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सोने की थाली में केसरयुक्त दूध लेकर खड़ी थीं महारानी कश्मीर

गांधीजी की इस ऐतिहासिक यात्रा के आगामी अगस्त में 75 वर्ष पूरे हो रहे हैं. इस अवसर पर शांति, प्रेम और भाईचारे का संदेश लेकर अस्वस्थ, विचलित और निराश कश्मीरी जनता से गांधीजी के रास्ते, भूमिका और भाषा के माध्यम से संवाद स्थापित करने के लिए 24 से 30 अगस्त के बीच पांच मित्र कश्मीर की यात्रा पर जा रहे हैं.

गांधीजी की कश्मीर यात्रा का अमृत महोत्सव वर्ष

देश को आज़ादी मिलने के ठीक पहले 1 से 5 अगस्त, 1947 के बीच गांधीजी कश्मीर घाटी की यात्रा पर थे. इस वर्ष इस घटना के 75 वर्ष पूरे हो रहे हैं. मुस्लिम बहुल प्रांतों का एक अलग राष्ट्र हो, इसी उद्देश्य से भारत-पाकिस्तान का विभाजन हुआ था. मुस्लिम बहुल होने के कारण कश्मीर पाकिस्तान में जायेगा, ऐसी सबको उम्मीद थी. भौगोलिक संरचना, संपर्क, रास्ते आदि की दृष्टि से भी कश्मीर का पाकिस्तान में जाना स्वाभाविक था. लेकिन राजा हरी सिंह को अपने घराने की राजशाही का स्वतंत्र राष्ट्र चाहिए था.

इस यात्रा में गांधीजी श्रीनगर में चार दिन और जम्मू में एक दिन रुके थे. उनके स्वागत में कश्मीर की जनता ने लाखों दिये जलाकर दीवाली मनायी थी. महारानी तारा देवी सोने की थाली में केसरयुक्त दूध लेकर रास्ते में खड़ी होकर खुद उनकी बाट निहार रहीं थीं. गांधीजी ने प्रेमभाव दिखाया, किसी प्रकार की कड़वाहट से परहेज करते हुए विनयपूर्वक इस दूध भरे स्वागत को नकार दिया. अपने कार्यकर्ताओं के जेल की तकलीफ में रहते हुए मैं इस स्वागत को स्वीकार नहीं कर सकता, ऐसा कहकर उन्होंने विनम्रतापूर्वक महारानी से क्षमा मांग ली.

गांधीजी कश्मीर के प्रधानमंत्री काक से मिले. उन्होंने प्रधानमंत्री से कहा कि जनता में उनके विरुद्ध काफी आक्रोश है. वे कश्मीर में सर्वाधिक अप्रिय व्यक्ति हैं. उन्हें अपने व्यवहार में सुधार लाकर जनता का विनम्र सेवक बनना चाहिए. गांधीजी महाराजा से मिले. उनके बीच क्या बातचीत हुई, यह प्रकाशित नहीं हो पायी. लेकिन भारत विरोधी मत के प्रधानमंत्री रामचन्द्र काक को महाराजा ने 8 अगस्त को निकाल बाहर कर दिया. जनक सिंह को आपातकालीन प्रधानमंत्री बनाया गया और बाद में कट्टर आर्यसमाजी पंजाबी न्यायाधीश मेहर चंद महाजन को प्रधानमंत्री नामित किया गया. उसी दिन महाराजा ने भारत-पाकिस्तान से ‘जैसे थे’ संधि करने का अनुरोध किया. मेहर चंद महाजन भारत के अनुकूल थे. उन्होंने भारत विरोधी ब्रिटिश पुलिस अधिकारियों को निलंबित कर दिया और रावी नदी पर पठानकोट और कठुआ के बीच पुल निर्माण का काम शुरू कर दिया. इस पुल से भारत- कश्मीर के बीच आवागमन का रास्ता खुलना था. भारत के सहयोग से कश्मीर घाटी से जम्मू को तार और फोन से जोड़ने का काम शुरू हो गया था. महाराजा ने गांधीजी को शाही भोजन का आमंत्रण दिया, लेकिन गांधीजी ने इसे भी विनम्रता पूर्वक नकार दिया.


