नर्मदा बचाओ आंदोलन, संघर्ष और निर्माण के 37 वर्ष पूरे हो चुके। इस अवसर पर नर्मदा बचाओ आंदोलन के लिए इन बीते वर्षों का मूल्यांकन करना आवश्यक है। मूल्यांकन तो सरकारों और व्यवस्था चलाने वालों को भी इस बात का करना चाहिए कि यदि नर्मदा बचाओ आंदोलन नहीं होता, तो आज विस्थापितों का जितना भी पुनर्वास हुआ है, क्या उतना हो पाता? असल में इस अवसर पर संवैधानिक व्यवस्था के चारों स्तंभों की समीक्षा भी की जानी चाहिए।
आइए, पहले इस परियोजना के बारे में कुछ तथ्य जान लें. सबसे पहले इस परियोजना को लेकर दिसंबर-1979 में नर्मदा कंट्रोल अथॉरिटी का गठन हुआ था। 24 जून, 1987 को कुल आठ शर्तों के साथ पर्यावरण संबंधी स्वीकृतियां दी गयीं। 8 सितंबर, 1987 को 13,800 हेक्टेयर वनक्षेत्र को सरदार सरोवर परियोजना के डूब क्षेत्र में शामिल करने की अनुमति, तीन गुना अधिक क्षेत्र में वन लगाने की शर्त के साथ दी गई, जो अभी तक नहीं लगाए गए हैं।
5 अक्टूबर, 1988 को सरदार सरोवर योजना में निवेश करने की अनुमति, योजना आयोग द्वारा दी गई। विश्व बैंक ने मोर्स कमीशन की सिफारिशों के आधार पर सरदार सरोवर हेतु ऋण देने के फैसले को रद्द किया। 1994 में नर्मदा अथॉरिटी द्वारा बांध की ऊंचाई बढ़ाने के खिलाफ केवल सिंह बसावा, देवराम लहेरा, सीताराम पाटीदार तथा कमला यादव ने भोपाल में 26 दिनों का क्रमिक उपवास किया। 1 मई, 1995 को नर्मदा बचाओ आंदोलन ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया तथा बांध की ऊंचाई 80 मीटर तक होने पर विस्थापितों के पूर्ण पुनर्वास को लेकर सवाल उठाया, जिसके आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने 4 वर्ष के लिए काम पर रोक लगा दी। लेकिन 2000 में सर्वोच्च न्यायालय ने फिर से बांध की ऊंचाई बढ़ाने की अनुमति दे दी। 85 से 95 मीटर के बीच ऊंचाई से प्रभावित होने वाले विस्थापितों का पुनर्वास नहीं होने के बावजूद नर्मदा अथॉरिटी द्वारा बांध की ऊंचाई 95 से 100 मीटर तक बढ़ाने की अनुमति दे दी गई तथा 16 मार्च, 2004 को फिर बिना पुनर्वास के बांध की ऊंचाई 100 से 110.64 मीटर तक बढ़ाने की अनुमति दे दी गई।
15 मार्च, 2005 को सर्वोच्च न्यायालय की तीन जजों की बेंच ने स्थाई और अस्थाई डूब के अंतर को समाप्त कर सभी विस्थापितों को जमीन देने तथा विस्थापितों के परिवार के बालिग सदस्यों को जमीन देने का फैसला सुनाया। लेकिन 16 मार्च, 2006 को नर्मदा अथॉरिटी ने एक बार फिर बिना किसी पुनर्वास के बांध की ऊंचाई 110.64 से 121.92 मीटर तक बढ़ाने की अनुमति दे दी। इसके खिलाफ जय सिंह, भगवती देवी और मेधा पाटकर ने उपवास शुरू किया। 19 वें दिन उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 21 वें दिन उनका उपवास समाप्त हुआ। इसी बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सैफुद्दीन सोज़, मीरा कुमार और पृथ्वीराज चौहान की एक कमेटी बनाई, जिसने 9 अप्रैल, 2006 को अपनी रिपोर्ट जारी करके बताया कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार विस्थापितों का पुनर्वास नहीं हुआ है।
