हिन्दू या वैदिक धर्म की सबसे बड़ी खूबी है कि इंसान को अंतरात्मा की पूरी आज़ादी है। वह ईश्वर को माने या न माने, जिस रूप में चाहे उस रूप में माने, कोई उसे धर्म से बाहर नहीं कर सकता। उसमें विचारों पर पहरा नहीं है। मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना; उपनिषद भी सवाल जवाब को प्रोत्साहित करते हैं। यहां तक कि बालक नचिकेता को यमराज से सवाल करने में भी डर नहीं लगता। भारतीय संविधान में भी धार्मिक स्वतंत्रता की अवधारणा को स्वीकार किया गया है।
ईश्वर का कोई अवतार अनंत काल के लिए नहीं आता। संभवामि युगे-युगे अर्थात् ईश्वर हर युग की ज़रूरत के अनुसार अवतार लेता है और अपना काम पूरा करके चला जाता है। ऐसे ही एक अवतार भगवान राम हैं।
भगवान राम भारतीय समाज के मानस पटल पर इतने गहरे और व्यापक रूप में अंकित हैं कि सबको अपनी-अपनी सोच और ज़रूरत के मुताबिक़ कुछ न कुछ रक्षा-कवच मिल ही जाता है – चाहे वह आस्तिक हो या नास्तिक, सगुण ईश्वर का उपासक हो या निर्गुण ईश्वर का। हिंदू हो मुस्लिम हो या ईसाई। राम सबके हैं।
एक राम दशरथ का बेटा है और एक राम घट-घट में बैठा है, सर्वव्यापी है। सीयराम मय सब जग जानी। विष्णु ने राम के रूप में लोगों के कल्याण के लिए मनुज अवतार लिया है, वह दीन दयालु हैं, कृपालु हैं और वही राम अजन्मा भी है। जिस राम ने अवधपुरी में जन्म लिया यानी कौशल्या के बेटे के रूप में शरीर धारण किया, उस राम ने अंत में सरयू में जल समाधि ली और वही राम अजर-अमर भी है। न वह जन्मा और न मृत्यु को प्राप्त हुआ।
वाल्मीकि के राम अयोध्या के राजा हैं, जो एक ब्राह्मण की शिकायत पर तपस्वी शम्बूक का वध करते हैं और सीता का परित्याग भी, लेकिन तुलसी ने अपने समय की ज़रूरत के मुताबिक़ बहुत से पुराने प्रसंग हटाकर राम का नया चरित्र गढ़ा, जो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और आदर्श शासक भी। तुलसी के राम पिता के आदेश का पालन करते हुए राजपाट छोड़कर वन जाते हैं, केवट के गले लगते हैं और शबरी के जूठे बेर भी खाते हैं, एक आम इंसान की तरह सीता हरण के बाद रोते हैं। पेड़ पौधों से पूछते हैं कि किसी ने मृग नयनी को देखा हो तो बताये।
तुलसी के राम को सरयू के किनारे बसी समूची अवधपुरी परम सुहावनी लगती है । वह ठीक-ठीक वह कोना ढूँढने की ज़रूरत नहीं समझते, जिसे उनके भगवान राम का जन्म स्थान कहा जा सके। वह तो रघुनाथ गाथा के माध्यम से एक आदर्श पारिवारिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था का स्वरूप दिखाना चाहते हैं।
तुलसी दास के राम चरित मानस के अलावा राधेश्याम रामायण भी बहुत लोकप्रिय है। हमारे गांव की रामलीला में हम लोग राधेश्याम रामायण का इस्तेमाल करते थे। गांव की रामलीला में मैं लक्ष्मण की भूमिका में होता था। लक्ष्मण परशुराम संवाद रामलीला का एक रोचक प्रसंग होता था।
धनुष यज्ञ और राम विवाह के दूसरे दिन राम बारात घर-घर घूमती थी, जिसमें हमारे परिवार के बुजुर्ग ही राम लक्ष्मण का स्वरूप धारण किये हम लोगों के पैर छूकर आरती उतारते थे। यह भगवान राम के प्रति अगाध श्रद्धा है।
