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सात सामाजिक पापों की गांधी जी की संकल्पना!

सिद्धांतों के बिना राजनीति, परिश्रम के बिना संपत्ति, अंतरात्‍मा के बिना आनंद, चरित्र के बिना ज्ञान, नैतिकता के बिना वाणिज्‍य, मानवता के बिना विज्ञान और त्‍याग के बिना पूजा, 7 सामाजिक पापों की यह सूची गांधीजी ने 22 अक्टूबर 1925 के यंग इंडिया में प्रकाशित की थी। गांधीजी के अनुसार नैतिकता, अर्थशास्त्र, राजनीति और धर्म अलग-अलग इकाइयां हैं, पर सबका उद्देश्य सर्वोदय ही है।

दुनिया में धर्मों का कुछ ऐसा सिलसिला चल निकला कि व्यक्ति पापी करार दिया गया। अगर वह यूरोप का है तो चर्च की खिड़की पर जाकर कन्फेस (स्वीकार) करता है, पर अगर भारतीय सभ्यता पर नजर दौड़ायें तो यहाँ व्यक्ति अपने पाप किसी धर्माचार्य के सामने स्वीकार नहीं करता, गंगाजी में सिरा देता है और यह भूल जाता है कि उसके पाप धोते-धोते भारत की नदियों की क्या दशा हो गई है। भारत के जो औद्योगिक घराने हैं, वे भी अपने उद्योगों का पाप दबे पांव नदियों में बहाते रहते हैं। नदियाँ ऊपर-ऊपर बहती रहती हैं और उनके तल में खुले उद्योगों की नालियों के मुँह अपने पापों का जहर उनके जल में घोलते रहते हैं। नदियों के किनारे बसे हुए नगर भी अपनी नालियों के मुँह नदियों की गहराई में खोले हुए हैं। जब गर्मी में गंगा सूखती है तो नालियों के मुँह स्पष्ट दिखाई देते हैं और पता चल जाता है कि गंगा में कौन गंदगी बहा रहा है।


आज हमें उन सात सामाजिक पापों को याद करने की जरूरत है, जिन्हें कभी मोहनदास दास करमचंद गाँधी ने मानव जाति को याद करवाया था। ये सातों के सातों पाप गाँधीजी के सेवाग्राम में बनी उनकी कुटिया के सामने लगे एक बोर्ड पर अंकित हैं। गाँधीजी की दृष्टि में पहला सामाजिक पाप तत्वविहीन राजनीति है। यानी वह राजनीति, जो तात्विक रूप से अस्तित्व की समझ नहीं रखती और मनुष्य की सीमाओं को जाने बिना उसे जनार्दन का रूप दे देती है। उसके बाद उस मनुष्य से मनमाना वोट वसूल करती है। गाँधीजी की दृष्टि में दूसरा पाप सद्विवेकविहीन विलास है, यानी अगर आप बिना सोचे-समझे बाज़ार में झोला लिये खड़े हैं, तो इसका मतलब है कि आप अपने विवेक से खरीदारी नहीं कर रहे हैं। कोई और है, जो आपको बिना सोचे-समझे बाज़ार की ओर खींच रहा है। गाँधीजी की दृष्टि में श्रमविहीन सम्पत्ति तीसरा सामाजिक पाप है। यानी जो लोग अंतरराष्ट्रीय बाजारों में सट्टा लगा रहे हैं, जुआ खेल रहे हैं, दूसरों की सम्पत्ति पर अपना मुनाफा बना रहे हैं, उन्हें मेहनतकश तो नहीं कहा जा सकता, वे बिना श्रम किये अमीर कहलाते हैं और उनकी यह चोरी पूरी दुनिया को कंगाल बनाती है। गाँधीजी कहते हैं कि मानवताविहीन विज्ञान भी एक सामाजिक पाप है। यानी अगर विज्ञान जीवन की रक्षा की चिंता किये बिना सिर्फ विध्वंस का निर्माता है, तो उससे बड़ा सामाजिक पापी दूसरा कोई नहीं है।


महात्मा गाँधी ने नीतिविहीन व्यापार को पाँचवां पाप कहा है, क्योंकि वे मानते थे कि दुनिया में मनुष्य सहित सबका जीवन चलाने के लिए संयम की नीति होनी चाहिए। अगर अपने एक ही जीवन में सारे मनुष्य मिलकर, पृथ्वी के सारे संसाधनों को एक ही बार में डकार जायेंगे तो उनके पीछे आने वाले जीवन को कैसे पालपोस के बड़ा किया जा सकेगा। आज लगता है कि बाज़ार को अभी-अभी के जीवन की चिंता ज्यादा है, आने वाले जीवन की बहुत कम है। गाँधीजी छठवां सामाजिक पाप गिनाते हुए कहते हैं कि त्यागविहीन पूजा भी एक सामाजिक पाप है। भारतीय संस्कृति बार-बार यह स्मरण कराती है कि मनुष्य अपने आपको त्यागकर भोगना सीखे, वरना वह दुनिया को खा जायेगा और धर्म को पाखण्ड में बदल देगा। गाँधीजी चरित्रविहीन शिक्षण को सातवां पाप मानते हैं यानि अगर कोई शिक्षा मनुष्य के चरित्र का निर्माण नहीं करती तो वह एक स्वाधीन मनुष्य के बजाय, एक गुलाम मनुष्य को ही निर्मित करेगी। गाँधीजी की यह मान्यता थी कि अक्षर का संबंध हाथ से होना चाहिए। यानी श्रम और शिक्षा का योग होना चाहिए। वे कहते थे कि किसान का लड़का किसानी करे, बुनकर का लड़का कपड़े बुने, कुम्हार की संतानें घड़े बनायें। कहने का मतलब यह कि हर आदमी सरकार की नौकरी करके पराधीन न बने। अपनी वंश परम्परा से चलाया हुआ काम अपनाकर स्वाधीन बने।