25 दिसंबर से 26 जनवरी 2006 के बीच मेधा पाटकर और बाबा आमटे ने राजघाट, बड़वानी से गुजरात सीमा तक पदयात्रा की और पहली बार ‘हमारे गांव में हमारा राज’ का नारा दिया। 17 अप्रैल, 2006 को गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नर्मदा बचाओ आंदोलन के खिलाफ पांच सितारा व्यवस्थाओं के साथ 51 घंटे का उपवास किया गया। 3 जुलाई, 2006 को वीके सुमलू ने प्रधानमंत्री को रिपोर्ट देकर यह बताया कि 6000 परिवार ऐसे हैं, जिन्हें डूब की सूची में शामिल नहीं किया गया है तथा पुनर्वास स्थलों पर कार्य पूरे नहीं हुए हैं। इस बीच नर्मदा बचाओ आंदोलन ने मध्य प्रदेश के उच्च न्यायालय, जबलपुर में याचिका दायर की। हाईकोर्ट ने झा आयोग का गठन किया। आयोग की 7 वर्ष की जांच में यह पाया गया कि 1589 रजिस्ट्रियां फर्जी की गई हैं।
9 से 24 अप्रैल, 2010 के बीच नर्मदा बचाओ आंदोलन के नेतृत्व में हजारों विस्थापितों ने इंदौर में 2 सप्ताह का धरना दिया। 2012 में बांध का गेट खोले जाने से मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में भारी तबाही हुई। ऐसी ही तबाही एक बार फिर 2013 में भी देखने को मिली।
6 अगस्त, 2015 से राजघाट, बड़वानी में विस्थापितों ने लंबे समय तक धरना दिया। दिसंबर-2016 में मध्य प्रदेश सरकार ने अपने शपथ पत्र में यह माना कि 1358 परिवारों को जमीन नहीं मिली है। 8 फरवरी, 2017 को सर्वोच्च न्यायालय ने 60 लाख रुपए और जमीन धारकों को 15 लाख रुपये का पैकेज देने का निर्णय लिया। इस बीच मेधा पाटकर को गिरफ्तार कर जेल में रखा गया। इसके 15 दिन बाद 24 अगस्त, 2017 को उनकी रिहाई हुई। 14 सितंबर, 2017 को गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने कहा कि नरेंद्र मोदी ने सरदार सरोवर का काम पूर्ण किए जाने की फर्जी घोषणा की है। छोटा वर्धा ग्राम में प्रधानमंत्री द्वारा सरदार सरोवर बांध का लोकार्पण किए जाने के खिलाफ 14 से 17 सितंबर के बीच जल सत्याग्रह किया गया।
दिसंबर-2017 में नर्मदा अथॉरिटी ने गेट बंद कर बांध में पानी भरने की अनुमति दे दी। 24 अक्टूबर, 2019 को सर्वोच्च न्यायालय ने मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात के मुख्यमंत्रियों को निर्देशित किया कि वे पुनर्वास की स्थिति और सरदार सरोवर बांध में कितना पानी भरा जाना है, इस पर निर्णय करें।
18 नवंबर, 2019 को मध्य प्रदेश सरकार ने गुजरात सरकार से 8000 करोड़ रुपए की बकाया राशि देने की मांग की, लेकिन पुनर्वास के संबंध में कोई टिप्पणी नहीं की। 2021 में अवैध रेत माफियाओं पर रोक लगाने के लिए याचिका दायर की गई। तमाम आदेश हुए, लेकिन उनका पालन आज तक नहीं हुआ। आज भी संपूर्ण पुनर्वास तथा विभिन्न न्यायालयों के फैसले लागू कराने को लेकर नर्मदा बचाओ आंदोलन का संघर्ष जारी है।
इन तथ्यों के आधार पर यह देखा जाना जरूरी है की बीते 37 वर्षों में कितनी बार मध्यप्रदेश की विधानसभा और कितनी बार भारत की संसद में सरदार सरोवर योजना और नर्मदा घाटी के विस्थापितों को लेकर बहस हुई, क्या सुझाव आए और उन पर किन सरकारों द्वारा कितना अमल किया गया? फिलहाल भोपाल और केंद्र में भाजपा की सरकार है, इसलिए सबसे पहला सवाल केंद्र और राज्य सरकार से ही किया जाना चाहिए।
