सामान्यतः मानव शरीर की विकास प्रक्रिया 30 वर्ष की आयु तक चलती रहती है। इसके पश्चात 10 वर्ष अर्थात 40 वर्ष की आयु तक स्थिर बनी रही रहती है। इसके बाद अवसान काल शुरू होता है, जिसमें शरीर के हारमोनल परिवर्तन के साथ डीजेनरेशन की प्रक्रिया शुरू होती है। स्त्रियों में यह अधिक स्पष्ट रूप से दिखने लगता है,जिसे रजोनिवृत्ति काल (Menopause) कहते हैं। पुरुषों में भी यह परिवर्तन कुछ देर अर्थात 45 से 50 वर्ष की आयु से शुरू होता है। इस पर सामान्यतः ध्यान नहीं दिया जाता है। आयुर्वेद में इसका विशेष नाम तो नहीं मिलता है, परन्तु आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इसे शुक्र-निवृत्तिकाल (Andropause) कहा जाता है। कुछ अध्ययनों में पता चला है कि इस स्थिति की उपेक्षा के कारण ही बुढ़ापे में अनेक रोगों की सम्भावना बन जाती है।
जैसे स्त्रियों में यौन सूक्ष्म रसों (Strogen, Progesterone,Testosterone) की सक्रियता से 12-13 वर्ष की आयु में आर्तवचक्र आरम्भ होकर 40-50 साल की उम्र तक चलता रहता है, वैसे ही पुरुष शरीर में भी यौन सूक्ष्म रसों (Androgens,testosterone) की सक्रियता से 12-14 वर्ष की उम्र में शुक्र-चक्र आरम्भ होकर 45 से 55 वर्ष की उम्र तक चलता रहता है। यौन सूक्ष्म रसों (Hormones) का प्रभाव शारीरिक और मानसिक दोनों धऱातल पर होता है। स्त्रियों में आर्तवचक्र का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखता है, परन्तु पुरुष शुक्र-चक्र अस्पष्ट होता है। एक अध्ययन में पाया गया है कि स्त्रियों की ही तरह प्रत्येक माह 3-4 दिन तक पुरुष भी तनाव व विषादग्रस्त रहते हैं।
स्त्री-पुरुष दोनों में 40 वर्ष की उम्र से यौन सूक्ष्म रसों (Hormones) के सृजन में 2 प्रतिशत की दर से गिरावट आने लगती है। स्त्रियों में 40 से 50 वर्ष की उम्र तक तथा पुरुषों में 45 से 55 वर्ष की उम्र तक यौन सूक्ष्म रस निष्क्रियता के स्तर पर पहुँच जाते हैं। इस काल में शारीरिक-मानसिक परिवर्तन होने लगते हैं। स्त्रियों में इसे रजोनिवृत्ति काल (Menopause) तथा पुरुषों में इसे शुक्र-निवृत्ति काल (Andropause) कहते हैं, इस काल में स्त्री-पुरुष दोनों में अनेक प्रकार की अकारण व्याधियों के लक्षणों का आभास होता है।
शुक्र-निवृत्ति काल में पुरुष में अस्थि-शुषिरता (Osteoporosis), रक्त भार-वृद्धि (Hyper Tension), हृदय विकार, मेदवृद्धि, मूत्ररोग, मूत्रअशक्ति, अवसाद, चिड़चिड़ापन, प्रोस्टेट, विस्मृति, अनिद्रा, चिंता, भय, मानसिक दुर्बलता, थकान, सुस्ती, चिंता, यौन संबंध बनाने की इच्छा कम होना, नपुंसकता की शिकायत, ज़्यादा देर तक कसरत नहीं कर पाना, मजबूती में गिरावट, पसीना ज़्यादा निकलना, याद्दाश्त और एकाग्रता का कम होना आदि लक्षण प्रकट होते हैं। सामान्यतःयही लक्षण स्त्रियों में भी होते हैं, जिस पर काफी अध्ययन हुआ है. इसके लिए चिकित्सा प्रबंधन भी है, परन्तु पुरुषों पर बहुत कम अध्ययन हुआ है।
भारत या विकासशील देशों में इसके बारे में एक अनभिज्ञता-सी है। पुरुष वर्ग या चिकित्सक समुदाय भी इस स्थति की उपेक्षा करते हैं, जिसका परिणाम यह है कि जब इस उम्र के रोगी ऐसी शिकायतें लेकर चिकित्सकों के पास जाते हैं, तो उन्हें जीवन भर के लिए रक्त-भार नियंत्रक (Anti-hypertensive Drug) एवं अवसादहर दवाओं का परामर्श दे दिया जाता है। वर्तमान में कोई कारण न मिलने पर थायरायड केन्द्रित चिकित्सा की जाती है। अंततःऐसे रोगियों की संख्या दिनो-दिन बढ़ती जा रही है। विकसित देशों में इसके लिए हारमोनल रिप्लेसमेंट थेरेपी (Hormonal Replacement Therapy-TRT) का प्रयोग किया जा रहा है, जिससे बुढ़ापे के रोगों से बचाव व नियंत्रण संभव हो रहा है।
आयुर्वेद में पुरुषों की इस स्थिति की स्पष्ट वर्णन तो नहीं मिलता है, परन्तु आचार्य चरक ने शरीर स्थान में कहा है कि आयु के अर्धांश में वायु की वृद्धि से रसादि धातुएँ शुष्क होने लगती हैं, शुक्र-निवृत्ति काल के प्रबंधन के लिए आयुर्वेद में रसायन चिकित्सा का उल्लेख मिलता है। अष्टांग हृदय के अनुसार रसायन सेवन से दीर्घ आयु, स्मृति, मेधा तथा आरोग्य लाभ प्राप्त होता है। रसायन सेवन के लिए किशोर एवं मध्यम आयु का समय बताया गया है। मध्यम आयु ही शुक्र-निवृत्ति काल है, इसलिए रसायन चिकित्सा से शुक्र-निवृत्ति की समस्याओं का प्रबंधन संभव है।
रसायन चिकित्सा में गिलोय, अर्जुन, शतावरी, असगंध, विदारीकंद, रास्ना, मकोय, गोखुरु, दसमूल, पंचमूल, शिलाजीत, बसंत कुसुमाकर रस, महायोग राजगुगलु, लाक्षादिगुगलु, लौहगुगलु, पुष्पधन्वारस, रसराज रस, सिद्ध मकरध्वज, लक्ष्मी विलास रस, नारदीय, अभ्रक, नागार्जुनाराभ्र, पंचामृत, अभ्रक भस्म, लौह भस्म,माहेश्वर रस,पूर्णचन्द्र रस,अमृतार्णव रस,च्यवनप्राश आदि के प्रयोग से शुक्र-निवृत्ति काल का प्रबंधन कर जराजन्य व्याधियों से बचाव व नियंत्रण किया जा सकता है।
-डॉ.आर.अचल पुलस्तेय
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