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सामाजिक सद्भाव के लिए सतत अभियान की जरूरत

इस दुखद और कलंकित करने वाली घटना के बाद अनेक संगठनों ने इसकी निंदा की है। कुछ सामाजिक संगठनों ने उच्चाधिकारियों से मिलकर घटना में शामिल दोषियों पर कड़ी कार्यवाही करने की मांग की है। चम्पावत के जिला मुख्यालय में इस घटना के विरोध में जुलूस भी निकाला गया है। उत्तराखंड सर्वोदय मण्डल ने भी इस काण्ड की निंदा करते हुए समाज से ऐसी घटनाओं के विरुद्ध सामाजिक अभियान आरंभ करने की अपील की है।

उत्तराखंड में कुछ समय से दलितों के साथ हो रहे भेदभाव और उत्पीड़न को देखते हुए सामाजिक सद्भाव के लिए बड़े अभियान की आवश्यकता महसूस की जा रही है। हाल ही में शादी में अपने हाथ से खाना निकालने पर एक दलित व्यक्ति की हत्या की दुखद घटना हुई है। उत्तराखंड में नेपाल की सीमा से सटे चम्पावत जिले के देवीधुरा के पास केदारनाथ गांव में दर्जी का काम करने वाले रमेश राम के साथ गत 28 नवम्बर को एक शादी में यह वारदात हुई थी।

नैनीताल के ओखलकांडा में दलित ‘भोजन माता’ का बनाया खाना खाने से इनकार


बताते हैं कि रमेश राम सवर्ण समाज की एक शादी में गए थे, जहां खाना अपने हाथ से निकालने पर विवाद हुआ था। इस शादी में कुछ सवर्णो ने उनके साथ मारपीट की, बुरी तरह से घायल रमेश राम को कुछ लोग उलोहाघाट के अस्पताल में छोड़कर चले गए, बाद में उन्हें चम्पावत के जिला अस्पताल और बाद में वहां से हल्द्वानी, नैनीताल के सुशीला तिवारी अस्पताल में रेफर कर दिया गया, जहां इलाज के दौरान रमेश राम की मृत्यु हो गई। बताते हैं कि हल्द्वानी अस्पताल ले जाते हुए रमेश ने अपने बेटे को घटना की जानकारी दी थी।


इस दुखद और कलंकित करने वाली घटना के बाद अनेक संगठनों ने इसकी निंदा की है। कुछ सामाजिक संगठनों ने उच्चाधिकारियों से मिलकर घटना में शामिल दोषियों पर कड़ी कार्यवाही करने की मांग की है। चम्पावत के जिला मुख्यालय में इस घटना के विरोध में जुलूस भी निकाला गया है। उत्तराखंड सर्वोदय मण्डल ने भी इस काण्ड की निंदा करते हुए समाज से ऐसी घटनाओं के विरुद्ध सामाजिक अभियान आरंभ करने की अपील की है। यह दुख की बात है कि उत्तराखंड के परम्परागत व रूढ़िवादी समाज में तमाम तरह के प्रगतिशील और सद्भावना आंदोलनों के बाद भी हर वर्ष छुआछूत और जातिगत भेदभाव के ऐसे किस्से और घटनाएं देखने सुनने को मिल रही हैं।

उत्तराखंड में सवर्णों के डर से दलितों ने छोड़ा घर


अप्रैल 2019 में गढ़वाल में भी एक शादी में ऐसे ही एक विवाद में एक दलित युवक की हत्या हुई थी। बागेश्वर में चक्की छूने पर दलित की हत्या, मंदिर प्रवेश को लेकर दलित पर पथराव और कोविड काल में नैनीताल जिले में दलित उत्पीड़न जैसी घटनाएं पिछले कुछ वर्षों की हैं। दो वर्ष पूर्व बीबीसी के प्रतिनिधि से बात करते हुए उत्तराखंड अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग के एक जिम्मेदार अधिकारी ने बताया था कि राज्य में दलित उत्पीड़न की हर साल करीब 300 घटनाएं प्रकाश में आती हैं। एक दलित सूत्र के अनुसार इस साल दलित उत्पीड़न की करीब 200 घटनाएं हुई हैं, जो बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है. ये घटनाएं बताती हैं कि राज्य में सवर्ण-अवर्ण में गहरा जातिगत भेदभाव है, वहीं दूसरी ओर यह भी सच है कि सवर्णों के बीच भी जातिगत भेदभाव मौजूद है।


यह बड़ा दुखद दुर्योग है कि जिस गांव में यह कलंकित घटना हुई है, उसका नाम केदारनाथ है। उत्तराखंड के टिहरी जिले के दूरस्थ गांव बूढ़ा केदारनाथ में 1952 में गांधी विचार के आधार पर दलित व सवर्ण परिवारों में साथ रहने, खाने और काम करने का एक अनूठा प्रयोग हुआ था, जो लम्बे समय तक समाज में सद्भाव और सौहार्द्र को प्रेरित करता रहा.


