हालत थी। अंग्रेजी का विकास इसलिए हुआ कि अंग्रेज आगे बढ़े और उन्होंने भाषा की उन्नति की।

गांधीजी के शिक्षा एवं भाषा संबंधी इन विचारों के आलोक में स्पष्ट है कि औपनिवेशिक शासन का उनके द्वारा विरोध केवल राजनीतिक दृष्टि से ही नहीं था। वे उसे भाषा एवं शिक्षा की दृष्टि से भी भारतीयों को पराधीन बनाने वाली व्यवस्था के रूप में देख रहे थे। इसलिए राजनीतिक स्वाधीनता की प्राप्ति से पहले उन्होंने शिक्षा एवं भाषा के क्षेत्र में स्थापित विदेशी प्रभुत्व को हटाना आवश्यक समझा। आम जनता शिक्षित हो, अंग्रेजी मॉडल का यह कतई उद्देश्य नहीं था। इस हदबंदी को तोड़ते हुए गांधी जी ने शिक्षा के जनवादीकरण की दिशा में पहल शुरू की। सारी जनता के लिए शिक्षा सुलभ हो, यह उनकी शिक्षा योजना की प्राथमिकता थी। जाहिर है जनता को शिक्षित करने का काम जनता की भाषा में ही हो सकता है, इसलिए उन्होंने मातृभाषा का खुलकर समर्थन किया।
दक्षिण अफ्रीका में काम करते हुए गांधी जी ने यह अनुभव किया कि भारत के विभिन्न प्रांतों में अलग-अलग भाषाएं एवं बोलियां बोली जाती हैं। उन्हें एक ऐसी भाषा की आवश्यकता महसूस हुई, जो संपर्क-संवाद एवं राज-काज की भाषा बन सके। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए गांधीजी न केवल जीवन पर्यंत प्रयासरत रहे, बल्कि उन्होंने हिंदी के लिए राष्ट्रव्यापी जागरण का संचालन भी किया। नवजागरण की जो अवधारणा हिंदी साहित्य में डॉ रामविलास शर्मा ने प्रतिपादित की, वह बहुत हद तक सही होते हुए भी गांधी जी की भूमिका के साथ न्याय नहीं कर सकी। हिंदी नवजागरण के केंद्र में हिंदी प्रदेशों और भारतेंदु हरिश्चंद्र तथा महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे लेखकों का योगदान प्रमुख है। लेकिन गांधी जी ने किस तरह हिंदी के सवाल को पूरे देश का सवाल बनाते हुए एक राष्ट्रभाषा की अपरिहार्यता को स्वीकार करने की मानसिकता तैयार की। जिस हिंदी नवजागरण को भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर महावीर प्रसाद द्विवेदी के कार्यों में देखा जाता है, उसे अखिल राष्ट्रीय जागरण के रूप में रूपांतरित करने का कार्य गांधी ने किया।

गांधी जी ने 1920 में जिस राष्ट्रव्यापी असहयोग आंदोलन को चलाया, उसके दौरान उन्होंने तीन चीजों का राष्ट्रव्यापी प्रचार-प्रसार किया। सबसे पहले तो उन्होंने राष्ट्रीय स्वाधीनता की चेतना को पूरे देश में फैलाने का काम किया, क्योंकि भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में असहयोग आंदोलन के रूप में पहली बार अखिल भारतीय स्तर पर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध पूरा देश एक साथ आंदोलित हुआ था। दूसरा सवाल अस्पृश्यता का था, जिसके विरुद्ध उन्होंने पूरे देश में जागरूकता पैदा करने का काम किया। तीसरा मुद्दा हिंदी का था, जिसे पूरे भारत की सामान्य संपर्क-भाषा के रूप में अपनाने की मुहिम गांधी जी ने राष्ट्रीय स्तर पर चलाई।

वैसे तो गांधीजी का प्रयास पूरे भारतवर्ष में हिंदी के प्रचार के लिए चलता रहा, लेकिन उन्होंने मद्रास प्रांत पर विशेष ध्यान रखा। ऐसा करना सही भी था, क्योंकि हिंदी को लेकर अपेक्षाकृत विपरीत परिस्थितियां उसी प्रांत में आजादी के पहले से लेकर आजादी के बाद तक रहीं। 24 मार्च, 1925 को हिंदी प्रचार कार्यालय, मद्रास में बोलते हुए गांधी जी ने कहा कि मेरी राय में भारत में सच्ची राष्ट्रीयता के विकास के लिए हिंदी का प्रचार एक जरूरी बात है। विशेष रूप से इसलिए कि हमें उस राष्ट्रीयता को आम जनता के अनुरूप सांचे में ढालना है। देखा जाए तो गांधीजी सच्ची राष्ट्रीयता के विकास के लिए हिंदी के प्रचार-प्रसार में जीवन पर्यंत लगे रहे।

गांधी के कार्यों के रूप में भारतीय नवजागरण ने जो अपनी पूर्ण अभिव्यक्ति पाई, उसका एक महत्वपूर्ण पक्ष था सांस्कृतिक जागरण। कोई भी सांस्कृतिक जागरण भाषा एवं साहित्य के जागरण के बगैर अपनी परिपूर्णता नहीं प्राप्त कर सकता। किसी भी देश के सांस्कृतिक जागरण में वहां की भाषा एवं साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस तथ्य को गांधी जी ने अच्छी तरह पहचाना था। यही कारण था कि उन्होंने सबसे पहले देशी भाषाओं के उत्थान की बात की। इसके लिए जनजागृति पैदा करने के लिए आंदोलन चलाया। साथ ही नैतिकता एवं परहित की भावना को जागृत करने में उन्होंने साहित्य की अमोघ शक्ति को सामने रखा।

गांधीजी जिस आम आदमी के लिए जीवन पर्यंत संघर्षरत रहे, उसी आम आदमी के नजरिए से उन्होंने साहित्य को देखा, समझा। परन्तु इसे तथाकथित प्रगतिशील लेखक नजरअंदाज करते रहे। उन्होंने गांधीजी के साहित्यिक सरोकार के मूल में निहित मानवतावाद पर कभी ध्यान नहीं दिया, अगर वे दे पाते तो उन्हें भी गांधी जी के चिंतन में जनता का वैसा ही दर्द दिखाई देता, जैसा लेनिन को टालस्टाय के साहित्य में दिखाई दिया। अफसोस कि हमारे प्रगतिवादी विद्वान मार्क्स और एंजल से लेकर स्टालिन, माओ त्से तुंग आदि के साहित्य संबंधी विचार को तो उद्धृत करते हैं, किन्तु अपने अध्यवसाय का 10% भी साहित्य को जनवादी तथा मानवतावादी ढंग से देखने समझने वाले देसी गांधी को समझने में नहीं लगाते। अगर लगा पाते तो शायद हमारे साहित्य एवं देश का ज्यादा भला होता, लेकिन दूर के ढोल सुहाने जो होते हैं।

-‘गांधी का साहित्य और भाषा चिंतन’ से

-श्रीभगवान सिंह

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