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शब्दब्रह्म के साधक विनोबा

विनोबा रेखांकित करते हैं कि विज्ञान, सत्ता-संपत्ति और स्वार्थ के हाथों बिक गया है। गांव को स्वावलंबी बनाने के लिए आजादी के बाद बहुतेरे प्रयास किये गये। खादी, ग्रामोद्योग, गोपालन आदि ग्रामोपयोगी विद्याओं का प्रचार प्रसार किया गया, लेकिन बाजार के सामने खादी और ग्रामोद्योग के विचार नतमस्तक हो गये। इनका मूल लक्ष्य बाजार मुक्त व्यवस्था बनाने का था, परंतु मुक्त बाजार की अवधारणा ने विकेंद्रीकरण के विचार को सर्वाधिक हानि पहुंचाई।

भारतीय संत परंपरा और सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक क्षेत्र में वैचारिक क्रांति के पुरोधा आचार्य विनोबा भावे ने दुनिया को अभिनव विचारों से समृद्ध किया है। पुराने शब्दों में नया अर्थ भरने में विनोबा सिद्धहस्त हैं। शब्दब्रह्म के साधक विनोबा ने अपने चिंतन और प्रयोगों से वर्षों से चली आती जड़ता पर सौम्य प्रहार किया और मनुष्यता को एक पायदान ऊपर चढ़ाने के लिए बीज वपन किया। उन्होंने अपने विचारों को आध्यात्मिक आधार देते हुए उन्हें विज्ञान युग के अनुरूप प्रस्तुत किया। युग प्रवाह के किसी गहन अध्येता से ही यह संभव हो पाता है। इस प्रवाह का द्रष्टा ही परिवर्तन को देख पाने में समर्थ होता है।

ग्रामस्वराज में निहित क्रांति तत्व, गणसेवकत्व और समाजाभिमुख ब्रह्मविद्या; पवनार मित्र-मिलन में चर्चा के ये तीन विषय तथा हमारे समूचे काम का अधिष्ठान ब्रह्मविद्या, आज के वैज्ञानिक चेतना संपन्न विश्व के लिए सर्वथा उपयुक्त है। विनोबा ने मालिकी-विसर्जन को ग्रामस्वराज का आधार माना है। विनोबा ने जब यह विचार दिया था तब भारत के अधिकांश गांव सभी दृष्टियों से विपन्न थे। वहां गरीबी और निरक्षरता का महासागर हिलोरें मार रहा था। ऐसे समय में उन्होंने पहले भूदान, फिर ग्रामदान और उसके बाद संपत्ति दान, मालिकी विसर्जन का विचार देश के सामने प्रस्तुत किया और उसकी थोड़ी झलक ग्रामदान के रूप में दिखलायी भी। एक ओर देश में केंद्रित उद्योग की हवा बह रही थी, तो दूसरी ओर विनोबा ग्राम्य संस्कृति के रक्षण के उपाय बता रहे थे। यह ठीक वैसा ही था जैसे महात्मा गांधी ने दो विश्वयुद्धों के बीच अहिंसा और सत्याग्रह का विचार दुनिया के सामने रखा।

आज सत्तर साल से अधिक हो गये हैं। तब से देश ने अनेक क्षेत्रों में प्रगति की है। वह ठीक दिशा में हुई है, ऐसा नहीं कह सकते, लेकिन एक कान्शस निर्मित हुआ है। व्यक्तिगत स्वार्थ पूर्ति का स्थान समूह ने ले लिया है। अब यह स्वार्थ ग्राम विकास के लिए है अथवा समूह के अपने विकास के लिए, इतना ही प्रयास करना है। गांव की भलाई के लिए समूह के स्वार्थ विसर्जन का आधार ब्रह्मविद्या के अलावा और कुछ नहीं हो सकता।