यहां यह उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड हमेशा से ऐसा इलाका रहा है, जहां से लोगों को सामाजिक चेतना और रोशनी मिलती रही है. उत्तराखंड को देवभूमि के रूप में जाना माना जाता है, स्वतंत्रता के बाद आधुनिक काल में गांधी के विचारों से प्रभावित होकर यहां के समाज सेवकों ने ऐसे क्रांतिकारी आंदोलन आरंभ किये, जिन्होंने देश, विदेश में लोगों, संस्थाओं व सरकारों को प्रेरित और प्रभावित किया।


उत्तराखंड में सवर्णों के डर से दलितों ने छोड़ा घर : सवर्ण जाति के डर से दलितों ने छोड़ा गांव, ब्लॉक मुख्यालय में ली शरण
उत्तराखंड से आरंभ हुए ऐसे आंदोलनों से समाजों और सरकारों के सोचने, समझने और रहन-सहन के तरीकों में बदलाव हुआ। ये सारे आंदोलन गांधी और विनोबा के विचारों से प्रभावित व प्रेरित थे। इन सब में उत्तराखंड में सामाजिक सद्भाव के लिए भी जो काम हुआ है, उसकी दूसरी मिसाल मिलना मुश्किल है।


देश की स्वतंत्रता और टिहरी रियासत के विलय के बाद गांधी विचार से प्रभावित कार्यकर्ता उत्तराखंड के विभिन्न हिस्सों में रचनात्मक कार्य में लग गए थे. खेती, पशुपालन, खादी और ग्रामोद्योग के माध्यम से लोगों में स्वावलंबन बढ़ाने और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण का काम जगह जगह आरम्भ हुआ था।


लेकिन इन सबमें सबसे क्रांतिकारी काम सामाजिक सद्भाव और छुआछूत रोकने का था। स्मरणीय है कि सवर्ण और अवर्ण के साथ रहने, खाने और काम करने का अनूठा कार्य उत्तराखंड में टिहरी जिले के दूर दराज के एक इलाके बूढ़ा केदारनाथ में 1952 में आरंभ हुआ था।
ऐसी स्थिति में ज़रा कल्पना करें कि आज से 70-75 साल पहले समाज कितना पुरातनपंथी होगा। उन हालात में भी गांधी विचार से प्रभावित होकर बूढ़ा केदारनाथ में ब्राह्मण, क्षत्रिय और शिल्पकार परिवारों ने कैसे एक साथ मिलकर रहने, काम करने और खाना खाने का निर्णय किया होगा। यह विलक्षण और अनुकरणीय कार्य टिहरी रियासत के एक ब्राह्मण रसोइया परिवार के धर्मानंद नौटियाल, एक क्षत्रिय ठाकुर बहादुर सिंह राणा और शिल्पकार भरपूर नगवाण ने 1952 में आरम्भ किया और सबसे आश्चर्यजनक बात यह रही कि जिस मकान में तीनों परिवारों ने साथ रहने का निर्णय किया, वह घर प्रसिद्ध बूढ़ा केदारनाथ मंदिर के पास ही था, जो चार धाम यात्रा के पैदल मार्ग का भाग रहा है. जिस समय दलित और सवर्ण समाज के इन तीनों परिवारों ने साथ रहने का निर्णय लिया था. उस समय बूढ़ा केदारनाथ मंदिर में दलितों, शिल्पकारों का प्रवेश वर्जित था। बाद में सर्वोदय के लोगों ने ही बूढ़ा केदारनाथ मंदिर में प्रवेश को लेकर लम्बा आंदोलन चलाया था और लम्बे आंदोलन के बाद मंदिरों में दलितों के प्रवेश के रास्ते खुले थे।


उल्लेखनीय है कि गांधी जी ने सबसे पहले बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में साबरमती आश्रम में दलितों को आश्रम का रहवासी बनाने का प्रयोग आरंभ किया था, तब वहां गांधी का प्रभामंडल था, उनकी मौजूदगी थी और स्वतंत्रता का एक मिशन था, जिसके लिए समाज के सभी हिस्सों को साथ रखने और साथ चलाने की ज़रूरत थी। आश्रमों के बाहर समाज में इस प्रयोग को करने की किसकी हिम्मत थी? समाज से छुआछूत हटाने के अनेक व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयास हुए, लेकिन साथ रहने, खाने और साथ काम करने का कोई प्रयोग उसके पहले तक कोई नहीं कर सका था।


12 साल तक ये तीनों परिवार बूढ़ा केदारनाथ मंदिर के पास ही एक छत के नीचे रहकर सद्भाव और समन्वय की मिसाल बने रहे। बाद में परिवार बढ़ने के कारण अलग तो हुए, लेकिन आपसी सद्भाव फिर भी बना रहा।


इस सद्भाव के प्रयोग से प्रभावित होकर क्षेत्र में दलितों के मंदिर प्रवेश का सफल आंदोलन चला, श्मशान स्थलों में बराबरी आई, शिल्पकार परिवारों में कन्या विक्रय विवाह की जगह कन्यादान आरंभ हुआ. इसके अलावा और भी अनेक सामाजिक, आर्थिक विकास के कार्य बिना किसी बाहरी मदद के गांधी विनोबा विचार के आधार पर हुए।


आज उत्तराखंड में गांधी विचार और सर्वोदय को पुनः एक आंदोलन के रूप में चलाने की आवश्यकता है, ताकि समाज में समाजिक सद्भाव और सद्भावना का वातावरण बढ़ सके और ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो सके।

-इस्लाम हुसैन

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