भक्ति-मार्ग में कभी-कभी भजन नशे की तरह हो जाता है। रात-रात भर लोग जागते और भजन करते हैं। यह एक तरह का व्यसन ही है। फिर दिन में खूब सोते हैं। यह ठीक नहीं। हमें प्रार्थना पचानी, हजम करनी चाहिए। भोजन तो दस मिनट में हो जाता है, पर उसे हम दिन भर हजम करते रहते हैं। ठीक इसी तरह प्रार्थना में भी पन्द्रह मिनट खा लिया तो दिन भर उसे कार्य में प्रकट करना होगा। हम प्रार्थना का नशा नहीं चाहते, उसे समत्वयुक्त कर्मयोग के रूप में प्रकाशित करना चाहते हैं।
प्रार्थना के विषय में मुझसे तीन प्रश्न पूछे गये हैं। विषय के पोषक होने के कारण उत्तर के साथ यहां उन्हें समझना ठीक होगा।
मौन-प्रार्थना
प्रश्न : जहां भिन्न-भिन्न धर्म वाले इकट्ठा होते हैं, वहां एक प्रार्थना कैसे चल सकती है? ऐसे स्थान पर किस प्रकार की प्रार्थना चले?
उत्तर : हमने कश्मीर की यात्रा में देखा कि सेना के जवान खाना-पीना सब साथ करते हैं, लेकिन ईश्वर का नाम लेने का मौका आया, तो सब अलग हो जाते हैं। अपनी-अपनी अलग प्रार्थना करते हैं। यानी ईश्वर एक अलग करने वाला तत्त्व हो गया। पर इसमें तो ईश्वर की बड़ी निन्दा है। हम समझ सकते हैं कि और कामों में हम अलग हों, लेकिन ईश्वर-स्मरण के समय अलग होना बड़ा विचित्र है। सभी धर्म वालों को इकट्ठा करने की दृष्टि से हमने मौन-प्रार्थना चलायी। वह एक ऐसी अक्सीर चीज है कि चलेगी। मौन से पहले हम कहते हैं कि हम परमात्मा से सत्य, प्रेम, करुणा की मांग करें। यह प्रार्थना का भाव है। बाद में कहते हैं कि अगर नाम लेना है, तो जिस नाम की जिसे आदत है, वह उस नाम का चिन्तन करे।
आप एक भोजन करते हैं, लेकिन हर एक के पेट में अलग-अलग ही पचता है। इसलिए वह अलग भोजन है, सह-भोजन नहीं है, ऐसा कहेंगे। प्रार्थना का मुख्य भाव सत्य, प्रेम, करुणा रहा, तो आपकी प्रार्थना का आशय एक ही हुआ। फिर आप कितनी गहराई में जाते हैं, यह देख लीजिये। नदी में हम मिलकर तैरने जाते हैं, तो हर कोई अपनी-अपनी शक्ति के मुताबिक गहरे पानी में उतरता है। मौन-प्रार्थना में नाम लेना प्रधान अंश नहीं, सत्य, प्रेम, करुणा समान अंश है। ‘प्रभु हमें सत्य दें’ यह बोलने की क्रिया अंदर चल रही है, लेकिन वह अलग-अलग भाषा में चल रही है, तब भी अर्थ एक ही है। वैसे ईश्वर कहे, अल्लाह कहे, गॉड कहे, लेकिन उसका अर्थ ही है कि सत्य, प्रेम, करुणा देने वाले से हम एक ही चीज मांग रहे हैं। एक ही पदार्थ के विभिन्न भाषाओं में अनेक नाम होते हैं। वैसे ही ईश्वर के भी अनेक नाम होते हैं।
प्रार्थना सहज हो
सब लोग एक ही प्रार्थना एक ही भाषा में करें, ऐसे कुछ प्रयोग हुए हैं। उनसे कुछ तो लाभ हुआ है, लेकिन वह स्थाई नहीं बना। एक प्रार्थना करने वाले धीरे-धीरे ऐसी स्थिति में पहुंच जाते हैं कि फिर वे अपने से भिन्न स्थिति सहन ही नहीं कर पाते। इसलिए मैं इस बात के लिए अनुकूल हूं कि जिसे सहज भाव से जो सूझता है, उसी के अनुसार वह प्रार्थना करे। वास्तव में प्रार्थना हृदय की ही होती है। लेकिन हमें संतों की वाणी सूझती है, क्योंकि वे आध्यात्मिक भाषा ज्यादा जानते हैं। इसीलिए हम उनका आधार लेते हैं। वास्तव में हमें निज की प्रार्थना करनी चाहिए, मातृभाषा की नहीं। यह सारा एक प्रयत्न मात्र है। परमेश्वर अचिंत्य, अनंत है।
मेरा खयाल है कि पक्षी बड़े सबेरे उठकर जो बोलते हैं, वह ईश्वर-स्मरण ही है। शब्द तो वे ही होते हैं, जो वे पीछे भी बोलते हैं, लेकिन प्रभात के ज्यादा गंभीर होते हैं। प्रार्थना यानी जीव का ईश्वर को कृतज्ञतापूर्वक याद करने का एक प्रयत्न। उस प्रयत्न में जिसे जो सूझता है, वह करता है। बच्चा मरने पर किस तरह रोना चाहिए, उसका राग, लय, ताल तय करके सब माताओं को सिखाया जाय, तो कैसे होगा? उस वक्त तो माता का रोना सहज ही फूट पड़ता है, वैसे ही प्रार्थना भी हृदय से सहज भाव से निकलती है।
राम-नाम की महिमा
प्रश्न : एक आदमी खेती करता है और एक राम-नाम लेता है। उन दोनों में कौन श्रेष्ठ है?
उत्तर : अगर खेती करने वाला भक्ति-भावना से खेती करता हो, तो तुलना हो सकती है। अगर नाम-स्मरण करने वाला ईश्वर से कुछ नौकरी वगैरह मांग रहा हो, तो उसके नाम-स्मरण में कोई सार नहीं है। खेती और नाम-स्मरण दोनों आध्यात्मिक कार्य हों तो उनकी तुलना होगी और फिर यह उत्तर दिया जायेगा कि जिसमें कुदाल चलाने की शक्ति है, वह कुदाल चलायेगा। लेकिन वह शक्ति नहीं है, वह भी ‘राम-नाम’ ले सकता है। ‘राम-नाम’ मनुष्य का आखिरी आश्रय है।
प्रश्न : क्या कुदाल चलाने की शक्ति वाले मनुष्य का ‘राम-नाम’ लेना अच्छा है?
उत्तर : यह प्रश्न मुझसे पूछने में सार नहीं है, क्योंकि इसका उत्तर मेरे जीवन से मिलता है। अगर मुझे यह अच्छा लगता, तो मैं खुद राम-नाम लेता हुआ बैठा मिलता। लेकिन आप देख रहे हैं कि मैं दूसरा कुछ कर रहा हूं।
(‘अध्यात्म तत्त्व-सुधा’ से)
-विनोबा
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