जमीन दो कि भूमिहीन लोग काम पा सकें। उठा कुदाल बाजुओं का जोर आजमा सकें।

विज्ञान के क्षेत्र में समूह भावना का स्पष्ट चित्र उभरकर सामने आया है। देशों की सीमाएं टूट गयी हैं और ब्रह्मांड के रहस्यों को उजागर करने के लिए धरती पर शत्रुता का भाव रखने वाले देश अंतरिक्ष में आपस में सहयोग कर रहे हैं। वैज्ञानिक उपलब्धियां बहुद्देशीय हो गयी हैं। वैज्ञानिक प्रगति कभी देशों में अभिमान जाग्रत कर देती थी, आज उसे सामान्य घटना के रूप में लिया जाता है। इस समूह भावना को ग्रामजीवन में दाखिल करना है। विज्ञान युग में गांव हजार-पांच सौ साल पहले वाले नहीं दिखायी देंगे। विनोबा ने जिस ग्राम संकल्प के आधार का विचार दिया है, वह गांव की दहलीज पर खड़ा है। विज्ञान उस संकल्प को पूरा करने का दबाव बना रहा है, लेकिन समूह का क्षुद्र स्वार्थ उसे अपनाने से इन्कार कर रहा है। इसमें ब्रह्मविद्या की भूमिका बढ़ जाती है।

विनोबा ने इस बात को रेखांकित किया है कि विज्ञान, सत्ता-संपत्ति और स्वार्थ के हाथों बिक गया है। गांव को स्वावलंबी बनाने के लिए आजादी के बाद बहुतेरे प्रयास किये गये। खादी ग्रामोद्योग, गोपालन आदि ग्रामोपयोगी विद्याओं का प्रचार प्रसार किया गया, लेकिन बाजार के सामने खादी और ग्रामोद्योग के विचार नतमस्तक हो गये। इनका मूल लक्ष्य बाजार मुक्त व्यवस्था बनाने का था, परंतु मुक्त बाजार की अवधारणा ने विकेंद्रीकरण के विचार को सर्वाधिक हानि पहुंचाई। महात्मा गांधी विज्ञान और टेक्नालॉजी के कारण सत्ता-संपत्ति के केंद्रीकरण की बात समझ चुके थे। केंद्रित सत्ता और केंद्रित संपत्ति सारी मानव जाति को गुलाम बना लेगी। आज उनकी बातें सच हो गयी हैं, परंतु यह भी उतना ही सच है कि विज्ञान और तकनीक मनुष्य के हाथ से निकल चुकी है। इस पर अंकुश लगाने का काम सिर्फ अध्यात्म ही कर सकता है। स्वामी विवेकानंद का कहना था कि ग्रामीणों को चेतना संपन्न बनाने के बाद वे अपनी मुक्ति स्वयं सिद्ध कर लेंगे। जिस प्रकार अंग्रेजों ने इस देश को अधिक समय तक गुलाम बनाए रखने के लिए वैज्ञानिक साधन सिद्ध किये, वैसे ही स्वतंत्रता सेनानियों ने उन साधनों का उपयोग अपनी आजादी हासिल करने के लिया किया। आज ठीक वैसी ही परिस्थिति बनी हुई है। एक तरफ राजनीतिक शक्ति, विज्ञान और तकनीक से जातियों को गुलाम बनाना चाहती है, तो दूसरी तरफ मुक्ति की आकांक्षा भी बलवती हुई है। दुनिया के देशों में होने वाले आंदोलन इसका प्रमाण हैं।

आज वैदिक ऋषि का मंत्र ‘विश्वं पुष्टं ग्रामेsस्मिन अनातुरम’ धरातल पर आ गया है, विज्ञान युग में गांव आज विश्व से जुड़ गया है। भौगोलिक सीमाएं भले ही कायम हैं, आकाशीय सीमाएं टूट गयी हैं। पल भर में दुनिया से संपर्क करने के साधन मनुष्य की हथेली पर हैं। करुणा और घृणा के विस्तार की शक्ति उसके हाथ में है। प्रलय और निर्माण उसकी उंगली के सिरे पर मौजूद हैं। ऐसी स्थिति में विवेक जाग्रत करने के लिए अध्यात्म और ब्रह्मविद्या महत्वपूर्ण हो जाती है। विज्ञान युग में श्रम की उपेक्षा प्रलय का कारण बनेगा, वहीं श्रम प्रधान जीवन से धरती स्वर्ग से सुंदर हो जाएगी। इसे विनोबा ने मजदूरी के क्षेत्र में ब्रह्मविद्या कहा है।
महर्षि अरविंद ने भी विश्व राज्य का स्वप्न देखा और विनोबा भी सब राष्ट्रों के एक परिवार के अभिलाषी हैं। इसके लिए परस्परावलंबन के विचार को अपनाना होगा। समत्व के लिए विनोबा का यह तर्क है कि उंगलियों की समानता जितना समत्व तो साधना ही चाहिए। समाज की पंच शक्तियों का विकास होने से समत्व कायम हो सकता है।

