महात्मा गांधी ने सर्वोदय शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 1908 में किया था। इस शब्द का प्रयोग उन्होंने जॉन रस्किन की पुस्तक अन्टू दिस लास्ट (Unto This Last) के गुजराती अनुवाद के शीर्षक में किया था। तब से यह शब्द गांधीवादी साहित्य में यत्र-तत्र दृष्टिगत होता है। धीरे-धीरे यह शब्द गांधीवाद का प्रतिरूप होता गया। सर्वोदय, विश्व की समस्याओं तथा भौतिकवादी जगत एवं आधुनिकता की बुराइयों के समाधान के लिए गांधीवादी नुस्खा है। सर्वोदय का शब्दिक अर्थ है ‘सबका कल्याण’। ‘सबका कल्याण’ या ‘सबका अधिकतम सुख’ उपयोगितावादी दर्शन की उक्ति ‘अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख’ का विकल्प था। उपयोगितावादी दर्शन की उक्ति से यह स्पष्ट है कि इस विचार दृष्टि से प्रेरित समाज में ‘सबका सुख’ संभव नहीं है। इसके विकल्प में ‘सबका कल्याण’ की भावना से प्रेरित ‘सर्वोदय’ एक आदर्श सामाजिक व्यवस्था की अभिव्यक्ति है, जिसका आधार प्रेम है। इसीलिए प्रेम से परिपूर्ण इस समाज में राजकुमार तथा किसान, हिन्दू और मुसलमान, सवर्ण एवं अस्पृश्य, गोरे और काले, संत तथा पापी सभी के लिए समान स्थान है। किसी भी व्यक्ति तथा वर्ग का दमन, शोषण या अंत नहीं होगा। सभी समान रूप से इस सामाजिक व्यवस्था के अंग होंगे। इस सामाजिक व्यवस्था में सभी उत्पादन में समान भागीदार होंगे तथा बलवान, कमजोर की सुरक्षा और उसके ट्रस्टी के रूप में काम करेंगे। इसमें सभी के कल्याण को बढ़ावा दिया जायेगा।
सर्वोदयी आदर्श को प्राप्त करने के लिए कुछ प्राथमिक पूर्वावस्थाएं हैं – आत्म-त्याग, अपने स्नेही जनों के लिए त्याग, आत्म नियंत्रण तथा स्वयं को कष्ट देना। ऐसे सर्वोदयी समाज के लिए भारत-भूमि बहुत उपयुक्त रही है, क्योंकि यहां सदियों से त्याग, सात्विकता तथा आत्म-नियंत्रण की उक्तियां विख्यात रही है। ‘हरिश्चन्द्र’ जैसे दानी एवं त्यागी के उदाहरण भारतवर्ष में ही मिलते हैं। इसके विपरीत पश्चिमी जगत में सुविधा भोगी जीवन, अत्यधिक आवश्यकताओं तथा सांसारिक सुखों में लिप्त रहने जैसी सुविधाओं को महत्त्व दिया जाता है। तभी तो वहां शाइलॉक्स (Shylocks) जैसे कृपण महाजनों की संख्या यत्र-तत्र मिलती है। यही कारण रहा है कि गांधी जी पश्चिमी सभ्यता की इन बुराइयों के कटु आलोचक थे, क्योंकि वे समझते थे कि इन बुराइयों के रहते हुए सर्वोदय की कल्पना करना निरर्थक है। पश्चिमी सभ्यता की विशेषता ही है – औद्योगिक सभ्यता जो लालच, संघर्ष तथा मजबूतों के द्वारा गरीबों के शोषण की आधारशिला पर टिकी है, चाहे वह पूंजीवादी समाज हो या साम्यवादी।
