विद्या में ब्रह्माण्ड की समग्रता, विविधता और अनेकता में एकता का भाव समाया हुआ है। विद्या व्यक्ति को सहजता, सरलता, स्पष्टता, सादगी, सत्य, स्नेह और व्यापकता की ओर ले जाती है। इससे शुभ, लाभ, मंगल, कल्याण, साधना, संकल्प और निष्ठा का विकास होता है। विद्या जन्म के साथ ही मिलने लगती है। यदि इसको सही दिशा, अवसर, माहौल, समझ, सोच और विचार मिल जाए, यदि सही ढंग से अंकुरित हो जाए तो विद्या सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय की राह आसान कर देती है। दुनिया में विद्या प्राप्त करने वाले असंख्य लोग हैं, जो अशिक्षित, अनपढ़ रहते हुए भी अद्भुत क्षमता के धनी रहे हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हैं।
यदि शिक्षा साक्षरता, पुस्तक, जानकारी, सूचना तक सीमित रह जाती है, तो वह खंड, पिंड, सीमित और संकुचित मानसिकता की ओर धकेलती है। वह लाभ, लोभ, शोषण और लूट के रास्ते खोलती है।
विद्या मनुष्य के जीवन में विकास के द्वार खोलती है। एक सार्थक जीवन जीने का माध्यम बनती है। विद्या मनुष्य को मुक्त कर देती है. यह विद्या आखिर है क्या? इसे जानने, समझने, पहचानने, अपनाने की आवश्यकता है।
अक्षर ज्ञान, साक्षरता, लिखना, पढ़ना तो शिक्षा का अंग है। विद्या का वास्तविक स्वरूप वृहद और विस्तृत है। शिक्षा पर पुरातन काल से तरह-तरह से काम होते रहे हैं। इसके विभिन्न स्वरूप, प्रकार और परिभाषाएं प्रकट हुईं। अनेक प्रकार के प्रयोग और विचार होते रहे हैं। घर, समाज, आश्रम, गुरुकुल, विद्यालय, पाठशाला और शिक्षण संस्थानों के द्वारा शिक्षा मिलती रही है। साथ ही इसकी व्यवस्था, प्रबंधन और प्रक्रिया भी समय के साथ-साथ बनती बिगड़ती रही है। मुफ्त से लेकर मंहगी तक, मुक्ति से लेकर बंधन तक, सामान्य से लेकर विशेष तक और खुले आसमान से लेकर बंद भवनों तक शिक्षा ने अनेक उतार चढ़ाव और प्रयोग देखे हैं। यह क्रम अभी भी जारी है और आगे भी जारी रहेगा।
विद्या का मतलब है मनुष्य का मानसिक, शारीरिक, भौतिक, सामाजिक, नैतिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और आर्थिक हर प्रकार का विकास यानी समग्र उन्नति। जीने की कला का अभ्यास, आचरण और उसका पालन ही विद्या है। जिससे जीवन में विनम्रता, चिंतन, श्रम, सादगी, सहजता, सरलता, निर्भयता, निष्पक्षता, कला, संगीत, रोजगार, साहित्य, सामूहिकता, सामंजस्य, सौहार्द्र और स्वावलंबन सधे, वह विद्या है। संक्षेप में कहें तो हाथ, हृदय और मस्तिष्क का विकास जिससे संभव हो, वह विद्या है।
सीखना, सिखाना, पढ़ना, पढ़ाना, तालीम का लेन-देन, सूचना का आदान-प्रदान, अभ्यास, निपुणता, उपदेश, साधना, मंत्र, तप, जप, सबक, शासन, न्याय, समता, संयम, श्रम, स्वानुशासन, करुणा, दंड, विनय, शिष्टता, विनम्रता, ज्ञान, विज्ञान, कला, प्रयोग, साहित्य, सृजनशीलता, रचना और कौशल, विद्या के अंग हैं। विद्या जन्म से मृत्यु तक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। विद्या क्षेत्र, समाज, देश और प्रकृति की जरूरत के अनुसार अपनी पगडंडी तलाश लेने की क्षमता और कुशलता रखती है।
श्रम-निष्ठा द्वारा स्वास्थ्य, उद्योग द्वारा स्वावलंबन, कर्म द्वारा सत्यनिष्ठा, वैज्ञानिक वृत्ति द्वारा व्यवस्था तथा स्वच्छता का अभ्यास, सामूहिक जीवन द्वारा सहिष्णुता, सहयोग द्वारा सेवावृत्ति, कार्य-कौशल द्वारा ज्ञान-पिपासा की पूर्ति व स्वाध्याय, निर्माण द्वारा कल्पना तथा मूल प्रवृत्तियों के शोधन और कर्तव्यनिष्ठा आदि मानवीय गुणों से ही विद्या की बुनियाद मजबूत होती है।
स्वच्छ और स्वस्थ जीवन, सामाजिक शिक्षण और समाज सेवा, मूल उद्योग और स्वावलंबन, सांस्कृतिक और कलात्मक जीवन, तत्संबंधी सिद्धांत, ज्ञान की प्राप्ति और उसका अभ्यास भी विद्या के अंग हैं। आत्म संरक्षण, जीविकोपार्जन, पालन पोषण एवं वंश वृद्धि, नागरिकता की शिक्षा, अवकाश का सदुपयोग ये पांच तत्व विद्या के अभिन्न भाग हैं। सदाचारी, नैतिक और इन्द्रियों को वश में रखने वाला मनुष्य ही विद्या का सदुपयोग कर सकता है। वही सबके भले में अपना भला देख सकता है।
ऐसी कहावतें बहुत प्रचलित हैं कि यथा राजा तथा प्रजा, यथा गुरू तथा शिष्य आदि। अर्थात संगत, सत्संग, संगीत, साथ, सोच, समझ, वातावरण पर विद्या का बड़ा प्रभाव पड़ता है। शिक्षा यदि मातृभाषा में हो, शिक्षा यदि मुफ्त हो, शिक्षा यदि लोगों की जरूरतें पूरी करती हो, शिक्षा यदि स्वावलंबी बनाने वाली हो, शिक्षा यदि श्रम करना सिखाती हो, शिक्षा यदि काम-धंधे, उत्पादन, कृषि और उद्योग से जुड़ी हो, शिक्षा की व्यवस्था पर जनता का नियन्त्रण हो, आपस में मेल हो, शिक्षा समग्रता में हो, तो यही विद्या है।
गांधी जी ने शिक्षा के बारे में बहुत कुछ कहा, लिखा, प्रयोग किया है। बुनियादी शिक्षा, नई तालीम के प्रयोग काफी चर्चित रहे हैं। ये प्रयोग एक नई दिशा देते हैं, सोच और समझ पैदा करते हैं। गांधी जी ने कहा कि सार्थक शिक्षा वही है, जो अच्छाई और बुराई में फर्क करना सिखाए। अच्छाई को आत्मसात करते हुए बुराई से बचने की राह दिखाए। बिना हिम्मत की शिक्षा ऐसी है, जैसे मोम का पुतला। दिखने में सुंदर होते हुए भी किसी गरम चीज के जरा सा छू जाने से ही वह पिघल जाता है। गांधी ने यह भी कहा कि सुसंस्कृत घर जैसी कोई पाठशाला नहीं और ईमानदार तथा सदाचारी माता पिता जैसा कोई शिक्षक नहीं। गांधी जी के यह भाव विद्या को ही स्पष्ट करते हैं, चाहे शब्द भले शिक्षा का प्रयोग किया गया है।
-रमेश चंद शर्मा
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