हमारे बचपन में दुआ सलाम के लिए राम-राम या जै राम जी कहते थे। इन दोनों में प्रेम की भावना और ध्वनि थी। फिर 1984 में बाबरी मस्जिद बनाम राम मंदिर आंदोलन शुरू हुआ तो जय श्रीराम के आक्रामक नारे गूंजने लगे, जिसमें वह मिठास और प्रेम नहीं है। कवि अल्लामा इक़बाल राम की कल्पना इमाम-ए-हिन्द के रूप में करते हैं-
है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़,
अहले-नज़र समझते हैं इसको इमाम-ए- हिन्द।
जब छह दिसंबर को बाबरी मस्जिद टूटी तो कैफी आज़मी ने एक लंबी कविता लिखकर कहा कि राम को दूसरा वनवास हो गया।
“राजधानी की फ़ज़ां आई नहीं रास मुझे
छै दिसम्बर को मिला दूसरा बन-बास मुझे”।
इन रामभक्त कारसेवकों ने कितने लोगों के कष्ट दिया, यद्यपि तुलसी दास कह गये हैं- पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश से अब जल्दी ही अयोध्या में एक भव्य राम मंदिर बनकर तैयार हो जायेगा, अगले लोक सभा चुनाव से पहले। पर कौन जाने मर्यादा पुरुषोत्तम को वह दिव्य और भव्य नया घर पसंद आयेगा या नहीं!
साबरमती के संत, मोहनदास करम चंद गांधी जिस राम का हर पल जाप करते थे और मरते समय भी जिस राम का नाम उनके मुख से निकला, वह तो अयोध्या के राजा दशरथ का बेटा है ही नहीं, वह तो सर्वव्यापी है और केवल उसके नाम का जाप सब व्याधियों से मुक्ति दिलाने वाला है।
राम से बड़ा राम का नाम। यह कोई गांधी की अपनी खोज नहीं है। राम विष्णु के अवतार हैं और आयुर्वेद के ग्रंथ चरक संहिता के अनुसार विष्णु के हज़ार नामों में से किसी एक का जाप करने मात्र से सारे रोगों का नाश हो जाता है, मगर शुद्ध भावना से, उसका भी अपना विज्ञान है। गांधी के राम किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष से बंधे नहीं है। वह कहते हैं – ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान।
गांधी ने आज़ाद भारत में आदर्श समाज और राज्य का मतलब आम आदमी को समझाने के लिए रामायण के रामराज्य की उपमा का सहारा लिया। राम के नाम पर गांधी सत्य, अहिंसा, स्वतंत्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व पर आधारित समाज बनाना चाहते थे, जिसके सूत्र उन्हें अन्य स्थानों के अलावा रामायण में मिले।
रामराज्य में प्रजा भी आदर्शवादी थी। गांधी के समय न राज आदर्श स्थिति में था, न समाज। वह सत्य और अहिंसा के मूल मंत्र से नया राज और समाज बनाने के लिए काम कर रहे थे, जो तमाम पुरातन पंथी राजे रजवाड़ों और सामंतवादी सोच वालों को पसंद नहीं था। सावरकर जैसे लोगों को भी गांधी पसंद नहीं थे, इसीलिए गांधी की हत्या के प्रयास 1934 से ही शुरू हो गये थे। भारत विभाजन तो बहाना था।
संत तुलसी दास ने रामराज्य का वर्णन करते हुए लिखा है –
बयरु न कर क़ाहू सन कोई,
राम प्रताप विषमता खोई।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।
नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।
चाहें तो साम्यवादी भी गांधी की तरह समानता आधारित समाज के सूत्र रामायण में खोजकर अपने को भारतीय मन से जोड़ सकते हैं, पर वे ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि कार्ल मार्क्स ने ऐसा नहीं लिखा। पता नहीं कम्युनिस्ट क्यों आज भी गांधी से दुश्मनी मानते हैं, जबकि देश पर फासिज्म का ख़तरा मंड़रा रहा है।