महात्मा गांधी इन दोनों ही व्यवस्थाओं को अस्वीकार करते थे, वे यूरोप की अराजकतावादी चिन्तनधारा में दीक्षित थे तथा अपने विद्यार्थी जीवन-काल से ही उद्योगवाद विरोधी आंदोलन से जुड़े रहे। गांधी जी के व्यक्तित्व के कारण भारत में उद्योगवाद विरोधी तथा आधुनिकता विरोधी भावना लंबे समय तथा तीक्ष्ण रूप में चली। वास्तविकता यह थी कि गांधी जी ऐसे विद्रोही थे कि वे उच्च आदर्शों, अत्यधिक इच्छा शक्ति, आत्म त्याग तथा आत्म अनुशासन की भावना से ओतप्रोत थे। गांधीजी का विद्रोह आधुनिक सभ्यता की आधारशिला तथा उसकी मूल्य पद्धति के विरुद्ध था। सभ्यता के सामाजिक अर्थों में अभिव्यक्त यह विद्रोह आवश्यक रूप से नैतिक विद्रोह था।1 गांधी जी के लिए सभ्यता का सार, कर्तव्यों का निर्वहन तथा नैतिकता का पालन करना था। यह दृष्टिकोण आज के प्रभावकारी व्यक्तिवाद का पूर्ण रूप से विरोधी है। यही कारण है कि ऐसा दृष्टिकोण रखने वाले गांधी जी आधुनिक भारत के निर्माताओं में विशिष्ट स्थान रखते हैं। भारतीय पुनर्जागरण के निर्माताओं ने त्रि-आत्म – आत्म विश्वास, आत्म निर्भरता तथा आत्म सहायता की शिक्षा दी थी। इस त्रि-आत्म में गांधी जी ने एक चौथा आत्म जोड़ा था – आत्म-अभिव्यक्ति। इस प्रकार भारतीय पुनर्जागरण में एक नयी विशेषता जोड़कर गांधी जी की एक पृथक पहचान बनी। ये विशेषताएं भारतीय संस्कृति का आधार थीं। गांधी जी का मानना था कि भारतीय संस्कृति का आधार गीता का अपरिग्रह का सिद्धांत था। इस प्रकार अपरिग्रह उस संस्कृति की सही अभिव्यक्ति था और गांधीवादी ‘आत्म-अभिव्यक्ति’ का आधार बना। गांधीवादी इच्छाविहीनता का मूल सिद्धांत न केवल पाश्चात्य जगत के भौतिकवाद का प्रतिरोध प्रकट करता है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति की आत्मा भी है। आश्चर्य की बात यह थी कि गांधी जी स्वयं ही इस ‘आत्म-अभिव्यक्ति’ की अभिव्यक्ति बने। स्वाभाविक तौर पर वे ऐसे अद्वितीय व्यक्ति हुए, जैसा आधुनिक विश्व में कभी नहीं देखा गया था। इन सब कारणों से दूसरे एफ्रो-एशियाई देशों की तुलना में भारत में आधुनिकता (पश्चिमी सभ्यता) के प्रति प्रतिक्रिया और अधिक घातक रूप से प्रकट हुई थी।
इच्छाविहीनता तथा अपरिग्रह की भावना से युक्त गांधीवादी तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात के सर्वोदयी (विनोबा भावे और उनके भूदान आंदोलन से जुड़े जन) नैतिकता में विश्वास रखते थे। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि अपने किसी कार्य या नीति का पालन करने में अच्छे साधन का प्रयोग करना चाहते थे। ‘हिन्द स्वराज’ में गांधी जी ने साधन और साध्य के बीच संबंधों को अभिव्यक्त किया था। ‘साधन बीज है और साध्य प्राप्त करने की वस्तु पेड़ है। इसलिए जितना संबंध बीज और पेड़ के बीच है, उतना ही साधन और साध्य के बीच है। गांधीजी का कहना था कि हमारा साधनों पर नियंत्रण है, परंतु साध्य पर कोई नियंत्रण नहीं है। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान साधनों की पवित्रता पर जोर दिया था। ‘यदि कोई साधनों की पहवाह करता है तो साध्य अपने आप में ही अच्छा होगा।’ भारतीय संस्कृति एवं परंपरा में अटूट विश्वास रखने वाले गांधी जी ने स्वयं उच्च नैतिकता का अनुपालन किया था। वे ऐसी आशा करते थे कि उनके अनुयायी भी यही करें। निष्क्रिय गतिरोध का पालन करने वाले या सत्याग्रही को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए, गरीबी अपनानी चाहिए, सत्य का पालन तो करना ही चाहिए और हर स्थिति में सभ्य बनना चाहिए।
