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सांप्रदायिकता का सांप यानी नफ़रत का दलदल

राजसत्ता की भूमिका एकतरफ़ा होती दीखती है. न्यायपालिका से इस अन्याय में हस्तक्षेप की उम्मीद घट चुकी है. क़ानून-व्यवस्था को दबंगई से अप्रासंगिक बनाया जा रहा है. इससे राष्ट्रीय एकता को ख़तरा बढ़ रहा है. सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा मिल रहा है. इसका विरोध करने वालों को हिंदू विरोधी, लिबरल, वामपंथी और पाकिस्तान के दलाल तक धड़ल्ले से बताया जा रहा है. भारत की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक समस्याओं के लिए गांधी को अपराधी और नेहरू को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है. ऐसे में सबसे बड़ी भूमिका सरोकारी नागरिकों की है. अपने पड़ोस के अन्य धर्मावलंबियों से संवाद और सहयोग शुरू किया जाए. मिलकर समाज के वंचित सदस्यों की मदद के काम किए जाएं. सर्वधर्म सद्भावना को बढ़ाने वाली रचनाओं और फ़िल्मों का प्रचार किया जाए. सद्भाव के प्रतीकों के बारे में लोकशिक्षण किया जाए. यह ज्योति से ज्योति जलाने का काम है. बिना इसके हम एक महान संस्कृति के भीतर लहरा रहे सांप्रदायिकता के सांप से डंसे जाने के लाचार गवाह बने रहेंगे, जबकि आज की युवा पीढ़ी नफ़रत की राजनीति के पक्ष में नहीं है और न ही जन साधारण को सांप्रदायिक मारकाट पसंद है.

भारत में विविधता में एकता का सिद्धांत और सर्वधर्म समभाव का संकल्प ख़तरे में है. इसका सबसे शर्मनाक पक्ष नफ़रत की राजनीति है. मुसलमानों और ईसाइयों का मान-मर्दन इसका प्रमुख कार्यक्रम है. इसके लिए ‘हिंदू धर्म ख़तरे में’ और ‘मुसलमानों का तुष्टिकरण बंद हो’ जैसे भड़काऊ नारे फैल चुके हैं. बाबर जैसे विदेशी हमलावर और औरंगज़ेब जैसे धर्मांध व्यक्तियों को इस्लाम का प्रतिनिधि बताते हुए उनकी बर्बरता का हिसाब आज के भारतीय मुसलमानों से माँगा जा रहा है. औरंगज़ेब के अंदाज में मुस्लिम आस्था के प्रतीकों को निशाना बनाया जा रहा है. इसमें राजसत्ता की भूमिका एकतरफ़ा होती दीखती है. न्यायपालिका से इस अन्याय में हस्तक्षेप की उम्मीद घट चुकी है. क़ानून-व्यवस्था को दबंगई से अप्रासंगिक बनाया जा रहा है. इससे राष्ट्रीय एकता को ख़तरा बढ़ रहा है. सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा मिल रहा है. इसका विरोध करने वालों को हिंदू विरोधी, लिबरल, वामपंथी और पाकिस्तान के दलाल तक धड़ल्ले से बताया जा रहा है. भारत की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक समस्याओं के लिए गांधी को अपराधी और नेहरू को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है.

दुनिया बहुधर्मी है. भारत भी एक बहुधर्मी देश है. इसमें दुनिया के हर पुराने-नए धर्म के लिए जगह रहती आयी है. भारत के सीमावर्ती प्रदेशों में तो ग़ैर-हिंदू धर्मावलंबियों की ही बहुतायत है. लेकिन एकाएक धार्मिक विविधता को लेकर कुछ राजनीतिक नेताओं और संगठनों में असुरक्षा पैदा हो गई है. ऐसे लोग मानवता को ‘हिंदुत्व’ के चश्मे से देखना चाहते हैं. वे भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने की कोशिश में हैं. किताबी तौर पर ‘हिंदुत्व’ को विनायक दामोदर सावरकर ने परिभाषित किया है. इसके अनुसार भौगोलिक भारत को अपनी मातृभूमि और पुण्यभूमि मानना मुख्य आधार है.

