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सर्वोदय ही है एकमात्र विकल्प

आज की परिस्थितियों में इस विकास शब्द का यदि कोई विकल्प हो सकता है, तो वह सहयोग के आधार पर होने वाला सर्वोदय ही है. लोगों और प्रकृति का शोषण करके होने वाले विकास में कुछ विशेष वर्गों का ही उदय होता है, जबकि सर्वोदय सबके उदय की बात करता है. यह सपना गाँधी, विनोबा ने देखा था. उनकी इस परिकल्पना को पूर्ण करने का दायित्व हम लोगों पर है.

सामदोंग रिनपोछे

उत्तर आधुनिक समय की विभीषिकाओं से कोई साधारण मनुष्य खुद को बचाए रख सके, यह संभव नहीं रह गया है. इसके समाधान में अगर हम गांधी और हिन्द स्वराज को आपके सामने रखें, तो अधिकांश को लगेगा कि यह मूर्खता है. आपको लग सकता है कि यह पुरातनपंथी बात है. लेकिन यह कुछ लोगों का विचार हो सकता है, सबका नहीं. उत्तर आधुनिक व्यवस्था के प्रभाव में हम विचार की स्वाधीनता और कला खो चुके हैं. एक शब्द है विकास. कभी इसका प्रयोग विशिष्ट अर्थों में किया जाता था. जैसे दैहिक विकास, मानसिक विकास आदि, लेकिन अब इसके जरिये एक साथ सभी को, एक ही दिशा में, बिना कुछ भी सोचे समझे और एक ही रफ्तार से दौड़ाने की कोशिशें हो रही हैं. आखिर इस पागल दौड़ की सीमा क्या है? अंत के अतिरिक्त इसकी और कोई मंजिल नहीं दिखाई पड़ती. पर्यावरण का प्रदूषण, हिंसा और युद्ध, अनियंत्रित जनसंख्या आज के विकास के नतीजे हैं. इससे बचने के लिए त्याग आवश्यक तत्व है, लेकिन आज कोई व्यक्ति, कोई समूह या कोई देश अपनी जीवनशैली को बदलने या त्याग करने के लिए राजी नहीं है. केवल दूसरों से अपेक्षा करते हैं कि पहले आप करें, पहले आप करें. हम तो अपनी जीवन शैली को बदलकर कोई समझौता नहीं कर सकते, आप लोग तीसरी दुनिया के लोग हैं, आप कुछ कर सकते हैं तो करिए. इस पहले आप, पहले आप में पृथ्वी नष्ट हो रही है और यह बहुत बड़ा खतरा है. आज की परिस्थितियों में इस विकास शब्द का यदि कोई विकल्प हो सकता है, तो वह सहयोग के आधार पर होने वाला सर्वोदय ही है. लोगों और प्रकृति का शोषण करके होने वाले विकास में कुछ विशेष वर्गों का ही उदय होता है, जबकि सर्वोदय सबके उदय की बात करता है. यह सपना गांधी, विनोबा ने देखा था. उनकी इस परिकल्पना को पूर्ण करने का दायित्व हम लोगों पर है.

मानव के भविष्य को अगर कोई बचा सकता है तो वह एकमात्र गांधी विचार ही बचा सकेगा. विश्व के संपूर्ण मानव समाज में परिवर्तन के लिए 100-200 साल बहुत लंबे नहीं होते हैं. 5 या 10 वर्ष में ही पूरे समाज में परिवर्तन आ जाए, ऐसा सोचना अव्यावहारिक होगा. अभी जो कुछ चल रहा है, वह प्रकृति और मनुष्य के विरोध में है. जो प्रकृति और मनुष्य के विरोध में होगा, वह लम्बे समय तक नहीं चल सकता. मनुष्य और प्रकृति के स्वभाव की गरिमा सत्य पर आधारित होती है, इसलिए यह क्रम टूटेगा. इस बात की आशंका नहीं रहनी चाहिए कि विकास का यह उल्टा चक्र घुमाया नहीं जा सकता. हमें पीढ़ियों तक चलने वाली सौ दो सौ बरस की योजनाएं और कार्यक्रम बनाते रहने चाहिए. एक ही जन्म मनुष्य का संपूर्ण जीवन नहीं होता है. पृथ्वी और मानवता के संपूर्ण विनाश का, प्रलय का समय अभी नहीं आया है, यह हमको जान लेना चाहिए.

