जावेद पाशा
भारत की सभ्यता किसी एक मजहब या समाज ने नहीं, हम सबने मिलकर बनायी है. सभ्यता का संघर्ष सत्ताखोरों का संघर्ष होता है. यह कभी भी लोक संघर्ष नहीं होता. गांधी जी का खून भी सभ्यता के ठेकेदारों ने ही बहाया था. महात्मा गाँधी खुद में एक सभ्यता थे, जिनके होने से हत्यारों की सभ्यता खतरे में आ पड़ी थी. उनकी सभ्यता हमेशा से भारतीय सभ्यता के खिलाफ रही है. सभ्यताओं के सामने जो संघर्ष होते हैं, वे सभ्यता के संघर्ष नहीं होते. गांधी जी के हिन्द स्वराज की भावना और इस देश की संवैधानिक तासीर को तोड़ने के लिए हिन्दू मुसलमान को आमने सामने खड़ा किया गया. जब द्रविड़ और आर्य भारत में आकर बसे, तो उनकी तहजीबों के बीच कोई संघर्ष नहीं था. आर्यों ने द्रविड़ों से और द्रविड़ों ने आर्यों से बहुत कुछ सीखा. आज गांधी से बड़ा दूसरा कोई मजहब और उनकी आत्मकथा तथा हिन्द स्वराज से बड़ा दूसरा कोई धर्मग्रन्थ नहीं है. इस दर्शन को अधिक से अधिक फैलाने की जरूरत है. उनके हत्यारे जानते थे कि अपनी वैचारिक पृष्ठभूमि पर गांधी देश को जिस दिशा में ले जाना चाहते हैं, वहां हमारा संस्कृति कपट नहीं चलने वाला है, इसलिए उन्हें मार डालने का तय किया गया था. दूसरों की पीड़ा जो समझे, ऐसे वैष्णव जनों के धर्म की बुनियाद में सूफियों का दर्शन भी शामिल रहा है, इसलिए हमारी भारतीय सभ्यता को यह ऊंचाई हासिल हुई. इसी ऊंचाई से डर गये थे बापू के हत्यारे, क्योंकि इस समन्वयकारी संस्कृति के पैरोकार और संरक्षक थे गांधी. उनकी राजनीतिक, आर्थिक और आध्यात्मिक परिपक्वता ने उन्हें विलक्षण बनाया था. उन्होंने कहा था कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद नस्लवाद पर खड़ा है. भारत की यही नस्लवादी शक्तियाँ तब अंग्रेजों से जुड़कर उनके हक में मुखबिरी कर रही थीं.
हमारी मिली जुली सभ्यता में भेद अंग्रेजों ने डाला. 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष हुआ तो देश के 42 हिन्दू राजाओं ने मिलकर देश की कमान बहादुर शाह जफर को सौंपी. कहाँ था संघर्ष? अंग्रेजों ने जब इस संयुक्त ताकत को महसूस किया तो इतिहास लिखना शुरू किया. जब हिन्दू भारत का इतिहास लिखा तो लिखा कि हिन्दुओं ने खुद को बहुत आगे पहुंचाया. जब इस्लामिक भारत का इतिहास लिखा तो लिखा कि मुस्लिमों ने हिन्दुओं पर बहुत अत्याचार किये. और ब्रिटिश भारत का इतिहास लिखा तो लिखा कि ब्रिटिशर्स हिन्दू मुसलमान दोनों से अच्छे हैं, इसलिए भलाई हमारे साथ रहने में है. तो कहाँ था संघर्ष? संघर्ष तो पैदा किया जा रहा था.
हिन्दू मुस्लिम एकता की मार से घबराए अंग्रेजों ने तब आनन्द मठ लिखने वाले बंकिम चन्द्र चटर्जी को बिना कोई इम्तिहान लिए डिप्टी जज नियुक्त किया था, क्योंकि बंकिम ने अपने उपन्यास में उस दौर का कथानक लिया, जब हिन्दुस्तानी अवाम की मिली जुली संस्कृति की विश्व में पताका फहरा रही थी. उस फैब्रिक को ध्वस्त करने के लिए बंकिम ने हिन्दू राष्ट्र के स्वरूप का आधार लिया. उसके बाद आये सावरकर, जिन्होंने कहा कि यह हिन्दू मुसलमान का अंग्रेजों से संघर्ष नहीं है, यह हिन्दुओं का मुसलमानों के साथ संघर्ष है. तब महात्मा गांधी ने घोषणा की यह आज़ादी की लड़ाई उस देश के लिए हो रही है, जिसमें हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सबकी बराबर की हिस्सेदारी होगी. गाँधी ने उस संघर्ष को देशी स्वरूप दिया और देश के किसानों, मजदूरों को जोड़कर एक साथ, एक मुंह मैदान में उतार दिया. आज़ादी की लड़ाई को पूंजीवादियों के खिलाफ खड़े हुए मजदूरों का संघर्ष बना डालने वाले गांधी ने जो वितान रचा, उससे गुजरकर पता चलता है कि यह सभ्यताओं का संघर्ष नहीं, पूंजीवादियों के विरुद्ध संघर्ष था. अगर सभ्यताओं में संघर्ष होता तो गुरुनानक देव के भजनों में बाबा फरीद के भजन न होते और तुलसीदास मस्जिद में बैठकर रामायण का उत्तरार्द्ध न लिखते. असलियत तो यह है कि आज समाज के सभी समूहों में जो प्रभु वर्ग है, उसने मिलकर एक नेक्सस बना रखा है. इस देश की व्यवस्थापिका पर, इस देश के लोकतंत्र पर आज उन्हीं का कब्जा है. इसलिए कहता हूँ की सभ्यताओं का छद्म संघर्ष खड़ा किया गया है.
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