गांधीजी बेगम अब्दुल्ला के घर गये, नेशनल कांफ्रेंस के कार्यकर्ताओं से मिले. मुजाहिद मंजिल नामक इमारत में नेशनल कांफ्रेंस का मुख्य कार्यालय था, वहां 20,000 लोगों के जमावड़े ने गांधीजी का स्वागत किया. बेगम अब्दुल्ला ने गांधीजी की प्रार्थना सभा में 5,000 महिलाओं को उपस्थित कराया. गांधीजी ने कहा, ‘हिन्दू और मुसलमान दोनों एक ही भाषा बोलते हैं, उनकी संस्कृति एक है, मुझे तो हिन्दू और मुस्लिम दोनों अलग-अलग पहचान में भी नहीं आते. आज जब सारा देश धर्मांधता की आग में झुलस रहा है, तो मुझे सिर्फ कश्मीर में आशा की किरण दिखायी दे रही है. हम सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं. अगर हम एक दूसरे से द्वेष करेंगे तो यह ईश्वर का अपमान होगा. कश्मीर का संघर्ष स्वतंत्रता के साथ-साथ राजशाही से मुक्ति के लिए भी है. मैं शेख अब्दुल्ला के उच्च आदर्शों और हिन्दू-मुस्लिम एकता की उनकी भूमिका के साथ हूँ. किसी ने हमारी आंख फोड़ दी, इसलिए अगर हम उसकी आंख फोड़कर बदला लेने पर उतारू हो जायेंगे, तो इसका परिणाम होगा कि सारी दुनिया अंधी हो जायेगी. चलिये आगे बढ़ें, निश्चय करें कि जो हो गया, उसे भूल जायें और माफ कर दें’.

एक चर्चा में गांधीजी ने कहा कि ब्रिटिश अधिकारशाही के अंत के बाद अब अमृतसर करार का भी अंत हो गया है. जिन्ना के विरोध में भूमिका लेते हुए उन्होंने कहा कि ‘राजा नहीं, जनता निर्णय लेगी’. गिलगिट को कश्मीर के अंतर्गत स्वायत्तता दी जाय, ऐसा गांधीजी ने सुझाया. जम्मू में कार्यकर्ताओं ने उनसे पूछा, ‘कश्मीर भारत में रहे या पाकिस्तान में जाय?’ इस पर महाराजा के लिए आपकी सलाह क्या है ? गांधीजी ने कहा, ‘मैं महाराजा को ऐसा कुछ नहीं कहूंगा कि वे भारत में शामिल हों या पाकिस्तान में. जनता सार्वभौम है. अगर महाराजा जनता के सेवक नहीं हो सकते तो वे जनता के राजा कैसे बन सकते हैं? राजा को अब इंगलैंड के राजा की तरह नाममात्र का शासक हो जाना चाहिए. मुझे मालूम हुआ है कि हमारे कश्मीरी भाई तकलीफ में हैं, इसलिए उनकी तकलीफ जानने के लिए, अपनी तरफ से उन तकलीफों को दूर करने के लिए और उनकी सेवा करने के लिए मैं यहाँ आया हूँ. कश्मीर भारत में शामिल हो या पाकिस्तान में, यह निर्णय लेने का अधिकार कश्मीरियों का है, वे जो भी निर्णय लेंगे, मैं उस निर्णय का आदर करूँगा और कश्मीरी लोग हमेशा हमारे भाई ही रहेंगे. आप पूछ रहे हैं, इसलिए मैं सलाह देता हूँ कि कश्मीर भावना के आधार पर नहीं, बुद्धि -विवेक के आधार पर निर्णय ले’.

गांधीजी के नैतिक आह्वान, नेहरू के भावुक प्रेम व उसके विरोध में अप्रिय हो चुके राजा के पक्ष में जिन्ना की नीति का जनता पर कुप्रभाव पड़ा. मुस्लिम होने के कारण कश्मीर के पाकिस्तान में शामिल होने का उनका आह्वान फीका पड़ गया.

गांधीजी के इस ऐतिहासिक दौरे के आज 75 वर्ष पूरे हो रहे हैं. इस अवसर पर शांति, प्रेम और भाईचारे का संदेश लेकर अस्वस्थ, विचलित और निराश कश्मीरी जनता से गांधीजी के रास्ते, भूमिका और भाषा के माध्यम से संवाद स्थापित करने के लिए 24 से 30 अगस्त के बीच रमेश शर्मा, कुमार कलानंद मणि, अखिलेश श्रीवास्तव और मणिमाला सहित हम पांच मित्र कश्मीर की यात्रा पर जा रहे हैं.

भारतीय नेताओं में सिर्फ गांधी और नेहरू को ही महसूस होता था कि कश्मीर आधुनिक, लोकतांत्रिक और सेक्युलर भारत में रहे. यदि भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के तहत राजा को निर्णय लेने का अधिकार दिया भी गया था, तो भी कांग्रेस ने उसे अमान्य कर दिया था. अपने राष्ट्र का चुनाव करने का सार्वभौम अधिकार सिर्फ जनता का है, ऐसी न्यायी भूमिका कांग्रेस ने ली थी. राजा को निर्णय लेने का अधिकार यदि मान्य किया गया होता तो हैदराबाद, जूनागढ़, भोपाल आदि पाकिस्तान में चले गये होते. 1945 में नेशनल कांफ्रेंस के लगभग 60,000 लोगों की उपस्थिति वाले सोपोर अधिवेशन में नेहरू सहित कांग्रेस के कई नेता मौजूद थे. अधिवेशन का निर्णय होते ही कश्मीर के जननेता शेख अब्दुल्ला को ‘नया कश्मीर’ आन्दोलन शुरू करने के कारण राजा हरी सिंह ने जेल में डाल दिया था.