आदमी की व्यवस्था ने प्रकृति के कई नियमों को उल्टा कर दिया है. हमें सजग रहना होगा. सूत्र रूप में कहना चाहूँगा कि हमारी मान्यताओं में स्वहित के सामने परहित की मान्यता अधिक रही है. आज स्व प्राथमिक हो गया है और पर का कोई मूल्य नहीं रह गया है. व्यक्ति और समाज के सन्दर्भ में समाज के सामने व्यक्तिगत हित का बलिदान कर देना चाहिए. समाज सही रहेगा तो व्यक्ति अपने आप ठीक रहेगा. इसी तरह कर्तव्य और अधिकार के बीच संघर्ष रहा है. हमारी पारम्परिक मान्यता यह रही है कि यदि हम अपना कर्तव्य पूरा करते हैं तो अधिकार के लिए लड़ना नहीं पड़ेगा. लेकिन आज तो लोग अधिकार को ही छीन लेना चाहते हैं और ऐसा इंटरनेशनल स्तर पर होता है. मनुष्य प्राकृतिक रूप से संसाधनों का यूजर होता है. उपयोगकर्ता होता है. हर व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति करने की प्रकृति के पास क्षमता है. लेकिन गांधी जी ने साफ़ कहा है कि प्रकृति के पास एक भी जीव के लोभ की पूर्ति करने की क्षमता नहीं है. आज हम यूजर नहीं, कंज्यूमर हो गये हैं. इसलिए आज सारा संतुलन बिगड़ रहा है. इन विशाल चुनौतियों का सामना करने की शक्ति सत्य और अहिंसा के बिना कायम नहीं रह सकती. बापू के दिए इन दो मन्त्रों को हम समझ नहीं पाए और अगर समझ पाए तो सही अर्थों में उसका व्यापक प्रयोग नहीं कर पाए. 1929 में हिन्द स्वराज के पुनर्प्रकाशन पर उसकी भूमिका में गांधी जी लिखते हैं कि इस पुस्तिका में वर्णित अहिंसा के भाव में उसकाे अपनाने वाला आजतक एक भी आदमी मुझे नहीं मिला है. अगर वह एक आदमी मिल जाता तो स्वराज हम एक दिन में पा सकते थे. शारीरिक हिंसा से हम दूर रह भी लें, तो मानसिक हिंसा से दूर नहीं रह पाते, इस कमजोरी पर विजय पाने की बात हमें सोचनी पड़ेगी. भगवान बुद्ध ने क्लेश चित्त को शत्रु कहा है, लेकिन क्लेश चित्त धारण करने वाले व्यक्ति को मित्र कहा है. इसी तर्ज पर गांधी जी ने कहा कि पाप से घृणा करो, लेकिन पापी से प्रेम करो. हम पाप से घृणा तो करते हैं, लेकिन पापी से प्रेम करने की क्षमता अभी विकसित नहीं कर पाए हैं. किसी गलत काम, किसी गलत व्यवस्था या किसी गलत व्यक्ति का विरोध करना हमारा प्रकृतिक कर्तव्य है, लेकिन यह करने की क्षमता हमें तभी मिल सकती है, जब हम उस काम, उस व्यवस्था या उस व्यक्ति के प्रति अपार प्रेम रखते हों. यह प्रेम ही उसके विरोध का प्रेरणास्रोत होना चाहिए. हम जिसका विरोध कर रहे हैं, उसके प्रति यदि हम प्रेम से भरे होंगे, तभी हमारी अहिंसा की विजय होगी, यह बात हमें समझनी चाहिए. यदि मनुष्य के मानस में परिवर्तन नहीं होगा, तो मनुष्य में कोई परिवर्तन नहीं लाया जा सकेगा.

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