सर्वोदय जगत के 16-31 अक्टूबर वाले अंक का संपादकीय और उससे संबंधित अन्य लेख देखे। अभी भी शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर छिपाकर विश्लेषण हो रहा है। ऐसा एक भी उदाहरण देखने को नहीं मिलता, जब समाजवादियों ने जोड़ने का काम किया हो। सर्वोदय में प्रतिक्रांति का श्रेय जेपी को जाता है। आज भी वैसी ही परिस्थितियां मौजूद हैं, जैसी 1975 में थीं। वही महंगाई, वही भ्रष्टाचार, वही बेरोजगारी, वही गरीबी और वही एक तानाशाह। विनोबा लगातार जेपी को समझा रहे थे, यहां तक कि मौन तोड़ कर समझाया कि सत्ता परिवर्तन हमारा काम नहीं है। इससे कुछ होना-जाना नहीं है। संपूर्ण क्रांति कोई एक दो दिन का कम नहीं है। यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, लेकिन जेपी कब मानने वाले थे! उन्होंने इंदिरा गांधी को हटाने के लिए स्वयं को फासिस्ट तक कहलाना स्वीकार किया। जेपी किन लोगों का हृदय परिवर्तन करने चले थे, यह आज नाथूराम गोडसे की मूर्ति लगाने और उसकी पूजा करने वालों की शक्लें देखकर जाहिर हो रहा है। क्या संपूर्ण क्रांति एक संपूर्ण भ्रांति नहीं थी? वर्तमान परिस्थितियों के लिए जेपी को छोड़कर अन्य सभी तत्कालीन नेताओं को जिम्मेदार ठहराना कहां तक उचित है? जेपी चाहते तो विनोबा की लोकनीति की ओर कदम बढ़ा सकते थे, लेकिन उनके कदम राजनीति में फिसलते चले गये। विनोबा ने जेपी से रणछोड़ बनने का आग्रह किया, परंतु जेपी ने इससे इनकार कर दिया। जेपी आंदोलन से निकले तमाम नेता कभी न कभी प्रदेशों में सत्ता के शीर्ष पर रहे। स्वयं को जेपीवादी कहते रहे और भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी कुलांचें भरती रही। क्या जेपी को इस बात का भी ज्ञान नहीं था कि राजनीति कैसे चलती है? विनोबा तो लगातार कह रहे थे कि राजनीति सुबह कुछ होती है, दोपहर में कुछ होती है और शाम को कुछ होती है। रात होते-होते पूरी तरह बदल जाती है। वास्तव में जेपी के मन में इंदिरा गांधी के प्रति पूर्वाग्रह था। विपक्ष ने इस बात को भांप लिया। जेपी ने अपना उपयोग होने दिया। परिणामस्वरूप इंदिरा गांधी को सत्ता से हाथ धोना पड़ा। ढाई साल बाद वे पुन: सत्ता पर काबिज हुईं। तब तक भारतीय जनता पार्टी का उदय हो चुका था, जिसका आधार लोगों में भ्रम फैलाने के लिए गांधीवादी समाजवाद रखा गया। भाजपा द्वारा अपने विस्तार के लिए जिन साधनों का इस्तेमाल किया गया, क्या वे गांधीवादी कहे जा सकते हैं या उन्हें समाजवादी ठहराया जा सकता है? यदि नहीं, तो फिर इस बात को स्वीकार करने में और कितना वक्त लगेगा कि जेपी की गलती का खामियाजा आज पूरा देश भुगत रहा है? यदि जेपीवादी स्वयं को गांधीवादी मानते हैं तो फिर उन्हें आत्मावलोकन कर गलतियां स्वीकार करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। विनोबा ने न केवल महात्मा गांधी की गलतियों की ओर इंगित किया है, बल्कि अनेक स्थानों पर अपनी गलतियों को भी स्वीकार किया है। वे यहां तक कह सकने की हिम्मत रखते हैं कि में अपने सामने ही स्वयं के द्वारा चलाए सभी आंदोलन समाप्त होते देखना चाहता हूं। जेपी आंदोलन के बाद ही विनोबा ने यह बात कह दी थी कि सर्वोदय विचार पचास साल के लिए शीतागार में चला जाने वाला है। विनोबा ने सर्वोदय कार्यकर्ताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को भांप लिया था, इसलिए सर्व सेवा संघ को अपना नैतिक समर्थन देना बंद कर दिया था। इसके परिणामस्वरूप सर्वोदय राजनीतिक दल बनने से बच गया, अन्यथा आज हम सभी के बीच अन्य दलों के समान हो सर्वोदय भी एक दल के रूप में मौजूद रहता।
जब विनोबा को सरकारी संत घोषित कर दिया गया, तब विनोबा ने एक बार फिर विचारधारा को जोडने के लिए गौरक्षा आंदोलन प्रारंभ किया। तब केंद्र में इंदिरा गांधी की सरकार थी। इस आंदोलन में भारतीय संस्कृति की रक्षा करने का दम भरने वाले सांस्कृतिक और राजनीति संगठनों सहित किसी ने भी इस मूलभूत प्रश्न के समाधान के लिए उनका समर्थन नहीं किया। यद्यपि विनोबा ने गौरक्षा सत्याग्रह को अहिंसक, अराजनीतिक और असांप्रदायिक आधार पर प्रारंभ किया था, जिसे सत्याग्रह की समाप्ति तक निभाया गया। गौरक्षा के लिए मर मिटने की बात कहने वाले पिछले आठ वर्षों से सत्ता में हैं, लेकिन अभी तक गौरक्षा का केंद्रीय कानून भी नहीं बन पाया है। यहां तक कि सत्तारूढ दल के मातृ संगठन ने इस प्रश्न पर दबाव न बनाने की अनीति अपनायी है।
जेपी आंदोलन के प्रभाव में ही सर्वोदय के वरिष्ठ कार्यकर्ता द्वारा विनोबा के भूदान और ग्रामदान को बोगस ठहरा दिया गया था। जेपी को लेकर जिस प्रकार का भक्तिभाव दिखायी देता है, वह वर्तमान प्रधान सेवक के भक्तिभाव से बिल्कुल भिन्न नहीं है। जेपी ऐसे व्यक्तित्व हैं, जो आज भी राजनीतिक दलों के बीच सेतु और अलगाव का काम कर रहे हैं। विपक्ष की एकता के बीच आज भी जेपी खड़े हैं और अड़े हैं। आज विपक्ष में होने के बावजूद अनेक विचारधाराएं कांग्रेस को अपना पहले नंबर का शत्रु मानती हैं। उनमें जेपी की गलतियों पर पर्दा डालने वालों का भी योगदान है। गलती को सिद्धांत बनाकर पेश करना देश और दुनिया के सामने भ्रम ही फैलाएगा। इससे वैचारिक मनोरंजन और आत्मतुष्टि तो मिलेगी, परंतु मंजिल पर पहुंचने में संदेह बना रहेगा।
-डॉ पुष्पेन्द्र दुबे
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