भारत की संस्कृति के महादोषों में अहिंसा और धार्मिक समन्वय को गिनाया गया है. सावरकर ने हिंदुओं में बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों के दौरान व्याप्त सात बंधनों को तोड़ने की शिक्षा दी. इसमें रोटी-बेटी के रिश्ते में जाति का बंधन, सामाजिक जीवन में छुआछूत, खानपान में शाकाहार, आवास-प्रवास में समुद्र यात्रा निषेध आदि को समाप्त करने का आवाहन था. हिंदू सांप्रदायिकता को फैलाने में जुटे लोग सावरकर से लेकर शिवाजी, राणा प्रताप, लक्ष्मीबाई, विवेकानंद, भगत सिंह, सुभाष और पटेल का समय समय पर इस्तेमाल करते हैं.


हमारा समय राष्ट्रीयता और वैश्विकता के बीच संवाद और विवाद का समय है. विश्व व्यवस्था में से ही राष्ट्रों का जन्म हुआ है और राष्ट्रों के परस्पर सहयोग व प्रतिद्वंद्विता से दुनिया का रूप बनता बिगड़ता है. ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के सनातन सत्य का ‘अस्मिता’ की ज़रूरत से मुक़ाबला है. दुनिया के हर हिस्से में ‘कोस कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी’ का सांस्कृतिक तथ्य मौजूद है. लेकिन इस विविधता में एकता की ज़रूरत को पूरा करने के लिए भाषा, धर्म, नागरिकता और आर्थिक प्रबंधन का सहारा लेकर राष्ट्रीय आंदोलन में भाषा और धर्म की विविधता के समाज-वैज्ञानिक सच को राजनीतिक कौशल से राष्ट्रीयता की रचना में युद्ध, साहित्य, राज्यसत्ता, बाज़ार, इतिहास और संस्कृति विशेषकर भाषा के संयोग से पैदा ‘अस्मिता’ धुरी का काम करती है, लेकिन मानव सभ्यता की कहानी में विश्व का ‘बहुभाषी’, ‘बहुधर्मी’ और ‘बहुराष्ट्रीय’ होने का सच बना हुआ है.

मानवता की चेतना में धार्मिक, राजनीतिक, भाषायी और आर्थिक एकरूपता का आग्रह अस्वाभाविक नहीं है, लेकिन यह अप्राकृतिक है. हम सभी ‘एकता’ की तलाश में हैं क्योंकि इससे ‘ममत्व’ और ‘अपनत्व’ पनपता और बढ़ता है. इसके समांतर ‘अन्यता’ मानवमात्र के अस्तित्व में निहित प्रवाह और अनित्यता का अनिवार्य पक्ष है. एक भाषा-एक देश’ की अवधारणा यूरोप का योगदान है. इसमें सरकारी शिक्षा और प्रशासन में एक भाषा को, कई अन्य भाषाओं की उपेक्षा करते हुए, संरक्षण देकर ‘राष्ट्रीय’ भाषा का दर्जा देना बहुत महत्वपूर्ण कदम रहा है. इस सांस्कृतिक भेदभाव के कारण सभी प्रमुख देशों में भाषायी ‘अलगाव वाद’ की धारा भी पैदा हुई है. कुछ लोग अंग्रेज़ी को विश्वभाषा मानते हैं, लेकिन इससे यह सच नहीं छिपाया जा सकता कि स्वयं ब्रिटिश संसद में चार भाषाओं का इस्तेमाल होता है. इंग्लैंड के उपनिवेश रह चुके कनाडा में ‘एक देश-एक भाषा’ के सिद्धांत के आधार पर अंग्रेज़ी के वर्चस्व की नीति ने इसके फ़्रेंच भाषी प्रदेश क्यूबेक को अलग देश बनने की दिशा में बढ़ा दिया है. इसी प्रकार साम्यवादी क्रांति के बाद बने सोवियत संघ में रूसी भाषा के वर्चस्व का प्रयास किया गया, लेकिन इससे अन्य भाषाएं समाप्त नहीं की जा सकीं. मास्को की ताक़त घटते ही 12 राष्ट्रीयताओं का उदय हो गया. चीन की विशाल आबादी में 92 प्रतिशत लोग ‘हान’ समुदाय के हैं, फिर भी चीन में साम्यवादी क्रांति के बाद से राष्ट्र निर्माण के नाम पर तिब्बत, पूर्वी तुर्किस्तान और मंगोलिया के लोगों की भाषाओं की उपेक्षा मंहगी पड़ रही है. यही बात धार्मिक एकरूपता को लेकर रही है. हिटलर के जर्मनी से लेकर याह्या खां के पाकिस्तान तक बार बार की असफलता के बावजूद राष्ट्रीय एकता के लिए धार्मिक एकरूपता का सपना कमजोर नहीं हुआ है.