इसी तरह कार्यपालिका को यह मूल्यांकन करने की जरूरत है कि उसने विस्थापितों की समस्याओं का कितनी गंभीरता से निराकरण किया, पारदर्शिता और जवाबदेही की कितनी नीति अपनाई और वे तमाम फैसले, जो न्यायालयों ने दिए, उनका कितना पालन किया? इससे प्रशासन की नागरिकों के प्रति संवेदनशीलता और उसकी कर्तव्यपरायणता का भी पता चलता है। यह कोई छोटी परियोजना नहीं थी। कुल 193 गांवों और एक शहर के ढाई लाख नागरिकों का अस्तित्व इस परियोजना से जुड़ा हुआ था। इसमें पहले 6000 करोड़ के खर्चे का अनुमान लगाया गया था, जिसमें अब तक 90 हजार करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। ऐसी स्थिति में पूरी परियोजना के लाभ हानि का आंकलन किया जाना चाहिए। पुनर्वास कार्य में जब भ्रष्टाचार के आरोप लगे, विशेष तौर पर झा कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद, तो प्रशासन ने कितने भ्रष्टाचारियों पर मुकदमे दर्ज किये तथा कितनों को जेल भिजवाया, यह पूछा जाना आवश्यक है।
इसी तरह गत 37 वर्षों में विभिन्न न्यायालयों द्वारा दिए गए फैसलों पर कितना अमल हुआ, इसका मूल्यांकन भी आवश्यक है। न्याय में देरी को अन्याय माना जाता है। 37 वर्षों में जिन विस्थापितों के जीविकोपार्जन के साधन छीन लिए गए, उनके सम्मानपूर्वक जीवन जीने की वैकल्पिक व्यवस्था आज तक कितनी हो पाई है, यह भी मूल्यांकन करना आवश्यक है।
यह भी गंभीर चिंतन का विषय है कि यदि नर्मदा बचाओ आंदोलन ने विस्थापितों के मुकदमे न लड़े होते तो क्या विस्थापित जो कुछ भी हासिल कर पाए हैं, वह कर पाते? यह सर्वविदित है कि अदालतों में न्याय पाने के लिए महंगे-महंगे वकीलों की जरूरत होती है। इस अवसर पर उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता संजय पारीख के साथ-साथ उन सभी वकीलों को भी धन्यवाद दिया जाना चाहिए, जिन्होंने विस्थापितों को न्याय दिलाने में अपना समय, साधन और ऊर्जा खर्च की।
लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया को भी यह सोचना पड़ेगा कि उन्होंने लाखों विस्थापितों का कितना साथ दिया? गोदी मीडिया ने भले ही आंदोलन पर तमाम आरोप लगाकर उसे बदनाम करने की कोशिश की हो, लेकिन नर्मदा घाटी, विशेषकर बड़वानी के स्थानीय पत्रकारों ने विस्थापितों का साथ दिया है। उन्हें भी इस अवसर पर धन्यवाद दिया जाना चाहिए।
कुल मिलाकर आज लोकतंत्र के चारों स्तंभ विस्थापितों के साथ खड़े होने के बजाय सरकार, राजनीतिक दलों, ठेकेदारों और भ्रष्टाचारियों के पक्ष में खड़े ही नहीं, काम करते भी दिखलाई पड़ते हैं।
यह लोकतंत्र के लिए बहुत घातक है। हमें संतोष है कि नर्मदा बचाओ आंदोलन, संविधान और लोकतंत्र को बचाने की अपनी लड़ाई पूरी प्रतिबद्धता के साथ लड़ रहा है। नर्मदा बचाओ आंदोलन के उन हजारों कार्यकर्ताओं को भी इस अवसर पर सलाम किया जाना चाहिए, जिन्होंने अपना पूरा जीवन आंदोलन में ही खपाकर विस्थापितों को न्याय दिलाने के लिए अनवरत संघर्ष किया।
इन 37 वर्षों के संघर्ष में तमाम कार्यकर्ताओं पर अनेक मुकदमे लगे, उन्हें जेल में भी रहना पड़ा, संघर्ष करते-करते कई कार्यकर्ताओं की मौत तक हो गई। उन सभी कार्यकर्ताओं को देश के जन संगठनों, किसान संगठनों और समाजवादियों की ओर से क्रांतिकारी सलाम पेश किया जाना चाहिए।
हमें विश्वास है कि मेधा पाटकर और नर्मदा बचाओ आंदोलन ने रचना और संघर्ष का जो मॉडल तैयार किया है, वह न केवल देश और दुनिया के आंदोलनों को प्रेरणा देता रहेगा, बल्कि सरकारों को भी विकास की भावी दिशा देने का काम करेगा, जो समाज और देश को समतामूलक और न्यायपूर्ण बनाने में मददगार साबित होगा।
-डॉ सुनीलम
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