विज्ञान और तकनीक ने समाज के सामने नया खतरा उपस्थित कर दिया है। उसने व्यक्ति के दिमाग को पढ़कर स्वावलंबी चिंतन को छीन लिया है। अब तकनीक उसके दिमाग और बुद्धि का संचालन कर रही है। उसकी पसंद-नापसंद का निर्धारण कर रही है। आने वाले समय में कृत्रिम बौद्धिकता और उससे आगे की तकनीक समाज को बहुत प्रभावित करेगी। कभी विनोबा ने कम्प्यूटर को लेकर कहा था कि यह बेरोजगारी बढ़ाने की नयी योजना है। यह कृत्रिम बौद्धिकता काम करने वालों को बेरोजगार करने वाली है। तकनीक का विकास तो कर लिया है, परंतु उसके होने वाले दुष्प्रभावों को पूरी तरह अनदेखा कर दिया है। भविष्य को संवारने में ग्रामदान मुख्य भूमिका निभाएगा। वह तकनीक अपनाने और न अपनाने पर अपना स्पष्ट अभिमत ग्रामीणों के सामने रखेगा। विनोबा ने ग्रामदान को डिफेंस मेजर कहा है, वह सोलहों आने सच होने जा रहा है। यह देश की प्रतिरक्षा में सहायक होगा। विज्ञान युग में ग्रामदान का विचार अपनाते ही देश सुरक्षा की दिशा में एक कदम आगे बढ़ा देता है। आज हर कोई सुशासन की बात तो करता है, लेकिन उसका मूर्त रूप शासन मुक्ति में दिखायी नहीं देता। राज्य का क्षय करने में विज्ञान मदद करेगा। लोग स्वयं ही कह उठेंगे कि अब हमें आपकी जरूरत नहीं है।

विनोबा शब्दशिल्पी हैं। उन्होंने अपने चिंतन और प्रयोगों में से अनेक नये शब्द बनाए हैं। ऐसा ही एक शब्द है गणसेवकत्व। विज्ञान के क्षेत्र में इस विचार का प्रत्यक्ष दर्शन हो रहा है। विज्ञान और तकनीक के विकास में किसी एक देश का नेतृत्व स्वीकार करने के दिन लद गये हैं। अंतरराष्ट्रीय बौद्धिक चेतना को जैसा विस्तार और महत्व इन दिनों मिल रहा है, इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ। इस प्रक्रिया को समाजाभिमुख करना युग की मांग है। यदि आज नेतृत्व की बात करेंगे तो वह विज्ञान के आश्रय से निरंकुश तानाशाही में रूपांतरित हो जाएगा। यह खतरा दुनिया के सामने उपस्थित है। इसका मुकाबला करने में मैत्री सक्षम है। इन दिनों ज्ञान का उम्र से संबंध विच्छेद हो गया है। मित्रवत व्यवहार ही काम देगा। इसमें श्रद्धा और विश्वास का स्थान महत्वपूर्ण हो जाता है। आध्यात्मिक मित्र मंडल हवा बनाने का काम करेगा। राम धीर गंभीर थे, जबकि लक्ष्मण उद्यत स्वभाव के, लेकिन दोनों में प्रगाढ़ मैत्री थी। उनमें वैचारिक भिन्नता थी, लेकिन हृदय एक ही था। सर्वसम्मति अध्यात्म का ही दूसरा पहलू है। जिस प्रकार विज्ञान में आग्रह काम नहीं करता है, सत्य मुख्य होता है, वैसे ही समाज जीवन में भी सत्यांश ग्रहण करने की समझ बढ़नी चाहिए।

ग्रामदान का विचार विज्ञान युग के अनुरूप है। इसमें आध्यात्मिक विकास का बीज निहित है। यह बात सोलहों आने सच है कि ग्रामदान विचार के व्यवहार में आने पर अणु शक्ति जैसा विस्फोट होगा, परंतु यह विध्वंसक न होकर अहिंसक तरीके से नयी समाज रचना करने वाला होगा।

भारत की बुनियाद में ब्रह्मविद्या है। रचनात्मक कार्य की बुनियाद जब अध्यात्म के आधार पर खड़ी होगी, तब विज्ञान की विधायक शक्ति से दुनिया परिचित होगी।

-डॉ पुष्पेन्द्र दुबे

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