इसके मुक़ाबले में ‘बहुभाषीय और बहुधर्मी राष्ट्र’ की संभावना को यूरोपीय राष्ट्रों के साम्राज्यवाद के शिकार समाजों में विकसित किया गया है. इसमें भाषा, धर्म और सरकारों की पहचान एक परिवर्तनशील सामाजिक तथ्य है, इसीलिए अनेक राष्ट्रों में से एक राष्ट्र की रचना और एक राष्ट्र में से अनेक राष्ट्रों का जन्म आधुनिक विश्व की महत्वपूर्ण प्रक्रिया है. लेकिन राष्ट्र-निर्माण में समकालीन दुनिया की अनिवार्य भूमिका है और भारत दुनिया के अनूठे देशों में से प्रमुख है. भारतीय समाज की बनावट की दुनिया के अन्य समाजों से तुलना करने पर ‘विविधता में एकता’ की खूबी सामने आती है. विविधता के मुख्य कारकों में भूगोल, इतिहास, भाषा, धर्म, राजनीति और आर्थिक स्वरूप की मुख्य भूमिका रहती आयी है. भारत में ‘राष्ट्रीयता’ के विकास में इन कारकों से पैदा विविधता को समेटना बड़ी चुनौती रही है. इसके लिए भारतीय समाज ने मुस्लिम अलगाववादियों की मांग पर पाकिस्तान के बनने और टूटने से कुछ सीख भी ली है. इसमें धार्मिक विविधता को स्वीकारते हुए न्यायपूर्ण समाज की तरफ़ संविधान सम्मत तरीक़े से बढ़ना एक बड़ी सीख है. लेकिन हिंदू और मुस्लिम सांप्रदायिक जमातें इसकी उपेक्षा कर रही हैं.

इसका इलाज किया जा सकता है. इसमें पहली ज़िम्मेदारी ग़ैर-सांप्रदायिक राजनीतिक दलों की है. क्योंकि यह नफ़रत की राजनीति के नफ़ा-नुक़सान से पैदा समस्या है. इसमें हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि धर्म संस्थानों की ज़रूरत है. क्योंकि सांप्रदायिक सद्भावना के बिना सभी धर्म संस्थान असामाजिक तत्वों की मुट्ठी में आ जाएंगे. 1946 से लेकर 1984 तक और 1992 में यह हो चुका है. इस आग को बुझाने में शिक्षा केंद्रों और मीडिया की साझेदारी की ज़रूरत है. अर्धसत्य से पैदा धुंध को तथ्य के प्रकाश से दूर करने पर घृणा और भय का अंधेरा भी दूर होगा. लेकिन सबसे बड़ी भूमिका सरोकारी नागरिकों की है. अपने पड़ोस के अन्य धर्मावलंबियों से संवाद और सहयोग शुरू किया जाए. मिलकर समाज के वंचित सदस्यों की मदद के काम किए जाएं. सर्वधर्म सद्भावना को बढ़ाने वाली रचनाओं और फ़िल्मों का प्रचार किया जाए. सद्भाव के प्रतीकों के बारे में लोकशिक्षण किया जाए. यह ज्योति से ज्योति जलाने का काम है. बिना इसके हम एक महान संस्कृति के भीतर लहरा रहे सांप्रदायिकता के सांप से डंसे जाने के लाचार गवाह बने रहेंगे. जबकि आज की युवा पीढ़ी नफ़रत की राजनीति के पक्ष में नहीं है. और न ही जन साधारण को सांप्रदायिक मारकाट पसंद है.

-प्रो. आनंद कुमार

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