डाॅ. राम मनोहर लोहिया अवध में सरयू किनारे के ही रहने वाले थे, वह थे तो नास्तिक लेकिन राम के चरित्र से इतना प्रभावित थे कि रामायण मेला की परिकल्पना की थी। बाद में जनता सरकार बनने पर इसे चित्रकूट में भव्य रूप में आयोजित किया गया, जिसका उद्घाटन प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई ने किया और उस मेले में लोकनायक जयप्रकाश नारायण का संदेश पढ़कर सुनाने का अवसर मुझे मिला ।
डाॅ. लोहिया का मानना था कि राम भारत में उत्तर और दक्षिण की एकता के सूत्र थे। उनकी कल्पना के रामायण मेले में राम कथा पर मुख्य भाषण एक ईसाई विद्वान फ़ादर कामिल बुल्के का होता था। राम कथा पर उनकी किताब भी है।
आज़ाद भारत में जब 1950 में संविधान सभा ने “हम भारत के लोगों” की ओर से अपने संविधान को अंगीकार किया, तब न तो गांधी थे और न ही नागपुर वालों का कोई दबाव था। नागपुर वाले तो वैसे भी राम को एक ऐतिहासिक पुरुष तक सीमित रखते हैं। फिर भी नेहरू और कांग्रेस की तत्कालीन सरकार ने संविधान के मौलिक अधिकार वाले अध्याय में भगवान राम का चित्र अंकित कराया। इस प्रक्रिया में डाॅ. अम्बेडकर भी शामिल थे। चित्र इसलिए लगा क्योंकि राम को आदर्श शासक माना गया, जिन्होंने एक सामान्य नागरिक के मौलिक अधिकारों का सम्मान किया। रामराज्य की परिकल्पना एक आदर्श कल्याणकारी राज्य की कल्पना है, जहां किसी को दैहिक दैविक और भौतिक कष्ट नहीं होता।
जिस तरह राम युद्ध से पहले रावण को सम्मानपूर्वक अपना पुरोहित बनाते हैं, युद्ध से पहले विभीषण को शरण देते हैं, रावण के अंत समय में लक्ष्मण को उनसे ज्ञान प्राप्त करने भेजते हैं और फिर रावण का अंतिम संस्कार विधि विधान से करके विभीषण को लंका का राजपाट सौंप देते हैं, वह भी राजनीति और कूटनीति के उत्तम उदाहरण हैं।
नयी पीढ़ी को राम के इस चरित्र से कौन परिचित करायेगा? सवाल यह भी उठता है कि राम के चरित्र से हम आज क्या ग्रहण करें। राम राज्य में एक आदर्श कल्याणकारी, जनता के प्रति जवाबदेह सरकार और सुशासन के सूत्र हैं। तुलसी के रामचरित मानस में एक अकेला राम विवाह का प्रसंग भगवान राम के संपूर्ण स्वरूप का दर्शन कराता है और अहिल्या के पत्थर हो जाने के मर्म को भी समझाता है।
तुलसी की कल्पना के राज्य में राजा को भी दंड देने की व्यवस्था थी –
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी,
सो नृप अवसि नरक अधिकारी।
स्वर्ग और नरक किसने देखा है? पर भारतीय संस्कृति में कर्म फल और कर्म दंड यहीं भोगना पड़ता है। उदाहरण पड़ोसी देश नेपाल से ले लीजिए, जो कुछ वर्षों तक हिन्दू राष्ट्र था और राजा विष्णु का अवतार माना जाता था। लेकिन कुशासन, गरीबी और बेरोज़गारी से परेशान जनता ने न केवल राजा को गद्दी से उतार फेंका, बल्कि संविधान सभा ने हिन्दू राष्ट्र का दर्जा भी समाप्त कर दिया।
आज राम का नाम लेने वाले तो बहुत हो गये हैं, लेकिन बहुतों को पता ही नहीं कि राम होने का मतलब क्या होता है? राम सबके पालनहार हैं। राम को किसी सम्प्रदाय और देश, शहर या स्थान की सीमा में बांधा नहीं जा सकता। सारा विश्व उनका है और वह सारे विश्व के हैं।
-राम दत्त त्रिपाठी
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