अंतत: 16 जून 1946 को कश्मीर प्रवेशबंदी को तोड़कर नेहरू ने कश्मीर में प्रवेश किया. वे नेशनल कांफ्रेंस और शेख अब्दुल्ला के आंदोलन में सहभागी बने. महाराजा ने नेहरू को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया. दिल्ली के दबाव के कारण अंततः उन्हें नेहरू को रिहा करना पड़ा. जेल से छूटते ही नेहरू शेख अब्दुल्ला से मिलने जेल पहुंचे और अब्दुल्ला के आन्दोलन में कांग्रेस के समर्थन की घोषणा की. कांग्रेस अध्यक्ष अबुल कलाम आजाद ने पटेल से विमर्श करके नेहरू को वापस दिल्ली आने को कहा. शेख अब्दुल्ला का मुकदमा लड़ने के लिए वकील के रूप में नेहरू पुन: कश्मीर पहुंच गये. उस समय कश्मीर सरकार ने उन्हें आने दिया. न्यायालय में नेहरू ने कहा, ‘शेख अब्दुल्ला के ऊपर मुकदमा सारे भारत पर मुकदमा है’.

कश्मीर को जोड़ने के लिए, काश्मीर की जनता से बात करने और शेख अब्दुल्ला से मिलने के लिए नेहरू को पुन: एक बार कश्मीर जाना था. कृष्ण मेनन इसके लिए लार्ड माउंटबेटन से मिले. नेहरू और गांधीजी दोनों को कश्मीर में आने देने के लिए हरी सिंह तैयार नहीं थे. अंतत: माउंटबेटन के दबाव के कारण हरी सिंह ने गांधीजी को आने की अनुमति दी. नेहरू की अपेक्षा गांधीजी का आना उन्हें उचित लगा होगा, इसी सोच के कारण यह अनुमति मिली. उन्होंने शर्त रखी कि गांधीजी राजनीतिक सभा न करें. गांधीजी ने राजनीतिक सभा न करने की शर्त मान्य कर ली और प्रार्थना सभा में बोलने देने की विनती की. हरी सिंह ने प्रार्थना सभा में गांधीजी को भाषण देने की अनुमति दे दी.

इसके पहले प्रसिद्ध अर्थशास्त्री केटी शाह, भोपाल के नवाब के दूत स्वरूप कश्मीर को पाकिस्तान में शामिल होने देने को लेकर गांधीजी का मन बदलने के लिए उनसे मिले. 16 अक्टूबर 1947 को गांधीजी ने उनसे स्पष्ट शब्दों में कहा, ‘सिर्फ वर्तमान महाराजा का सिंहासन ही नहीं लुप्त होगा, यह राज्य भी भारत में विलीन होगा’. 4 जून 1947 को गांधीजी ने कहा था, ‘स्वतंत्र और सर्वसमावेशक भारत का निर्माण रजवाड़ों के लिए सिरदर्द साबित होगा…..भारत या पाकिस्तान के निर्णय का अधिकार कश्मीर के राजा को कैसे दिया जा सकता है? ब्रिटिश नीति गलत है. निर्णय का अधिकार जनता को है. जनता सार्वभौम है’. 29 जुलाई 1947 को गांधीजी ने कहा, ‘मैं महाराजा को यह सलाह देने वाला नहीं हूँ कि वे भारत में शामिल हों कि पाकिस्तान में, यह अधिकार कश्मीरी जनता का है. कश्मीर भारत के लिए भौगोलिक तौर पर महत्व का स्थान है. कश्मीरी जनता का अगर मत लिया जाय तो वह भारत में शामिल होने के पक्ष में होगा’.


कश्मीर भारत में आना चाहिए, ऐसा नेहरू ने मई 1947 में माउंटबेटन को कहा. उन्होंने नेहरू से एक टिप्पणी भेजने को कहा. 17 जून 1947 को माउंटबेटन को भेजी गयी टिप्पणी में नेहरू ने लिखा कि जम्मू में 61% मुस्लिम और 39% हिन्दू, कश्मीर में 92% मुस्लिम और 7.8% हिन्दू तथा सम्पूर्ण कश्मीर राज्य में 77% मुस्लिम व 21%हिन्दू हैं. हिन्दू-मुस्लिम जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली नेशनल कांफ्रेंस कि इच्छानुसार कश्मीर भारतीय संविधान सभा में सहभागी होगा, ऐसी आशा उन्होंने इस टिप्पणी में व्यक्त की.

