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स्थानीय रोज़गार का काल! ऑनलाइन मार्केटिंग का मोहजाल!!

सरकार के प्रोत्साहन और नीतियों ने ऑनलाइन बाजार को मजबूती दी है. हमारे पास-पड़ोस के भाइयों के रोजगार बड़ी तेजी से टूट रहे हैं, बल्कि ऐसे कह सकते हैं कि हम सब खुद ऑनलाइन के मोहजाल में फंसकर अपने रोजगार को तोड़ रहे हैं. जिसकी दुकान लगातार कमजोर हो रही है, उसके घर भी ऑनलाइन सामान आ रहा है.

सत्येंद्र सिंह

आज घर बैठे सामान मंगाना आसान हो गया है. हर सामान मोबाइल की दुनिया में बिकने के लिए उपलब्ध है. कहना मुश्किल है कि क्या नहीं मिलेगा? मोबाइल पर बुक करना और घर पर डिलीवरी लेने में एक आकर्षण भी है, जो नई पीढ़ी को तो भा ही रहा है, पुराने लोग भी इसमें आकर्षण और सुविधा महसूस कर रहे हैं.

ऑनलाइन बुकिंग करके घर पर सामान पहुंचाने वाली कंपनियों के प्लेटफार्म बड़े होते जा रहे हैं. इनमें अमेजन, फ्लिपकार्ट जैसी कुछ कंपनियों ने बहुत बड़े बाजार पर कब्जा जमा लिया है. हम सब जब पास पड़ोस की दुकानों से सामान खरीदते हैं तो हमारा सामाजिक संबंध मजबूत होता है. पैसा हमारे आसपास के ज्यादा से ज्यादा लोगों के बीच घूमता है. जैसे हम अपने पैसे से आसपास के दुकान से, चक्की वाले से, सब्जी वाले से जुड़ते हैं, उसी पैसे से वे भी आपस में एक दूसरे से जुड़ते हैं, स्थानीय स्तर पर रोजगार खड़ा करने में यह सब एक दूसरे का सहारा बनते हैं. जब हम पास-पड़ोस के लोगों से मिलने वाला सामान किसी ऑनलाइन कंपनी से मंगाते हैं, तो वह पैसा सीधे कंपनी को चला जाता है और पास-पड़ोस का समाज छूट जाता है. अब यह प्रक्रिया बहुत तेज हो गई है. सरकार के प्रोत्साहन और नीतियों ने ऑनलाइन बाजार को बड़ी मजबूती दी है. हमारे पास-पड़ोस के भाइयों के रोजगार बड़ी तेजी से टूट रहे हैं, बल्कि ऐसे कह सकते हैं कि हम सब खुद ऑनलाइन के मोहजाल में फंसकर अपने रोजगार को तोड़ रहे हैं. जिसकी दुकान लगातार कमजोर हो रही है, उसके घर भी ऑनलाइन सामान आ रहा है.

इन बड़ी-बड़ी ऑनलाइन कंपनियों के बढ़ते दायरे पर विचार करें. इनके दायरे में केवल खरीदने वालों की संख्या ही नहीं बढ़ रही है, बल्कि अपने बनाए सामान को बेचने के लिए भी लोग इन्हीं आॅनलाइन कंपनियों के दायरे में आते जा रहे हैं. कोरोना संकट के समय देश में जिस तरह से सरकारी फैसले लिए गए, उसमें स्थानीय स्तर पर दुकानदारी को तोड़ दिया गया और ऑनलाइन खरीदारी का माहौल बनाया गया. ऑनलाइन कंपनियों ने उत्पादकों को साधा. बड़े और कंपनी फॉर्मेट पर काम करने वाले लोगों को ऑनलाइन कंपनियों ने जोड़ लिया है, लेकिन यह भी इनके साथ कब तक सुरक्षित रहेंगे कहना मुश्किल है.

इधर घरेलू उद्योग लगातार टूट रहे हैं. आसपास की दुकानों पर उनके सामानों की बिक्री की हिस्सेदारी न के बराबर रह गई है. इलाहाबाद के आसपास के कस्बों में आढ़तों पर बैठकर जानकारी मिली कि इन आढ़तों के पास बड़ी कंपनियों और मिलों के आर्डर तो हैं, जिन्हें ट्रकों से सामान भेजा जाता है, लेकिन छोटी चक्कियों और तेल मशीनों के पास जाने वाला सामान न के बराबर रह गया है. लगभग ऐसी स्थिति पूरे देश में हो गई है. मतलब साफ है कि हमारे पड़ोस में रहने वाले हमारे भाई का काम या तो टूट गया है या बेहद कमजोर हो गया है. वह जितने लोगों को अपने यहां काम पर रख सकता था, अब नहीं रख सकता है. महीने की पगार भी कम दे पाता है.

इन सब के बीच जो ज्यादा खतरनाक स्थिति बन रही है, वह यह कि सामान खरीदने के लिए हम जिन ऑनलाइन कंपनियों को चुन रहे हैं, अपने बनाए गए सामान को बेचने के लिए भी हमें उन्हीं गिनती की कंपनियों का सहारा लेना पड़ रहा है, इससे आगे बढ़कर इन कंपनियों ने बैंकिंग भी शुरू कर दी है, यानि खरीदना, बेचना और बैंकिंग सब कुछ दो चार कंपनियों के हवाले हो गया है.

सुरक्षित रोजगार का भी एक पक्ष है. जब कोई नई दुकान खुलती है, तो कुछ वर्षों की मेहनत के बाद दुकान से परिवार चलाने का खर्च निकलना शुरू हो जाता है. धीरे-धीरे जमती हुई दुकान उम्र के आखिरी पड़ाव तक साथ देती है और आने वाली पीढ़ी का भी सहारा बन जाती है, लेकिन इन ऑनलाइन कंपनियों में अपनी जवानी का समय दे रहे युवाओं का रोजगार और भविष्य कितना सुरक्षित है?
ऑनलाइन मार्केटिंग में शुरुआती वर्षों में स्थानीय स्तर पर ढेर सारे लोग खड़े हुए थे, जिन्होंने अपने शहर के लोगों को गृहसेवा देकर अपना रोजगार खड़ा किया था, लेकिन बड़ी और मल्टीनेशनल कंपनियों ने इस बाजार में उतरकर ढेर सारे ऑफर और छूट देकर स्थानीय लोगों को बाजार से बाहर कर दिया.

छोटे और स्थानीय स्तर पर होने वाली दुकानदारी और व्यापार का हमारे लिए क्या महत्व है, इसके टूटने पर हम पर और आने वाली पीढ़ी पर क्या असर पड़ेगा, इसका विचार करना जरूरी है. तब हम अपनी भूमिका स्पष्ट कर पाएंगे और सरकार की भूमिका समझ पाएंगे. अभी दूर तक ऐसी कोई उम्मीद दिखाई नहीं देती, जिसमें घरेलू उद्यमिता और छोटे व्यापार को बचाने की कोशिश हो रही हो. जिस तरह से पूरे देश की पूंजी और संपत्ति को कुछ लोगों के हाथों में समेटने का खेल चल रहा है, उसी में एक खेल यह भी है, ताकि पूंजी और सत्ता का गठजोड़ आसानी से बनाये रखा जा सके.

-सत्येंद्र सिंह

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