शिक्षण को लेकर एक बात पर विचार करना बहुत जरूरी है कि स्कूलों, महाविद्यालयों आदि में जो बँधे-बँधाये कोर्स तैयार किये जाते हैं, उनसे पारम्परिक शिक्षण का विकास नहीं होता। वे योरप से आयातित आधुनिक शिक्षा के पैमानों के अनुरूप पढ़ाई-लिखाई का धंधा खड़ा करते हैं। फिर उसका एक बाज़ार बनता चला जाता है।


कभी ईवान इलिच नामक रूसी विचारक ने यह प्रतिपादित किया था कि हर देश में एक डि-स्कूलिंग सोसायटी होनी चाहिए। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति अपने पूर्वजों से चली आ रही परम्परा और घरों में विकसित विज्ञान और अपने स्थानीय संस्थानों के बीच रहकर अपनी परिस्थितियों का अध्ययन करके शिक्षित बने, न कि अपने भूगोल और संस्कृति के विपरीत जाकर एक आयातित शिक्षा के बंधन में अपने आपको जबरन बाँधकर अपनी स्वाधीनता खो दे। महात्मा गाँधी इसी आधार पर अपने पूरे जीवन योरप और भारत की सभ्यता की समीक्षा करते रहे।


महात्मा गाँधी ने समाज को कभी दोष नहीं लगाया। उन्होंने तो सिर्फ इतना कहा है कि अगर यह पाप कोई समाज करेगा तो उसे समाज कहना कठिन है। वे जीवन की एक समग्र व्यावहारिकी में भरोसा रखते थे, इसीलिए उन्होंने बहुत प्राथमिकता के साथ बोलियों और भाषाओं पर विचार किया है। वे अच्छी तरह जानते थे कि भारत में बहुत-सी भाषाएं और हजारों बोलियाँ बोली जाती हैं, लेकिन वे यह पहचान सके कि हिंदी भाषा का पाठ कुछ ऐसा है, जिसे पूरा देश सहज ही पढ़ सकता है, उसमें बोल सकता है, गुनगुना सकता है। इसी कारण उन्होंने भारत की सम्पर्क-भाषा के रूप में हिंदी को मान्यता दी थी। वे बोलियों का सम्मान करते थे, क्योंकि वे जानते थे कि बोलियों में बसे लोक स्वरों में जीवन के सूत्र छुपे होते हैं। भारत के विभिन्न प्रांतों के लोकगीतों का अध्ययन करने वाले लोग यह भली प्रकार जानते हैं कि भारत के संस्कार और मृत्युगीतों में जीवन के वास्तविक मर्म और उसे जीने की प्रक्रिया के दर्शन होते हैं। वे भारतीय मनुष्य को उसके मौसम की तासीर, परिस्थिति का ज्ञान और उसके जीवन का विकास करने की शिक्षा देते हैं। गाँधीजी ने इसीलिए गाँवों को कसौटी माना था, क्योंकि वे अस्तित्व के राग-रंग को पहचानकर पृथ्वी पर अपने आप बस जाते हैं, जबकि नगर अस्तित्व के राग-रंग की परवाह किये बिना जल और वनों के मार्गों का अतिक्रमण कर भूखण्डों की रचना करते हैं। गांधीजी ही साहसपूर्वक यह कह सके कि गाँव मर्यादित होते हैं और शहरों में गंदी नालियां और गुंडों की गलियां पैदा होती हैं। नगरों में ऐसी बस्तियां पैदा होती हैं, जहाँ रहने वाले लोग एक-दूसरे को जाने बगैर भाग-दौड़ करते थकते रहते हैं, एक-दूसरे को थकाते रहते हैं। उनके पास गाँव की चौपाल जैसा वह वक्त कहां, जहां बैठकर वे अपने मन के गीत गा सकें।


आज हम बाज़ार की दुनिया में चीजें बेचने वाले अनेक तरह के मॉडल्स और बिकाऊ अभिनेताओं को देखते रहते हैं। ये बाज़ार के मॉडल हैं, जो सिर्फ हमें चीजें खरीदने के लिए ललचाते हैं, लेकिन जरा गहराई से विचार करें तो गाँधीजी उस मानव जाति के मॉडल हैं, जो मनुष्य के अपने जीवन और उसमें बीतने वाले समय का मूल्यांकन करने को बाध्य करते हैं और यह रेखांकित करते हैं कि जीवन की सार्थकता चीज़ों की गुलामी में नहीं है, बल्कि चीज़ों की सार्थकता मात्र उस ज़रूरत की पूर्ति में है, जो जीवन के लिये आवश्यक हैं।

-सुषमा शर्मा

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