मुस्लिम कांफ्रेंस की भूमिका
पाकिस्तान की मांग करने वाली कश्मीर की मुस्लिम कांफ्रेंस राजा के पक्ष में थी. शेख अब्दुल्ला के ‘नया कश्मीर’ आन्दोलन का उन्होंने विरोध किया था. शुरुआत में राजा को स्वतंत्र रहने के लिए उनका समर्थन किया था. हिन्दुओं की प्रजा परिषद और मुसलमानों की मुस्लिम कांफ्रेंस दोनों राजा के पक्ष में थे. राजा स्वतंत्र होने का विचार कर रहे हैं, ऐसा दिखते ही वे राज्य के स्वतंत्र रहने के पक्षधर हो गये. 15 अगस्त 1947 के बाद राजा ने पाकिस्तान की डाक और संचार व्यवस्था का उपयोग कश्मीर में शुरू कर दिया. पाकिस्तान उन्हें राजशाही कायम रखने का आश्वासन दे रहा था. राजा को पाकिस्तान की तरफ झुकता देखकर मुस्लिम कांफ्रेंस ने पाकिस्तानपरस्त भूमिका लेनी शुरू कर दी.

हिन्दुत्ववादियों की भूमिका
फरवरी 1947 में ही अखिल जम्मू और कश्मीर हिन्दू महासभा की कार्यकारिणी ने यह भूमिका ली थी कि कश्मीर का भारत में विलय न हो, बल्कि वहां स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र कायम करना चाहिए. इसके साथ ही उन्होंने राजा को पूर्ण समर्थन घोषित किया था. महाराजा विलय के संबंध में जो भी निर्णय लें, वे उसके साथ खड़े थे. स्वतंत्रता मिलने वाली है, जैसे ही ऐसा दिखने लगा, वैसे ही राजा के समर्थक सक्रिय हो उठे. जम्मू-कश्मीर प्रजा परिषद आरएसएस मंडली के वर्चस्व वाला एक हिन्दूवादी संगठन था. प्रेमनाथ डोगरा जम्मू-कश्मीर प्रजा परिषद के अध्यक्ष थे. उन्होंने 1940 में जम्मू में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा शुरू की थी. वे महाराजा हरी सिंह की परिषद के सदस्य भी थे. प्रजा परिषद ने प्रस्ताव पास कर महाराजा से आग्रह किया था कि वे भारत में शामिल न हों और स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र स्थापित करें.

आरएसएस ने हरी सिंह का झंडा फहराया
15 अगस्त 1947 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिन्दू राज्य सभा और मुस्लिम कांफ्रेंस आदि महाराजा के समर्थकों ने जम्मू में भारत का तिरंगा ध्वज न फहराकर, महाराजा हरी सिंह का झंडा फहराया था. उनके बैनर पर लिखा था, ‘स्वतंत्र, सार्वभौम, जम्मू-कश्मीर-लद्दाख-बाल्टिस्तान राज्य’. स्वतंत्र राष्ट्र का निर्माण करने के लिए महाराजा का समर्थन करने वालों का नेतृत्व प्रेमनाथ डोगरा कर रहे थे. राजा हरी सिंह के स्वतंत्र होने का विचार करते समय सरसंघ चालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर राजा हरी सिंह के महल में उनके साथ रह रहे थे. बलराज पुरी के अनुसार, ‘महाराजा ने संघ के गुरू गोलवलकर को व्यक्तिगत अतिथि के रूप में बुलवाया था.’

पाकिस्तान में शामिल होने व स्वतंत्र रहने का विरोध कश्मीर में सिर्फ नेशनल कांफ्रेंस और कुछ गिने चुने लोगों ने किया. भारत में भी 3 जून 1947 तक महात्मा गांधी और नेहरू को छोड़कर बाकी सबको लग रहा था कि कश्मीर स्वतंत्र रहेगा या पाकिस्तान में चला जायेगा.

मुस्लिम लीग के ‘डाइरेक्ट ऐक्शन’ के कारण भारत-पाकिस्तान ने अमानवीय जीव हत्या, अत्याचार, हिंसाचार और बलात्कार का भीषण अनुभव किया था. ‘एकसाथ रहना नहीं हो सकता तो प्रेम से अलग हो जायें’, कश्मीर में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं, इस कारण कश्मीर पाकिस्तान में गया तो चलेगा’, असहाय होकर ऐसे विचार आने भी शुरू हो गये थे. अपरिहार्य होने और विफल होने के कारण अनेक लोगों ने विभाजन को स्वीकार कर लिया. राजाजी और सावरकर ने भी श्यामाप्रसाद मुखर्जी को तार भेजकर बंगाल और पंजाब प्रांतों के विभाजन की मांग की थी.

-शेखर सोनालकर

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