सर्वोपरि गांधी जी के सत्याग्रही को सत्य और अहिंसा का पालन करना चाहिए। ये दोनों सिद्धांत गांधीवाद के दो प्रमुख बिन्दु हैं। गांधी जी ने सदैव इन दोनों सिद्धांतों को पूर्ण विचारधारा माना। इतना होने पर भी व्यवहार में राष्ट्रीय स्वतंत्रता की अत्यधिक आवश्यकता को देखते हुए उन्होंने इन सिद्धांतों को समसामयिक माना था। देश की स्वाधीनता उनके लिए सर्वोच्च आवश्यकता थी। आगे चलकर विनोबा भावे ने सत्य और अहिंसा को एक पूर्ण अवधारणा माना था। इन दोनों अवधारणाओं को लेकर उन्होंने रचनात्मक सत्याग्रह चलाया। रचनात्मक सत्याग्रह का मूल आधार अहिंसा था। अहिंसा को अपनाने वाले कांग्रेसजनों में आश्रमी गांधीवादी इसे धर्म या विचार मानते रहे। विनोबा भावे आश्रमी गांधीवादी थे। इस कारण उन्होंने सदैव इस बात पर जोर दिया था कि अहिंसा सर्वोदय आंदोलन का प्रमुख धर्म है।
अहिंसा के अतिरिक्त गांधी जी के सर्वोदयी दर्शन की दूसरी बुनियादी विशेषता ट्रस्टीशिप का सिद्धांत था। ट्रस्टीशिप के सिद्धांत का मुख्य आधार प्रेम था। प्रेम ही गांधी जी की अहिंसा का प्रमुख आधार था। यहां यह बताना आवश्यक है कि गांधीजी की अहिंसा वैष्णव मत के प्रेम के सिद्धांत पर ही आधारित थी। इसी अहिंसा (प्रेम) का अनुकरण करते हुए वे यह आशा करते थे कि धनी व्यक्ति भूमि और सम्पत्ति के ट्रस्टी होंगे। गांधी जी के सर्वोदयी समाज में पूंजीपति और जमींदारों का अंत नहीं किया जायेगा। जैसा कि मार्क्सवाद में उन्हें शोषक मानकर उनका अंत करके एक नयी व्यवस्था का विकल्प रखा था। गांधी जी पूंजीवादी और साम्यवादी समाज को नकारते हुए एक समतावादी समाज का विकल्प रखते थे। तभी तो गांधी जी का ट्रस्टीशिप के सिद्धांत पर अटूट विश्वास था। उनका कहना था कि ‘मेरा ट्रस्टीशिप का सिद्धांत अस्थाई विकल्प नहीं है और निश्चित रूप से इसमें कुछ छिपाने योग्य नहीं है। मुझे विश्वास है कि अन्य सिद्धांतों की अपेक्षा यह कहीं अधिक दीर्घजीवी है। इसके पीछे दर्शन तथा धर्म की स्वीकृति है। अहिंसा के सिद्धांत के अनुकूल यही (ट्रस्टीशिप) सामाजिक क्रांति का सिद्धांत था। दुर्भाग्यवश धनी व्यक्तियों ने इस सिद्धांत के अनुसार कार्य नहीं किया। परंतु इससे न गांधी जी का आशावाद कम हुआ और न ही विनोबा भावे का विश्वास डगमगाया। इस सिद्धांत में कोई त्रुटि नहीं थी बल्कि सबसे अधिक बुराई धनी व्यक्ति की ईमानदारी, चरित्र तथा समझ में थी। सम्पत्ति रखने वालों ने ट्रस्टीशिप के सिद्धांत के अनुरूप कार्य नहीं किया था तो इसमें कोई त्रुटि प्रमाणित नहीं होती, इससे धनी व्यक्ति की कमजोरी प्रामाणित होती है। इस प्रकार ट्रस्टीशिप के सिद्धांत में तो कोई कमी नहीं थी। अत: मानव स्वभाव को बदला जाय, यह कैसे संभव होगा। उसे प्रेम की विधि की शिक्षा दी जाय। एक बार धनी व्यक्ति बदलेंगे तो सर्वोदयी समानता का युग आयेगा। ट्रस्टीशिप का सिद्धांत समाज की वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था को समतावादी समाज में रूपांतरित करने का साधन है। यह पूंजीवाद को कोई स्थान नहीं देता है, परंतु वर्तमान स्वामी वर्ग को अपने में सुधार करने का अवसर प्रदान करता है। यह सिद्धांत उस विश्वास पर आधारित है कि मानव स्वभाव परिवर्तनशील है। सर्वोदय विशेषकर विनोबा भावे गांधी जी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत में दृढ़ता से विश्वास करते थे। इस सिद्धांत में विश्वास ही उन्हें एक आदर्श भविष्य हेतु कार्य करने के लिए बाध्य करता था।
अस्तु गांधी जी की ‘सर्वोदय’ की अवधारणा ‘सबका कल्याण’ से प्रेरित थी और प्रमुख रूप से अहिंसा से प्रभावित थी। गांधी जी की अहिंसा की विचारधारा वैष्णव मत से प्रभावित है। वैष्णव मत की अहिंसा की मुख्य आधार प्रेम है। उनका प्रिय गीत (रामधुन) 15वीं शताब्दी के गुजरात के वैष्णव संत कवि नरसिंह मेहता द्वारा लिखित पद ‘वैष्णवजन तो तेने रे कहिए जो पीर परायी जाने रे’ था। यह गीत ही वैष्णव मत की अहिंसा की सही व्याख्या करता है और सर्वोदयी समाज की कल्पना को साकार करता है, जिसमें जाति-भेद, वर्ण-भेद और संप्रदाय-भेद का कोई स्थान नहीं होगा। ऐसे समाज में न तो किसी का दमन होगा और न ही शोषण। अहिंसा (प्रेम) पर आधारित ऐसा समाज, जिसमें पूंजीपति व जमींदार ट्रस्टी के रूप में रहेंगे। गांधी जी इसके लिए धनी व्यक्तियों की अंतरात्मा की पुकार पर जोर देते हुए उनका हृदय परिवर्तन करेंगे। इसी अंतरात्मा की पुकार से विनोबा भावे ने भी जमींदारों का हृदय परिवर्तन करके पड़ोस के गरीब किसान को भूमि का दान करने की अपील की थी। यदि धनी व्यक्तियों ने महत्मा गांधी तथा विनोबा भावे के उच्च आदर्शों के अनुकूल कार्य नहीं किया तो उनके विचारों में कोई खामी नहीं थी। यह बात उल्लेखनीय है कि गांधी जी के अनन्य सहयोगी धनी व्यक्ति भी थे, जिन्होंने उनको साबरमती आश्रम की स्थापना से लेकर आजादी की लड़ाई तक आर्थिक सहायता प्रदान की। साबरमती आश्रम की स्थापना में अहमदाबाद के मिल मालिक अंबालाल साराभाई ने उदारता से धन प्रदान किया। बाद में वर्धा में सेवाग्राम आश्रम की स्थापना में जमुनालाल बजाज ने महती योगदान दिया था। घनश्यामदास बिड़ला, जमुनालाल बजाज, हाजी उस्मान सैयद आदि ने आजादी की लड़ाई में बढ़-चढ़ कर भाग लिया तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को इस कार्य के लिए आर्थिक सहायता प्रदान की। इन धनी व्यक्तियों ने मानवतावादी कार्यों में भी योगदान दिया था। इनके अतिरिक्त सामाजिक सेवा के क्षेत्र में जमशेद जी नुसरजान जी टाटा का योगदान अविस्मरणीय है। आज देश के व्यवसायी घराने केवल स्व लाभ एवं राजनीतिक संरक्षण प्राप्त करने के लिए चुनावों में चंदा प्रदान करते हैं। ऐसी मनोवृत्ति वाले धनी वर्ग से यह आशा करना व्यर्थ है कि वे ‘सबके कल्याण’ की भावना से काम करेंगे। सर्वोदयी समाज की स्थापना की बात इनके समक्ष बेबुनियाद बात लगती है।
-डॉ आभा नवनी
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